“स्टैंडिंग काउंसल को पद से हटाने की मांग पर सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला: न्यायिक मर्यादा, संवैधानिक सीमाएँ और नियुक्ति-विधि का विश्लेषण”
भारत के न्यायिक ढांचे में सरकारी विधि अधिकारियों (Law Officers) की नियुक्ति, भूमिका और पद से हटाए जाने के प्रश्न अक्सर विवादों के केंद्र में रहे हैं। विशेष रूप से उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में स्टैंडिंग काउंसल, एडिशनल चीफ स्टैंडिंग काउंसल, चीफ स्टैंडिंग काउंसल आदि पद न केवल प्रशासनिक रूप से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि राज्य की ओर से न्यायालयों में प्रभावी पैरवी की क्षमता भी इन पर निर्भर करती है। हाल ही में ऐसा ही एक मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पहुँचा, जिसमें याचिकाकर्ता ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें राज्य के मौजूदा स्टैंडिंग काउंसल को हटाने से इंकार कर दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट ने आज स्पष्ट शब्दों में कहा कि वह हाईकोर्ट के फैसले में दख़ल देने को तैयार नहीं है। कोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए इस प्रकार की नियुक्तियों को “कार्यपालिका का विशेषाधिकार” बताया और कहा कि न्यायालय केवल तभी हस्तक्षेप कर सकता है जब नियुक्ति प्रक्रिया में स्पष्ट रूप से संवैधानिक या कानूनी उल्लंघन हो। यह निर्णय न केवल विधि अधिकारियों की नियुक्ति से जुड़ी न्यायिक सीमाओं को रेखांकित करता है, बल्कि यह भी बताता है कि न्यायालय कब और कैसे इस तरह के विवादों में हस्तक्षेप कर सकता है।
इस विस्तृत लेख में हम सुप्रीम कोर्ट के आदेश, याचिकाकर्ता के तर्क, हाईकोर्ट के reasoning, विधि अधिकारियों की नियुक्ति से जुड़े संवैधानिक सिद्धांतों, न्यायिक समीक्षा की सीमाओं और आदेश के व्यापक प्रभावों का गहन विश्लेषण करेंगे।
1. प्रकरण का संक्षिप्त विवरण
याचिकाकर्ता ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की थी, जिसमें यह मांग की गई थी कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा नियुक्त किए गए एक स्टैंडिंग काउंसल को उनके पद से तत्काल प्रभाव से हटाया जाए। आरोप यह लगाया गया था कि—
- नियुक्ति राजनीतिक कारणों से प्रेरित है,
- चयन प्रक्रिया पारदर्शी नहीं थी,
- योग्यता के बजाय पक्षपात को वरीयता दी गई,
- और यह कि राज्य की ओर से मुकदमों की प्रभावी पैरवी प्रभावित हो रही है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इन तर्कों को स्वीकार करने से इंकार कर दिया और माना कि—
- स्टैंडिंग काउंसल की नियुक्ति “प्लेजर ऑफ़ द गवर्नर” के सिद्धांत पर आधारित एक प्रशासनिक निर्णय है,
- ऐसा पद कोई वैधानिक अधिकार नहीं देता जिसे ‘एनफोर्सेबल राइट’ के रूप में कोर्ट में चुनौती दी जा सके,
- और यह कि नियुक्ति प्रक्रिया में किसी स्पष्ट अनियमितता या भ्रष्टाचार का प्रमाण नहीं है।
हाईकोर्ट के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई, जहाँ आज न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया।
2. सुप्रीम कोर्ट की मुख्य टिप्पणियाँ
सुप्रीम कोर्ट ने अपील खारिज करते हुए निम्नलिखित महत्वपूर्ण बातें कही—
(A) न्यायालय सरकारी विधि अधिकारियों की नियुक्ति में हस्तक्षेप नहीं कर सकता
कोर्ट ने कहा कि स्टैंडिंग काउंसल की नियुक्ति एक “सर्विस कॉन्ट्रैक्ट” नहीं बल्कि “फिड्यूशियरी पोज़ीशन” है। यह राज्य का अधिकार है कि वह किस पर भरोसा कर अदालतों में अपना पक्ष रखने का दायित्व सौंपना चाहता है।
इस प्रकार की नियुक्ति न्यायिक समीक्षा के दायरे में तभी आएगी जब—
- प्रक्रिया में धोखाधड़ी,
- भ्रष्टाचार,
- जालसाजी,
- संविधान के किसी उपबंध का स्पष्ट उल्लंघन
सिद्ध हो जाए।
(B) कोर्ट ‘स्ट्रक्चर ऑफ एक्जीक्यूटिव चॉइस’ को नहीं बदल सकता
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि नियुक्ति यदि मनचाहे व्यक्तियों को देने का मामला भी हो, तब भी जब तक कोई कानून इसका नियमन नहीं करता, अदालत इसे बदलने का आदेश नहीं दे सकती।
(C) याचिकाकर्ता को ‘लोकस स्टैंडी’ नहीं
कोर्ट ने यह भी माना कि याचिकाकर्ता के पास ऐसा कोई प्रत्यक्ष अधिकार नहीं है जो इस नियुक्ति से प्रभावित हो रहा हो। अर्थात—
“किसी व्यक्ति को नियुक्त करने से आपको व्यक्तिगत हानि नहीं हुई, इसलिए आप उस नियुक्ति को चुनौती नहीं दे सकते।”
3. विधि अधिकारियों की नियुक्ति का संवैधानिक ढांचा
राज्य सरकार द्वारा हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में अपने पक्ष की पैरवी करने के लिए स्टैंडिंग काउंसल, एडिशनल एडवोकेट जनरल, एडवोकेट जनरल आदि नियुक्त किए जाते हैं। इनके पद संवैधानिक नहीं बल्कि कार्यपालिका के विवेक पर आधारित होते हैं।
अनुच्छेद 165 केवल एडवोकेट जनरल के पद को संवैधानिक मान्यता देता है,
परंतु स्टैंडिंग काउंसल आदि की नियुक्ति प्रशासनिक निर्णय है, जिसके लिए कोई निश्चित प्रक्रिया कानून में निर्धारित नहीं है।
अदालत ने इसी बिंदु पर जोर दिया—
“जिस चीज़ को कानून ने कार्यपालिका के दायरे में छोड़ा है, उसे न्यायालय प्रक्रिया बनाकर लागू नहीं कर सकता।”
4. ‘प्लेजर ऑफ द गवर्नर’ सिद्धांत और इसका महत्व
सरकारी विधि अधिकारी “प्लेजर ऑफ द गवर्नर” पर कार्य करते हैं। इसका अर्थ है—
- नियुक्ति राज्य सरकार का विशेषाधिकार है,
- सरकार बिना कारण बताए भी पद से हटा सकती है,
- नियुक्त व्यक्ति पद पर ‘राइट टू कंटिन्यू’ नहीं रखता।
याचिकाकर्ता की मांग थी कि कोर्ट मौजूदा काउंसल को जबरन हटाए और प्रक्रिया पारदर्शी करे।
परंतु सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया—
“जहाँ संवैधानिक ढांचा ही पद पर निरंतरता का अधिकार न देता हो, वहाँ किसी तीसरे व्यक्ति की शिकायत पर कोर्ट हटाने का आदेश नहीं दे सकता।”
5. न्यायिक समीक्षा की सीमाएँ: कोर्ट कब हस्तक्षेप करेगा?
अदालतें केवल तीन परिस्थितियों में ऐसे मामलों में हस्तक्षेप कर सकती हैं—
- स्पष्ट अवैधता (Illegality)
उदाहरण— यदि पद किसी ऐसे व्यक्ति को दे दिया गया हो जिसे उस पद के लिए पात्र घोषित करने वाला नियम ही नहीं है। - अनुचितता (Irrationality / Wednesbury unreasonableness)
उदाहरण— यदि कोई व्यक्ति जो कानून का अभ्यास करने के लिए अयोग्य है, फिर भी नियुक्त कर दिया जाए। - प्रक्रिया में पक्षपात या mala fide
यदि प्रमाण हो कि नियुक्ति भ्रष्टाचार या दुर्भावनापूर्ण उद्देश्य के कारण की गई है।
याचिकाकर्ता इनमें से कोई बात सिद्ध नहीं कर सके।
6. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट—दोनों ने याचिका “मोटिवेटेड” कही
हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने यह शब्द इस्तेमाल नहीं किया, लेकिन उसके अवलोकन से यह स्पष्ट हुआ कि यह याचिका शायद—
- निजी द्वेष,
- पेशेवर प्रतिस्पर्धा,
- या व्यक्तिगत लाभ के उद्देश्य से प्रेरित थी।
हाईकोर्ट ने पहले ही कहा था कि याची यह नहीं दिखा सका कि उसे कोई लीगल इंजरी हुई है।
सुप्रीम कोर्ट ने इसी reasoning को स्वीकार किया।
7. क्या न्यायालय नियुक्ति की ‘क्वालिटी’ देख सकता है?
यह तर्क दिया गया था कि—
राज्य की ओर से गलत व्यक्ति नियुक्त होने से राज्य के मामलों की प्रभावी पैरवी नहीं हो रही और इससे न्यायिक प्रणाली प्रभावित होगी।
सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को इस आधार पर खारिज किया कि—
- अदालत ‘मैरिट’ का मूल्यांकन नहीं कर सकती,
- प्रशासनिक पदों के लिए ‘हे कौन अधिक योग्य?’ का प्रश्न न्यायपालिका के क्षेत्राधिकार के बाहर है,
- सरकार को ही यह तय करने का अधिकार है कि वह किस पर भरोसा करती है।
8. निर्णय के व्यापक प्रभाव
(A) राज्य सरकारों को राहत
यह आदेश स्पष्ट करता है कि
सरकारी विधि अधिकारियों की नियुक्तियों को चुनौती देना आसान नहीं है।
इससे सरकारों को अपने विवेक से योग्य/विश्वस्त व्यक्तियों को नियुक्त करने में आसानी होगी।
(B) अनावश्यक मुकदमों में कमी
अक्सर असंतुष्ट वकील अदालत पहुँच जाते हैं।
अब स्पष्ट हो गया है कि—
“नौकरी नहीं मिली या पद नहीं मिला तो कोई व्यक्ति कोर्ट जाकर किसी और को हटवाने का अधिकार नहीं रखता।”
(C) न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन
यह आदेश एक आवश्यक संदेश देता है कि—
न्यायपालिका को कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
9. आलोचना के संभावित बिंदु
हालाँकि निर्णय पूर्णतः विधि सिद्धांतों पर आधारित है, परंतु कुछ आलोचना भी हो सकती है—
- पारदर्शिता की कमी
वर्तमान नियुक्ति प्रणाली को लेकर बार-बार आरोप लगते रहे हैं कि इसमें पारदर्शिता और मेरिट का अभाव है। - राजनीतिक हस्तक्षेप की संभावना
आलोचकों का कहना होगा कि अदालतें यदि हस्तक्षेप की गुंजाइश कम कर देंगी, तो राजनीतिक नियुक्तियाँ बढ़ेंगी। - विधि अधिकारियों की गुणवत्ता का सवाल
यदि नियुक्ति नियमों के अभाव में सरकार मनचाहे नाम चुनती है, तो इससे अदालतों में राज्य की पैरवी की गुणवत्ता भी प्रभावित हो सकती है।
फिर भी, सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण यही है कि—
“इस समस्या का समाधान नीतिगत सुधारों में है, न कि न्यायालय के आदेशों में।”
10. निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारतीय प्रशासनिक न्यायशास्त्र में एक महत्वपूर्ण निर्णय है, जिसने यह स्पष्ट किया है कि—
- सरकारी विधि अधिकारियों की नियुक्ति पूरी तरह से कार्यपालिका के क्षेत्राधिकार में है,
- अदालतें केवल अत्यंत सीमित परिस्थितियों में हस्तक्षेप कर सकती हैं,
- हाईकोर्ट द्वारा नियुक्ति को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज किया जाना सही था,
- और किसी व्यक्ति को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी सरकारी विधि अधिकारी को हटाने की मांग लेकर अदालत पहुँच जाए।
इस निर्णय ने न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संवैधानिक सीमाओं को पुनः रेखांकित किया है और यह स्पष्ट किया है कि अदालतें प्रशासनिक विवेक का स्थान नहीं ले सकतीं।
यह आदेश भविष्य में इस तरह की याचिकाओं पर न्यायालयों के दृष्टिकोण को और भी सुसंगत, स्थिर और विधिसम्मत बनाएगा।