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सुप्रीम कोर्ट ने AoRs को रंगीन फोटो पेश करने का निर्देश दिया, काले‑सफेद फोटो वाली याचिकाएँ अस्वीकार

सुप्रीम कोर्ट का निर्देश — काले‑सफेद फोटो वाली याचिकाएँ स्वीकार न हों, AoR को रंगीन तस्वीरें ही दाखिल करनी हों


प्रस्तावना

         भारतीय सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने हाल ही में अपनी रजिस्ट्री (Registry) को स्पष्ट निर्देश दिया है कि किसी भी याचिका (petition) को “लिस्टिंग” (न्यायिक सूची में शामिल करने) के लिए मंजूर न किया जाए, अगर उसमें ब्लैक‑एंड‑व्हाइट (काले‑सफेद) तस्वीरें संलग्न हों। इसके साथ ही, कोर्ट ने Advocates-on-Record (AoRs) — यानी वे वकील जो सीधे सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर सकते हैं — को यह आदेश भी दिया है कि वे रंगीन फोटो (colour photographs) पेश करें, न कि धुंधली या अस्पष्ट काले‑सफेद प्रतियाँ।

         यह कदम कोर्ट की प्रक्रिया में पारदर्शिता, साक्ष्य की स्पष्टता और न्यायिक कामकाज की नैतिकता को सशक्त बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण बदलाव माना जा रहा है।


पृष्ठभूमि और आदेश की वजह

  1. दीर्घकालीन समस्या
    सुप्रीम कोर्ट ने यह बताया है कि काफी समय से पक्षकार (petitioners) और वकील ब्लैक‑एंड‑व्हाइट फोटो कॉपियों का उपयोग कर रहे हैं, अक्सर धुंधली, अस्पष्ट तस्वीरें पेश की जाती हैं।
  2. पिछला आदेश
    यह नया निर्देश नए नहीं है — सितंबर 2024 में भी कोर्ट ने निर्देश दिया था कि बिना उसकी पूर्व अनुमति के काले‑सफेद तस्वीरें स्वीकार नहीं की जाएँ।
  3. हालिया पुष्टि और सख्ती
    24 नवंबर 2025 को, तीन-न्यायाधीशों की पीठ — जिसमें न्यायमूर्ति सूर्य कांत (अब CJI), न्यायमूर्ति एस.वी.एन. भाट्टी और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बाघची शामिल हैं — ने यह निर्देश और भी पुख्ता किया। Court ने कहा है कि जब तक “उचित रंगीन तस्वीरें, साथ ही साथ उनकी आयाम (distance dimensions) और एक संकल्पनात्मक योजना (conceptual plan)” नहीं दी जाती, तब तक उस सामग्री को रिकॉर्ड पर नहीं होने दिया जाएगा और वह “defects not cured” की सूची में रहेगा।
  4. इलेक्ट्रॉनिक और भौतिक फ़ाइलिंग
    यदि फोटो इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से दायर की गई हैं, तो AoRs को समानांतर रूप से हार्ड कॉपी भी सबमिट करनी होगी।

कानूनी और व्यावहारिक तर्क

यह कदम सिर्फ सजावट नहीं, बल्कि न्याय व्यवस्था की गुणवत्ता और विश्वसनीयता को बेहतर बनाने की दिशा में है। इसके पीछे कई महत्वपूर्ण विचार हैं:

  • दस्तावेज़ों की क्लैरिटी: रंगीन तस्वीरों में विवरण स्पष्ट होते हैं — चेहरे, वस्तुएँ, पृष्ठभूमि — जो ब्लैक‑एंड‑व्हाइट में अक्सर धुंधले हो जाते हैं। अस्पष्ट तस्वीरें न्यायाधीन पक्षों की पहचान, सत्यापन और प्रमाण के लिए कम उपयोगी हो सकती हैं।
  • यथार्थता और प्रमाण की सत्यता: कोर्ट को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि प्रस्तुत प्रमाण यथासंभव सटीक और गैर‑भ्रामक हों। काले‑सफेद तस्वीरों का दुरूपयोग या अस्पष्टता, गलत निष्कर्षों का आधार बन सकती है।
  • पारदर्शिता और जवाबदेही: जब AoRs को रंगीन तस्वीरें पेश करनी हों और हार्ड कॉपी भी देनी पड़े, तो यह अतिरिक्त कदम अदालत की प्रक्रिया में जवाबदेही लाता है। यह सुनिश्चित करता है कि प्रस्तुति सिर्फ “रूप दिखाने” तक सीमित न रहे, बल्कि वास्तविकता को सही रूप में प्रतिबिंबित करे।
  • प्रक्रियात्मक अनुशासन: कोर्ट का यह निर्देश कोर्ट और वकील दोनों पक्षों में एक विधिक अनुशासन (legal discipline) स्थापित करने की कोशिश है — यह याद दिलाता है कि याचिकाएँ सिर्फ कानूनी दस्तावेज़ नहीं, बल्कि न्यायाधीन सत्यता की जिम्मेदारी होती हैं।

संभावित चुनौतियाँ और आलोचनाएँ

हालाँकि यह आदेश तार्किक और सकारात्मक लगता है, पर इसके कार्यान्वयन में कुछ चुनौतियाँ हो सकती हैं:

  1. तकनीकी और वित्तीय बोझ
    कुछ AoRs या वकील ऐसे हो सकते हैं जिनके संसाधन सीमित हों — विशेषकर छोटे वकील या पटरियों से आने वाले पक्षकार। हार्ड कॉपी रंगीन फोटो तैयार करना और उन्हें दायर करना अतिरिक्त खर्च और काम है।
  2. फाइलिंग की देरी
    यदि किसी वकील के पास तुरंत उपयुक्त रंगीन फोटो न हो, तो “defects not cured” की श्रेणी में आने की संभावना हो सकती है, जिससे याचिका लिस्टिंग में देरी हो। यह पक्षकारों के लिए परेशानी बन सकता है, खासकर जिन मामलों में त्वरित सुनवाई की मांग है।
  3. मानकीकरण की जटिलता
    कोर्ट ने “distance dimensions और conceptual plan” की मांग की है — मतलब सिर्फ फोटो देना ही काफी नहीं है, उन्हें अधिक तकनीकी या व्यावसायिक रूप देना होगा। यह हर वकील के लिए आसान न हो।
  4. निष्पादन और निगरानी
    सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री को यह देखना होगा कि यह आदेश प्रभावी रूप से लागू हो रहा है। यदि समीक्षा (audit) या मॉनिटरिंग न हो, तो कुछ लोग फिर से ब्लैक‑एंड‑व्हाइट या धुंधली फोटो पेश करने की कोशिश कर सकते हैं।

संभावित दीर्घकालीन प्रभाव

यह निर्देश सिर्फ एक तात्कालिक सुधार नहीं हो सकता; इसके दीर्घकालीन (long-term) सकारात्मक प्रभाव भी हो सकते हैं:

  • प्रमाणात्मक कैसा बदल सकता है
    अदालत में पेश किए जाने वाले फोटोग्राफिक सबूतों की गुणवत्ता बेहतर होगी। यह न सिर्फ याचिकाओं की विश्वसनीयता बढ़ाएगा, बल्कि न्यायाधीन पक्षों के बीच विश्वास भी मजबूत करेगा।
  • वकीलों की पेशेवर जिम्मेदारी
    वकीलों को अपनी पेशेवर तैयारी में और अधिक ध्यान देना होगा — फोटो लेने, उसका दस्तावेजीकरण करने और उसे सही रूप में पेश करने में। यह वकीलों की पेशेवर दक्षता और न्यायप्रियता (judicial propriety) को बढ़ा सकता है।
  • न्यायप्रणाली पर सकारात्मक छवि
    जब सुप्रीम कोर्ट ऐसे आदेश जारी करता है, तो इससे न्याय प्रणाली की छवि बढ़ सकती है — यह दिखाता है कि कोर्ट सिर्फ बड़े मामलों को देखता नहीं, बल्कि याचिकाकर्ता और वकील स्तर तक प्रक्रिया की गुणवत्ता की परवाह करता है।
  • मौजूदा व भविष्य के सुधार
    यह आदेश संभवतः अन्य सुधारों के लिए एक बेंचमार्क बन सकता है — जैसे कि अन्य सबूतों की गुणवत्ता (वीडियो, दस्तावेज़ स्कैन, चार्ट्स) पर और सख्त मानक स्थापित करना, फाइलिंग प्रक्रियाओं में पारदर्शिता बढ़ाना, और वकील‑रजिस्ट्र्री संवाद को मजबूत करना।

निष्कर्ष

         सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश — कि काले‑सफेद फोटो वाली याचिकाएँ रजिस्ट्री लिस्टिंग के लिए स्वीकार न की जाएँ और AoRs को रंगीन फोटो (साथ ही आयाम और संकल्पना) पेश करने हों — न्यायिक प्रक्रिया की एक छोटी लेकिन अहम सफाई है। यह कदम सिर्फ “प्रोटोकॉल बदलने” तक सीमित नहीं है, बल्कि यह संदेश देता है कि कोर्ट प्रमाण की गुणवत्ता, वकीलों की जिम्मेदारी और याचिकाकर्ताओं की पहचान को गंभीरता से लेता है।

         यह निर्देश वकीलों और पक्षकारों को याद दिलाता है कि दस्तावेज़ सिर्फ औपचारिकता नहीं बल्कि न्याय की नींव होते हैं। साथ ही, यह कोर्ट की प्रतिबद्धता को दर्शाता है — न्याय सिर्फ कानून का पालन करने से नहीं, बल्कि पेशेवर मर्यादा, पारदर्शिता और उच्च मानदंडों के साथ प्रक्रिया को संचालित करने से सुनिश्चित किया जाता है।