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“सोशल मीडिया की अफवाहों का दुष्परिणाम: सुप्रीम कोर्ट में CJI बी.आर. गवई पर हमले की कोशिश की निंदा — सॉलिसिटर जनरल ने कहा, यह गलत सूचना का परिणाम है”

“सोशल मीडिया की अफवाहों का दुष्परिणाम: सुप्रीम कोर्ट में CJI बी.आर. गवई पर हमले की कोशिश की निंदा — सॉलिसिटर जनरल ने कहा, यह गलत सूचना का परिणाम है”


प्रस्तावना

भारत के सर्वोच्च न्यायालय में हाल ही में एक अत्यंत चौंकाने वाली घटना सामने आई जब एक अधिवक्ता (वकील) ने अदालत की कार्यवाही के दौरान भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) न्यायमूर्ति बी.आर. गवई पर हमला करने की कोशिश की। यह घटना न केवल अदालत की गरिमा के खिलाफ थी, बल्कि यह भी दर्शाती है कि आज के डिजिटल युग में सोशल मीडिया पर फैलाई जा रही गलत सूचनाएं (misinformation) किस तरह व्यक्तियों को उकसा सकती हैं और संस्थाओं की साख पर प्रहार कर सकती हैं।
सॉलिसिटर जनरल (SG) तुषार मेहता ने इस घटना की कड़ी निंदा करते हुए कहा कि “यह घटना सोशल मीडिया पर प्रसारित भ्रामक सूचनाओं का प्रत्यक्ष परिणाम है।”


घटना का संक्षिप्त विवरण

घटना की शुरुआत उस समय हुई जब सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच, जिसकी अध्यक्षता CJI बी.आर. गवई कर रहे थे, एक संवेदनशील याचिका पर सुनवाई कर रही थी। कार्यवाही के दौरान, एक अधिवक्ता ने अचानक से आक्रामक रुख अपनाया और कोर्ट की सुरक्षा को तोड़ने का प्रयास करते हुए मुख्य न्यायाधीश की ओर बढ़ गया।
हालांकि, अदालत में मौजूद सुरक्षा कर्मियों और अन्य अधिवक्ताओं की सतर्कता से यह स्थिति तुरंत नियंत्रण में आ गई। आरोपी अधिवक्ता को हिरासत में ले लिया गया और सुप्रीम कोर्ट प्रशासन ने तत्काल जांच के आदेश जारी किए।


सॉलिसिटर जनरल की प्रतिक्रिया

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता, जो देश के शीर्ष विधि अधिकारी हैं, ने इस घटना की निंदा करते हुए कहा कि “न्यायपालिका के विरुद्ध फैलाई जा रही झूठी सूचनाओं ने इस प्रकार की असामाजिक मानसिकता को जन्म दिया है।”
उन्होंने आगे कहा —

“यह घटना किसी व्यक्ति के क्रोध का परिणाम नहीं, बल्कि सोशल मीडिया पर फैले झूठ और प्रोपेगेंडा का नतीजा है। हमें यह समझना होगा कि इस तरह के झूठे नैरेटिव हमारे लोकतांत्रिक संस्थानों की जड़ों को कमजोर करते हैं।”

SG मेहता ने यह भी आग्रह किया कि सरकार और न्यायपालिका को मिलकर ऐसे गलत प्रचारों के खिलाफ ठोस रणनीति बनानी चाहिए, ताकि देश की न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता बनी रहे।


न्यायपालिका पर हमले का ऐतिहासिक दृष्टिकोण

भारत के न्यायिक इतिहास में यह घटना पहली बार नहीं है जब न्यायपालिका को निशाना बनाया गया हो।
पिछले कुछ वर्षों में, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स जैसे X (पूर्व में ट्विटर), Facebook, और YouTube पर न्यायाधीशों, कोर्ट के फैसलों और न्यायपालिका के कामकाज को लेकर गलत सूचनाओं का प्रसार बढ़ा है।
कई बार इन सूचनाओं का उद्देश्य न्यायपालिका की छवि को धूमिल करना और जनता के बीच अविश्वास पैदा करना रहा है।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों ने बार-बार स्पष्ट किया है कि कोर्ट की आलोचना और संस्थागत हमला — दोनों में फर्क है।
जहां एक तरफ रचनात्मक आलोचना लोकतंत्र की आत्मा है, वहीं दूसरी ओर झूठे तथ्यों पर आधारित प्रचार न्याय व्यवस्था की स्थिरता के लिए घातक है।


सोशल मीडिया की भूमिका और जिम्मेदारी

इस घटना ने एक बार फिर सोशल मीडिया कंपनियों की भूमिका और जिम्मेदारी पर बहस छेड़ दी है।
भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में सोशल मीडिया अब एक शक्तिशाली सूचना स्रोत बन चुका है, लेकिन इसके दुरुपयोग की घटनाएं भी तेजी से बढ़ रही हैं।

विशेषज्ञों का मानना है कि —

  • फेक न्यूज़ (Fake News)
  • डीपफेक वीडियो
  • और जानबूझकर फैलाया गया प्रोपेगेंडा

जनमानस को भ्रमित कर सकता है और संस्थागत अविश्वास को जन्म दे सकता है।

कानूनी दृष्टि से, सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (IT Act) की धारा 66A जैसे प्रावधान (हालांकि निरस्त किए जा चुके हैं) और नए डिजिटल मीडिया दिशानिर्देशों के तहत ऐसी गतिविधियों पर निगरानी रखी जा सकती है।

सॉलिसिटर जनरल ने यह भी कहा कि —

“सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि सोशल मीडिया पर फैली झूठी सूचनाओं को रोकने के लिए प्रभावी तंत्र बने। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं कि किसी संस्था की गरिमा पर हमला किया जाए।”


न्यायालयों की सुरक्षा व्यवस्था पर पुनर्विचार

इस घटना के बाद सुप्रीम कोर्ट की सुरक्षा व्यवस्था पर भी सवाल उठे।
CJI गवई ने स्वयं यह निर्देश दिया कि कोर्ट परिसर में सुरक्षा मानकों की समीक्षा की जाए।
सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) और सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन (SCAORA) ने संयुक्त रूप से बयान जारी किया कि —

“यह हमला केवल एक व्यक्ति पर नहीं, बल्कि भारत की न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर हमला है।”

कई वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने भी कहा कि कोर्ट की सुरक्षा न केवल शारीरिक स्तर पर, बल्कि डिजिटल स्तर पर भी सुदृढ़ की जानी चाहिए, ताकि न्यायाधीशों को किसी प्रकार का मानसिक दबाव या खतरा महसूस न हो।


सोशल मीडिया भ्रामकता से उत्पन्न खतरे

इस घटना का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि सोशल मीडिया पर misinformation किस तरह लोगों की धारणा को प्रभावित कर रही है।
कई बार देखा गया है कि न्यायिक फैसलों को अधूरा या तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया जाता है, जिससे जनता में न्यायपालिका के प्रति गलतफहमी फैलती है।
यही भ्रम आगे चलकर आक्रोश और असंतुलित व्यवहार का कारण बनता है।

मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और कानूनविदों का कहना है कि डिजिटल साक्षरता (Digital Literacy) को बढ़ाना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
यदि आम जनता को यह समझाया जाए कि इंटरनेट पर हर सूचना सत्य नहीं होती, तो इस प्रकार की घटनाओं में कमी लाई जा सकती है।


न्यायपालिका की गरिमा की रक्षा — एक सामूहिक जिम्मेदारी

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अपनी बात में यह स्पष्ट किया कि न्यायपालिका की गरिमा की रक्षा केवल न्यायाधीशों या सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह पूरे समाज की नैतिक जिम्मेदारी है।
उन्होंने कहा —

“हम सभी नागरिकों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि किसी भी संस्था के प्रति हमारे मतभेद या असहमति सभ्य संवाद की सीमा में रहें। लोकतंत्र की मजबूती का अर्थ है — संस्थाओं का सम्मान।”

कानूनविदों का भी मत है कि यदि ऐसी घटनाओं को गंभीरता से नहीं लिया गया, तो यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सीधा आघात होगा।


भविष्य के लिए सीख और सुधार के उपाय

  1. सुरक्षा प्रणाली का आधुनिकीकरण:
    सुप्रीम कोर्ट और अन्य अदालतों में उन्नत सुरक्षा प्रोटोकॉल अपनाने की आवश्यकता है।
  2. सोशल मीडिया निगरानी तंत्र:
    गलत सूचना फैलाने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई के लिए तकनीकी तंत्र विकसित किया जाए।
  3. जन-जागरूकता अभियान:
    डिजिटल साक्षरता और जिम्मेदार ऑनलाइन व्यवहार को बढ़ावा देने के लिए शिक्षण संस्थानों और सरकारी स्तर पर कार्यक्रम चलाए जाएं।
  4. संवाद की संस्कृति:
    न्यायपालिका और नागरिकों के बीच संवाद का स्वस्थ वातावरण बनाना चाहिए ताकि गलतफहमियां कम हों।

निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट में घटित यह घटना एक चेतावनी है कि सोशल मीडिया पर फैलाई गई झूठी सूचनाएं किस तरह समाज और संस्थाओं को अस्थिर कर सकती हैं।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता का यह कथन बिल्कुल सटीक है कि यह घटना “भ्रामक सूचनाओं के ज़हर का परिणाम” है।

न्यायपालिका किसी भी लोकतंत्र की रीढ़ होती है। यदि उस पर हमला होता है — चाहे वह शारीरिक रूप में हो या मानसिक रूप में — तो यह पूरे लोकतंत्र की नींव को हिला देता है।

इसलिए यह आवश्यक है कि समाज, सरकार, और मीडिया — तीनों मिलकर संवेदनशीलता, जिम्मेदारी और सत्यता के साथ कार्य करें।
केवल तभी हम न्याय व्यवस्था की गरिमा को अक्षुण्ण रख पाएंगे और आने वाली पीढ़ियों को एक सशक्त, विश्वसनीय और निष्पक्ष न्याय प्रणाली सौंप पाएंगे।