सुप्रीम कोर्ट, खजुराहो मंदिर और सीजेआई विवादित टिप्पणी: धर्म, न्याय और सांस्कृतिक धरोहर पर बहस
भारत एक बहु-धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता वाला देश है। यहाँ आस्था और संवैधानिक व्यवस्था अक्सर आमने-सामने खड़ी हो जाती है। हाल ही में ऐसा ही एक मामला सुप्रीम कोर्ट में तब सामने आया जब खजुराहो के विश्व धरोहर स्थल अंतर्गत आने वाले जावरी मंदिर में भगवान विष्णु की क्षतिग्रस्त मूर्ति के पुनर्निर्माण की मांग की गई। याचिका में कहा गया कि यह मूर्ति मुगल काल में आक्रमणकारियों द्वारा तोड़ी गई थी और आज तक उसी हालत में पड़ी है। भक्तों ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया कि मूर्ति का पुनर्निर्माण करवाया जाए ताकि श्रद्धालु पूर्ण रूप से पूजा कर सकें।
मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने याचिका खारिज कर दी और कहा कि यह विषय न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता, बल्कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के अंतर्गत आता है। लेकिन इस दौरान मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई की टिप्पणी ने विवाद खड़ा कर दिया। उन्होंने याचिकाकर्ता से कहा— “अगर आप भगवान विष्णु के सच्चे भक्त हैं, तो कोर्ट का दरवाजा खटखटाने के बजाय उनसे प्रार्थना कीजिए। जाइए और अपने भगवान से कहिए कि वे कुछ करें।”
यह टिप्पणी तुरंत ही सोशल मीडिया पर वायरल हो गई और बड़ी संख्या में हिंदू संगठनों व भक्तों ने इसे आस्था पर चोट करार दिया। सवाल उठने लगे कि क्या मुख्य न्यायाधीश किसी अन्य धर्म को लेकर भी ऐसा ही कह सकते थे? इस विवाद ने न केवल न्यायपालिका की तटस्थता बल्कि भारत में धार्मिक आस्था और सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण को लेकर भी गहन बहस छेड़ दी है।
खजुराहो और जावरी मंदिर का ऐतिहासिक महत्व
खजुराहो के मंदिर विश्व धरोहर स्थल घोषित हैं और अपनी स्थापत्य कला, मूर्तिकला और धार्मिक महत्त्व के लिए पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हैं। ये मंदिर 9वीं से 11वीं शताब्दी के बीच चंदेल वंश द्वारा बनवाए गए थे।
जावरी मंदिर विष्णु भगवान को समर्पित है। यहाँ की मूर्तियों की कलात्मकता अद्वितीय मानी जाती है। किंतु ऐतिहासिक आक्रमणों, प्राकृतिक क्षरण और उपेक्षा के चलते कई मूर्तियाँ क्षतिग्रस्त हो गईं। विशेषकर विष्णु की मूर्ति का सिर टूटा हुआ है। यह टूटी अवस्था श्रद्धालुओं को लंबे समय से खटक रही थी, इसी कारण भक्तों ने अदालत का सहारा लिया।
याचिकाकर्ता की दलीलें
याचिका राकेश दलाल नामक व्यक्ति द्वारा दायर की गई थी। उन्होंने कहा कि—
- मुगल आक्रमणों के दौरान भगवान विष्णु की मूर्ति को क्षति पहुंचाई गई।
- स्वतंत्रता के बाद भी सरकार ने इसको लेकर कोई कदम नहीं उठाया।
- मूर्ति का सिर टूटा हुआ है, जिससे पूजा-अर्चना पूर्ण रूप से नहीं हो पाती।
- मूर्ति का पुनर्निर्माण करना आवश्यक है ताकि भक्तों की भावनाओं को सम्मान मिले।
- मूर्ति को टूटी अवस्था में रखना मौलिक अधिकारों (धार्मिक स्वतंत्रता) का उल्लंघन है।
- सरकार और एएसआई की लापरवाही को अदालत को ठीक करना चाहिए।
याचिकाकर्ता ने यह भी कहा कि इस मुद्दे पर कई ज्ञापन दिए गए और प्रदर्शन भी हुए, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई।
ASI का तर्क
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) ने कोर्ट को बताया कि—
- खजुराहो विश्व धरोहर स्थल है और यहाँ के मंदिरों का संरक्षण एएसआई की जिम्मेदारी है।
- संरक्षण के नियमों के तहत मूल मूर्ति को हटाकर नई मूर्ति स्थापित करना उचित नहीं है।
- पुरानी मूर्तियों का स्वरूप जैसा है वैसा ही बनाए रखना चाहिए, यही अंतरराष्ट्रीय मानक भी है।
- धरोहर संरक्षण का उद्देश्य इतिहास को जस का तस संरक्षित रखना है, न कि उसे बदलना।
इसलिए एएसआई ने पुनर्निर्माण के प्रस्ताव को अस्वीकार किया।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि—
- यह मामला न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता।
- मूर्ति और मंदिर का संरक्षण पुरातत्व विभाग का विषय है।
- याचिकाकर्ता को यदि कोई शिकायत है तो उन्हें एएसआई से संपर्क करना चाहिए।
- अदालत इस पर सीधे आदेश जारी नहीं कर सकती।
यानी कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी और गेंद एएसआई के पाले में डाल दी।
विवादित टिप्पणी और प्रतिक्रिया
मुख्य न्यायाधीश गवई की टिप्पणी— “जाओ अपने भगवान से कहो, अगर आप सच्चे भक्त हैं तो प्रार्थना कीजिए।” —ने इस मामले को और संवेदनशील बना दिया।
प्रतिक्रिया:
- हिंदू संगठनों की नाराज़गी – कई लोगों ने इसे हिंदू आस्था का अपमान बताया।
- सोशल मीडिया पर बहस – एडवोकेट विनीत जिंदल ने सीजेआई को पत्र लिखकर टिप्पणी वापस लेने की मांग की।
- दोहरे मापदंड का आरोप – कई लोगों ने सवाल उठाया कि क्या सीजेआई किसी अन्य धर्म के संदर्भ में भी ऐसा ही कह सकते थे?
- न्यायपालिका की तटस्थता पर प्रश्न – न्यायाधीशों से अपेक्षा की जाती है कि वे संवेदनशील धार्मिक मामलों में टिप्पणी करते समय संयम बरतें।
धार्मिक आस्था बनाम पुरातत्व संरक्षण
यह मामला दो मूलभूत सवाल खड़ा करता है:
- क्या धार्मिक भावनाएँ पुरातत्व संरक्षण के नियमों से ऊपर हो सकती हैं?
- यदि हर टूटी मूर्ति को बदलकर नई स्थापित की जाए, तो ऐतिहासिक प्रामाणिकता समाप्त हो जाएगी।
- धरोहर स्थलों की महत्ता उनके मौलिक स्वरूप में ही है।
- क्या श्रद्धालुओं को पूजा के मौलिक अधिकार से वंचित किया जा सकता है?
- भारतीय संविधान अनुच्छेद 25-28 धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देते हैं।
- यदि मूर्ति टूटी है और भक्त पूजा नहीं कर पा रहे हैं, तो इसे मौलिक अधिकार का उल्लंघन माना जा सकता है।
इस तरह मामला बेहद पेचीदा हो जाता है।
कानूनी और संवैधानिक पहलू
- संविधान अनुच्छेद 25: प्रत्येक नागरिक को धर्म का पालन और प्रचार करने की स्वतंत्रता है।
- संविधान अनुच्छेद 49: राज्य की जिम्मेदारी है कि वह राष्ट्रीय महत्व की धरोहरों की रक्षा करे।
- एएसआई अधिनियम 1958: प्राचीन स्मारकों और पुरावशेषों का संरक्षण एएसआई की जिम्मेदारी है।
यानी संविधान एक ओर धार्मिक स्वतंत्रता देता है, वहीं दूसरी ओर धरोहर संरक्षण का दायित्व भी सौंपता है। इसी टकराव के बीच यह विवाद उत्पन्न हुआ।
अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण
यूनेस्को जैसे संस्थान भी धरोहर स्थलों के संरक्षण पर जोर देते हैं। उनका कहना है कि—
- प्राचीन धरोहरों को उनके मूल स्वरूप में ही सुरक्षित रखा जाए।
- किसी भी प्रकार का पुनर्निर्माण केवल तभी हो जब वह ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर हो।
- नई मूर्तियाँ लगाना या मूल स्वरूप बदलना संरक्षण सिद्धांतों के विपरीत है।
इस दृष्टिकोण से देखें तो एएसआई का रुख अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप है।
सामाजिक और राजनीतिक असर
- धार्मिक भावनाएँ भड़कीं – हिंदू संगठनों ने इसे आस्था पर हमला बताया।
- राजनीतिक बयानबाजी – कई राजनीतिक दलों ने इस विवाद को चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की।
- न्यायपालिका पर दबाव – सुप्रीम कोर्ट की निष्पक्षता पर सवाल खड़े हुए।
- धरोहर संरक्षण की बहस – समाज में यह चर्चा शुरू हो गई कि क्या पुरातत्व संरक्षण धार्मिक आस्था से ऊपर होना चाहिए?
आलोचना और समर्थन
- आलोचक कहते हैं कि सीजेआई को इस तरह की टिप्पणी नहीं करनी चाहिए थी, क्योंकि यह आस्था से जुड़ा मुद्दा है।
- समर्थक कहते हैं कि कोर्ट ने सही किया, क्योंकि यदि हर धार्मिक मांग को स्वीकार किया जाए तो धरोहर संरक्षण असंभव हो जाएगा।
आगे का रास्ता
- सरकार और एएसआई को चाहिए कि वे श्रद्धालुओं की भावनाओं का सम्मान करते हुए कोई वैकल्पिक व्यवस्था करें।
- टूटी मूर्ति के बगल में पूजा के लिए नई मूर्ति स्थापित की जा सकती है, जबकि पुरानी मूर्ति को ऐतिहासिक धरोहर के रूप में सुरक्षित रखा जाए।
- न्यायपालिका को भी भविष्य में इस तरह के संवेदनशील मामलों में संयम बरतना चाहिए।
निष्कर्ष
खजुराहो मंदिर विवाद ने एक बार फिर यह दिखा दिया है कि भारत जैसे देश में धार्मिक आस्था और धरोहर संरक्षण के बीच संतुलन बनाना आसान नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कानूनी दृष्टिकोण से सही फैसला दिया कि यह विषय एएसआई का है। किंतु मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी ने इस संवेदनशील मुद्दे को और जटिल बना दिया।
भारत की पहचान उसकी संस्कृति, धरोहर और विविधता से है। इसलिए आवश्यक है कि न्यायपालिका, सरकार और समाज मिलकर ऐसा रास्ता निकालें, जिसमें न तो धरोहरों का स्वरूप बिगड़े और न ही श्रद्धालुओं की भावनाएँ आहत हों। यही संतुलन भारत की असली ताकत है।
1. प्रश्न: सीजेआई गवई का पूरा नाम क्या है?
उत्तर: भूषण रामकृष्ण गवई।
2. प्रश्न: सीजेआई गवई किस नंबर के मुख्य न्यायाधीश हैं?
उत्तर: 52वें मुख्य न्यायाधीश।
3. प्रश्न: सीजेआई गवई का जन्म कब और कहाँ हुआ था?
उत्तर: 24 नवंबर 1960, अमरावती (महाराष्ट्र) में।
4. प्रश्न: सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में बी. आर. गवई की नियुक्ति कब हुई?
उत्तर: 24 मई 2019 को।
5. प्रश्न: मुख्य न्यायाधीश (CJI) के रूप में बी. आर. गवई ने कब कार्यभार संभाला?
उत्तर: 14 मई 2025 को।
6. प्रश्न: खजुराहो जावरी मंदिर की मूर्ति पुनर्निर्माण याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
उत्तर: यह मामला न्यायालय का नहीं, बल्कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) का है।
7. प्रश्न: ASI ने मूर्ति पुनर्निर्माण के खिलाफ क्या तर्क दिया?
उत्तर: संरक्षण नियमों के अनुसार प्राचीन मूर्तियों को हटाकर नई मूर्तियाँ लगाना उचित नहीं है।
8. प्रश्न: याचिकाकर्ता राकेश दलाल ने अपनी याचिका में क्या मांग की थी?
उत्तर: भगवान विष्णु की टूटी मूर्ति का पुनर्निर्माण और पुनःस्थापना।
9. प्रश्न: सीजेआई गवई की विवादित टिप्पणी क्या थी?
उत्तर: “जाओ और अपने भगवान से कहो, अगर सच्चे भक्त हो तो प्रार्थना करो।”
10. प्रश्न: सीजेआई गवई किस समुदाय से आते हैं और उनकी विशेष पहचान क्या है?
उत्तर: वे दलित समुदाय से आते हैं और भारत के पहले बौद्ध धर्मानुयायी मुख्य न्यायाधीश हैं।