सुप्रीम कोर्ट ने तेलंगाना सरकार द्वारा स्थानीय निकायों में पिछड़ा वर्ग (BC) कोटा 42% बढ़ाने के खिलाफ याचिका पर विचार करने से किया इनकार; हाई कोर्ट में जाने की दी अनुमति
परिचय
तेलंगाना में पिछड़ा वर्ग (BC) के लिए आरक्षण के मामले में हाल ही में एक विवाद ने राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित किया है। तेलंगाना सरकार ने 26 सितंबर 2025 को सरकारी आदेश (GO Ms No. 9) जारी किया, जिसमें राज्य के स्थानीय निकाय चुनावों में पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण को 23% से बढ़ाकर 42% कर दिया गया। इस निर्णय के बाद राज्य में कुल आरक्षण 67% तक पहुँच गया, जिसमें अनुसूचित जातियों (SC) के लिए 15% और अनुसूचित जनजातियों (ST) के लिए 10% आरक्षण शामिल है। यह वृद्धि सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1992 में ‘इंद्रा साहनी बनाम राज्य बिहार’ मामले में निर्धारित 50% आरक्षण की सीमा को पार कर गई है, जिससे यह मामला संवैधानिक और कानूनी दृष्टि से विवादास्पद बन गया।
GO Ms No. 9 और सरकार का तर्क
तेलंगाना सरकार ने GO Ms No. 9 के माध्यम से पिछड़ा वर्ग के लिए 42% आरक्षण लागू किया। सरकार का तर्क है कि यह निर्णय एक व्यापक और वैज्ञानिक जाति सर्वेक्षण (SEEEPC) पर आधारित है, जिसमें 96.9% घरों का सर्वेक्षण किया गया। इस सर्वेक्षण के अनुसार, राज्य की कुल जनसंख्या में BC की हिस्सेदारी 56.33% है। इसके आधार पर सरकार ने कहा कि 42% आरक्षण इस समुदाय के सामाजिक और राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है।
सरकार ने इसे “साक्ष्य-आधारित” और “वैज्ञानिक” निर्णय बताया है। BC कल्याण मंत्री पोन्नम प्रभाकर ने कहा कि यह निर्णय पिछड़े वर्ग के सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिए महत्वपूर्ण कदम है। उपमुख्यमंत्री भट्टी विक्रमार्का ने इसे समाज में न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में एक ऐतिहासिक निर्णय बताया। TPCC अध्यक्ष बी महेश कुमार गौड़ ने भी इस निर्णय का स्वागत करते हुए कहा कि यह BC समुदाय के अधिकारों की रक्षा और उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने में सहायक होगा।
सुप्रीम कोर्ट में याचिका
GO Ms No. 9 के लागू होने के बाद, वंगा गोपाल रेड्डी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। याचिकाकर्ता ने इस आदेश को चुनौती दी और तर्क दिया कि यह 50% आरक्षण की सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित सीमा का उल्लंघन करता है। उन्होंने यह भी कहा कि सरकार ने BC के एकल सदस्यीय आयोग की रिपोर्ट का उपयोग किया है, जो न तो सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध है और न ही विधानमंडल में चर्चा की गई है, जिससे यह आदेश मनमाना और असंवैधानिक हो गया है।
सुप्रीम कोर्ट की पीठ, जिसमें जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता शामिल थे, ने याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया। कोर्ट ने याचिकाकर्ता से पूछा कि उन्होंने सीधे सुप्रीम कोर्ट में क्यों याचिका दायर की, जबकि मामला पहले ही तेलंगाना हाई कोर्ट में लंबित है। याचिकाकर्ता के वकील ने जवाब दिया कि हाई कोर्ट ने स्थगन आदेश देने से इनकार कर दिया था, जिसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। इस पर जस्टिस मेहता ने टिप्पणी की, “अगर हाई कोर्ट स्थगन नहीं देता, तो आप सीधे यहां क्यों आए?” अंततः याचिकाकर्ता ने याचिका वापस लेने की अनुमति मांगी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार कर लिया और हाई कोर्ट में उचित राहत के लिए जाने की स्वतंत्रता प्रदान की।
हाई कोर्ट में प्रक्रिया और चुनौती
तेलंगाना हाई कोर्ट में इस मामले की सुनवाई जारी है। सरकार ने अपने निर्णय को “वैज्ञानिक” और “साक्ष्य-आधारित” बताया है। हालांकि, हाई कोर्ट ने सरकार से यह पूछा कि क्या इस निर्णय में “पर्याप्त विचार-विमर्श” किया गया है, विशेषकर जब BC आयोग की रिपोर्ट सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध नहीं है। सरकार ने दावा किया कि BC आयोग ने राज्य के 97% घरों का सर्वेक्षण किया है, जिससे BC की हिस्सेदारी 56.36% पाई गई।
हाई कोर्ट में इस मामले की सुनवाई संवैधानिक प्रावधानों, आरक्षण की सीमा, न्यायसंगत प्रतिनिधित्व और सरकारी प्रक्रिया की पारदर्शिता के आधार पर की जा रही है। न्यायाधीशों ने यह भी ध्यान दिया कि GO Ms No. 9 के लागू होने से पहले विधायिका में पर्याप्त बहस हुई या नहीं और क्या समाज के विभिन्न वर्गों के हितों का संतुलन बनाए रखा गया है।
राजनीतिक प्रतिक्रियाएँ
सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई के बाद तेलंगाना कांग्रेस ने इसे सकारात्मक कदम बताया और 42% BC आरक्षण को लागू करने की प्रतिबद्धता दोहराई। कांग्रेस, CPI और विभिन्न BC संगठनों ने सरकार के निर्णय का समर्थन किया और इसे लागू करने की मांग की। उपमुख्यमंत्री भट्टी विक्रमार्का ने इसे सामाजिक न्याय की दिशा में महत्वपूर्ण कदम बताया और विपक्षी दलों, विशेषकर BRS और BJP से आग्रह किया कि वे इस मुद्दे पर BC समुदाय के हित में एकजुट हों।
वहीं, विपक्षी दलों ने इस निर्णय पर आपत्ति जताई है। उनका कहना है कि 50% से अधिक आरक्षण संविधान के मूलभूत सिद्धांतों का उल्लंघन करता है और इससे समाज में असमानता बढ़ सकती है। विपक्ष ने कहा कि सरकारी प्रक्रिया में पारदर्शिता और विधायिका में बहस के अभाव के कारण यह आदेश चुनौतीपूर्ण है।
सामाजिक और कानूनी महत्व
यह मामला केवल तेलंगाना तक सीमित नहीं है। पूरे देश में पिछड़ा वर्ग के आरक्षण और उसकी सीमा पर यह महत्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करता है। सुप्रीम कोर्ट ने 1992 में ‘इंद्रा साहनी बनाम राज्य बिहार’ में 50% आरक्षण की सीमा तय की थी। इस निर्णय ने यह स्पष्ट किया कि सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण आवश्यक है, लेकिन संविधान के समानता के सिद्धांत के अंतर्गत इसकी अधिकतम सीमा 50% से अधिक नहीं होनी चाहिए।
तेलंगाना सरकार ने इस सीमा को पार करने के लिए व्यापक जाति सर्वेक्षण का सहारा लिया। यह सर्वेक्षण राज्य की कुल जनसंख्या में BC समुदाय की वास्तविक हिस्सेदारी को प्रदर्शित करता है। सरकार का तर्क है कि राज्य में BC का वास्तविक प्रतिशत इतना अधिक है कि 42% आरक्षण उचित और न्यायसंगत है।
सामाजिक दृष्टि से, यह निर्णय BC समुदाय के राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों को सुदृढ़ कर सकता है। इससे स्थानीय निकायों में उनके प्रतिनिधित्व में वृद्धि होगी और उनके लिए विकास योजनाओं और सरकारी योजनाओं में अधिक अवसर उपलब्ध होंगे।
चुनौतियाँ और आगे की कानूनी प्रक्रिया
हालांकि, हाई कोर्ट में सुनवाई अभी जारी है और इसके परिणाम आने तक स्थिति अनिश्चित बनी रहेगी। यदि हाई कोर्ट GO Ms No. 9 को असंवैधानिक घोषित करती है, तो यह राज्य सरकार के आरक्षण नीति पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है। दूसरी ओर, यदि हाई कोर्ट सरकार के निर्णय को मान्यता देती है, तो यह निर्णय पूरे देश के लिए पिछड़ा वर्ग आरक्षण के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण उदाहरण बनेगा।
कानूनी दृष्टि से, यह मामला कई संवैधानिक प्रावधानों और न्यायिक सिद्धांतों से जुड़ा है। इसमें शामिल हैं:
- संविधान का अनुच्छेद 15 और 16 – जो सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की अनुमति देता है।
- समानता का सिद्धांत – जिसमें किसी भी वर्ग के लिए अत्यधिक आरक्षण लागू करने पर विवाद उत्पन्न हो सकता है।
- न्यायिक समीक्षा का सिद्धांत – जहां उच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट सरकारी निर्णयों की पारदर्शिता और वैधानिकता की समीक्षा कर सकते हैं।
इसके अलावा, यह मामला सामाजिक न्याय बनाम समानता के संतुलन की बहस को भी जन्म देता है। BC समुदाय के लिए उच्च आरक्षण उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति सुधारने में सहायक हो सकता है, लेकिन अन्य समुदायों में असंतोष और प्रतिकूल राजनीतिक प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
चुनाव प्रक्रिया और भविष्य
राज्य चुनाव आयोग ने ग्रामीण स्थानीय निकाय चुनावों के लिए अधिसूचना जारी कर दी है। नामांकन प्रक्रिया 9 अक्टूबर से शुरू हुई। चुनाव प्रक्रिया के दौरान 42% BC आरक्षण का प्रभाव देखने को मिलेगा। यह भी स्पष्ट है कि राजनीतिक दल इस मामले को अपने चुनावी रणनीति में शामिल करेंगे।
यदि हाई कोर्ट सरकार के पक्ष में निर्णय देती है, तो यह निर्णय केवल तेलंगाना तक सीमित नहीं रहेगा। अन्य राज्यों में भी BC समुदाय के आरक्षण के मामले में इसका व्यापक प्रभाव पड़ सकता है। यह विशेष रूप से उन राज्यों के लिए महत्वपूर्ण है, जहां पिछड़ा वर्ग बड़ी संख्या में हैं और उनके लिए उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना आवश्यक है।
निष्कर्ष
तेलंगाना सरकार द्वारा स्थानीय निकायों में BC आरक्षण 42% बढ़ाने का निर्णय सामाजिक न्याय के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। सुप्रीम कोर्ट ने याचिका पर विचार करने से इनकार किया और याचिकाकर्ता को हाई कोर्ट जाने की अनुमति दी। हाई कोर्ट में सुनवाई अभी जारी है, और इसका परिणाम राज्य की सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी स्थिति पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है।
यह मामला देश में पिछड़ा वर्ग के आरक्षण की सीमा, न्यायिक समीक्षा, सरकारी प्रक्रिया की पारदर्शिता और समाज में समानता के सिद्धांत को लेकर महत्वपूर्ण बहस को जन्म दे रहा है। इस मामले की कानूनी और राजनीतिक प्रक्रिया राज्य की सामाजिक धारा और भविष्य में आरक्षण नीति पर स्थायी प्रभाव डाल सकती है।
अंततः, यह निर्णय केवल कानूनी दृष्टि से नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। यह दर्शाता है कि भारत में आरक्षण केवल एक प्रशासनिक उपाय नहीं है, बल्कि यह सामाजिक न्याय, समानता और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए संवैधानिक उपकरण भी है।