शीर्षक: “सुप्रीम कोर्ट बनाम संसद: कौन बनाता है भारत का भविष्य?”
भूमिका:
भारतीय लोकतंत्र का ढांचा विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—इन तीन स्तंभों पर आधारित है। इनमें से संसद (विधायिका) कानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था है, जबकि सुप्रीम कोर्ट (न्यायपालिका) संविधान का संरक्षक और अंतिम व्याख्याकार है। परंतु जब दोनों के विचार और अधिकार आपस में टकराते हैं, तब प्रश्न उठता है—आखिर भारत के भविष्य का निर्माण कौन करता है? संसद, जो जनता द्वारा निर्वाचित होती है, या सुप्रीम कोर्ट, जो संवैधानिक सीमाओं की रक्षा करती है?
संसद की भूमिका: लोकतांत्रिक इच्छाशक्ति की अभिव्यक्ति
भारत की संसद लोकतंत्र का सबसे सशक्त प्रतिनिधि अंग है। यह कानून बनाती है, नीतियाँ तय करती है और सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करती है। संसद के सदस्य सीधे जनता द्वारा चुने जाते हैं, इसलिए उन्हें “जन इच्छा” का प्रतिनिधि माना जाता है। संसद ही बजट पास करती है, योजनाएं बनाती है और व्यापक सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों की नींव रखती है।
लेकिन संसद की शक्ति निरंकुश नहीं है। उसे संविधान की सीमाओं में रहकर कार्य करना होता है। संविधान के अनुच्छेद 13 के अनुसार, संसद द्वारा बनाया गया कोई भी ऐसा कानून जो मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है, शून्य हो सकता है।
सुप्रीम कोर्ट की भूमिका: संविधान का प्रहरी
सुप्रीम कोर्ट भारत का सर्वोच्च न्यायिक मंच है। इसका कार्य केवल विवादों का समाधान करना नहीं है, बल्कि यह संविधान की व्याख्या भी करता है। यह यह सुनिश्चित करता है कि संसद और कार्यपालिका संविधान के प्रावधानों से बाहर न जाएं। ‘संविधान की सर्वोच्चता’ की अवधारणा में सुप्रीम कोर्ट की केंद्रीय भूमिका है।
केस उदाहरण:
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने “बुनियादी ढांचे के सिद्धांत” की स्थापना की और संसद की संशोधन शक्ति को सीमित कर दिया।
- मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) में कोर्ट ने पुनः स्पष्ट किया कि संसद की शक्तियाँ असीमित नहीं हैं।
टकराव की स्थितियाँ: न्यायिक सक्रियता बनाम विधायी सर्वोच्चता
पिछले कुछ दशकों में सुप्रीम कोर्ट ने कई बार ऐसा आभास दिया है कि वह विधायिका की भूमिका में हस्तक्षेप कर रही है। ‘न्यायिक सक्रियता’ (Judicial Activism) के तहत सुप्रीम कोर्ट ने कई सामाजिक विषयों—जैसे पर्यावरण संरक्षण, अधिकारों की व्याख्या, और भ्रष्टाचार—में स्वतः संज्ञान (Suo Moto) लिया।
आलोचना: आलोचकों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट कभी-कभी ‘न्यायिक अतिक्रमण’ (Judicial Overreach) कर लेती है, जहाँ वह नीतियाँ तय करती है, जो विधायिका का काम होना चाहिए।
समर्थन: दूसरी ओर, समर्थक कहते हैं कि जब संसद या सरकार निष्क्रिय हो जाती है, तब न्यायपालिका का हस्तक्षेप आवश्यक हो जाता है।
क्या सुप्रीम कोर्ट देश का भविष्य तय कर रहा है?
सुप्रीम कोर्ट संविधान की व्याख्या करता है और उस व्याख्या के आधार पर नीति पर प्रभाव डालता है। उदाहरण के लिए:
- धारा 377 का रद्द होना,
- निजता का मौलिक अधिकार घोषित किया जाना,
- ईवीएम और चुनावी प्रक्रिया की निगरानी जैसे मामले, सभी न्यायिक हस्तक्षेप के कारण संभव हुए।
परंतु, क्या ये हस्तक्षेप लोकतांत्रिक प्रक्रिया की अवहेलना हैं? या ये संविधान की रक्षा हेतु आवश्यक कदम?
संसद बनाम सुप्रीम कोर्ट: टकराव या संतुलन?
वास्तव में, सुप्रीम कोर्ट और संसद को एक-दूसरे का प्रतिद्वंद्वी नहीं, पूरक माना जाना चाहिए। संविधान ने जानबूझकर शक्तियों का विभाजन किया है ताकि ‘चेक्स एंड बैलेंस’ की प्रणाली बनी रहे। जब संसद सीमा पार करती है, तो सुप्रीम कोर्ट उसे रोकती है; और जब न्यायपालिका अपनी सीमाओं को लांघती है, तो संसद उसे संशोधन और कानून बनाकर संतुलित करती है।
निष्कर्ष:
भारत का भविष्य न तो केवल संसद बनाती है, न ही केवल सुप्रीम कोर्ट। यह भविष्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया, संविधान के पालन और तीनों स्तंभों के बीच संतुलन से बनता है। संसद जनमत की शक्ति है, जबकि सुप्रीम कोर्ट संविधान की आत्मा की रक्षा करता है। जब दोनों अपने-अपने दायरे में संतुलित कार्य करते हैं, तभी भारत का लोकतंत्र सुरक्षित और सशक्त रहता है।
अंततः, प्रश्न यह नहीं होना चाहिए कि कौन बनाता है भारत का भविष्य, बल्कि यह होना चाहिए कि दोनों मिलकर किस प्रकार भारत को संवैधानिक मूल्यों के आधार पर दिशा दे सकते हैं।