“सुप्रीम कोर्ट ने रेप पीड़िता से विवाह करने पर दोषी की 20 साल की सजा माफ की: एक विवादास्पद निर्णय”

शीर्षक: “सुप्रीम कोर्ट ने रेप पीड़िता से विवाह करने पर दोषी की 20 साल की सजा माफ की: एक विवादास्पद निर्णय”

परिचय
हाल ही में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐसे मामले में 20 साल की सजा को माफ कर दिया, जिसमें एक व्यक्ति को अपनी 14 वर्षीय भतीजी के साथ यौन शोषण के लिए दोषी ठहराया गया था। यह निर्णय तब आया जब पीड़िता और दोषी ने विवाह कर लिया और उनके दो बच्चे भी हैं। यह मामला तमिलनाडु की ‘मामा-भांजी’ विवाह की परंपरा से जुड़ा है, जिसे अदालत ने इस विशेष परिस्थिति में मान्यता दी।

मामले का विवरण
दोषी, शंकर, को 2018 में पॉक्सो एक्ट की धारा 6 के तहत 20 साल की सजा सुनाई गई थी, जिसे मद्रास हाई कोर्ट ने 2021 में बरकरार रखा। हालांकि, शंकर ने सुप्रीम कोर्ट में एक क्यूरेटिव याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने तर्क दिया कि उनकी सजा से उनकी पत्नी (पूर्व पीड़िता) और बच्चों का जीवन प्रभावित हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट की तीन-न्यायाधीशों की पीठ, जिसमें मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति बी.आर. गवई शामिल थे, ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत ‘पूर्ण न्याय’ करने के अपने विशेषाधिकार का उपयोग करते हुए शंकर की शेष सजा को माफ कर दिया और ₹2 लाख का जुर्माना भी हटा दिया।

कानूनी और सामाजिक विमर्श
यह निर्णय कई कानूनी और सामाजिक प्रश्न उठाता है:

  1. कानूनी दृष्टिकोण:
    सुप्रीम कोर्ट ने पहले कहा है कि रेप पीड़िता और दोषी के बीच समझौता सजा को कम करने का आधार नहीं हो सकता, क्योंकि रेप एक गैर-समझौता योग्य अपराध है और यह समाज के खिलाफ अपराध माना जाता है।
  2. सामाजिक परंपराएं बनाम कानून:
    तमिलनाडु में मामा-भांजी विवाह की परंपरा को अदालत ने इस मामले में मान्यता दी, लेकिन यह सवाल उठता है कि क्या ऐसी परंपराएं कानून के ऊपर हो सकती हैं, विशेषकर जब मामला नाबालिग के यौन शोषण से जुड़ा हो।
  3. पीड़िता की सहमति और दबाव:
    क्या पीड़िता की विवाह के लिए सहमति स्वतंत्र थी, या यह सामाजिक दबाव और परिस्थितियों का परिणाम थी? यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है जब पीड़िता नाबालिग हो और दोषी उसका संरक्षक हो।

निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय एक जटिल और संवेदनशील मामले में आया है, जहां कानूनी सिद्धांत, सामाजिक परंपराएं और व्यक्तिगत परिस्थितियां आपस में टकरा रही हैं। यह निर्णय भविष्य में ऐसे मामलों में एक मिसाल बन सकता है, लेकिन यह भी आवश्यक है कि कानून की व्याख्या करते समय पीड़िता के अधिकारों और नाबालिगों की सुरक्षा को सर्वोपरि रखा जाए।