सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को नोटिस जारी किया : सोनम वांगचुक की हिरासत के खिलाफ पत्नी की याचिका पर जवाब मांगा
भूमिका
भारत का संविधान नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है। जब इन अधिकारों पर कोई प्रतिबंध लगाया जाता है, तो न्यायपालिका को यह परखने का अधिकार होता है कि वह प्रतिबंध उचित है या नहीं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण कार्यकर्ता और शिक्षा सुधारक सोनम वांगचुक की पत्नी गीतांजलि एंगमो द्वारा दायर याचिका पर केंद्र सरकार और लद्दाख प्रशासन से जवाब मांगा है।
यह याचिका राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA), 1980 के तहत की गई हिरासत को चुनौती देती है। अदालत ने यह जानना चाहा है कि हिरासत के कारण (grounds of detention) वांगचुक की पत्नी को क्यों नहीं दिए गए। यह मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, नागरिक अधिकारों और सरकारी शक्ति की सीमाओं के बीच संतुलन पर गंभीर सवाल उठाता है।
मामले की पृष्ठभूमि
लद्दाख में आंदोलन और विरोध प्रदर्शन
लद्दाख के सामाजिक कार्यकर्ता और शिक्षाविद सोनम वांगचुक पिछले कई महीनों से क्षेत्र को राज्य का दर्जा (Statehood) देने और छठी अनुसूची (Sixth Schedule) के अंतर्गत संवैधानिक सुरक्षा प्रदान करने की मांग कर रहे थे।
सितंबर 2025 में लद्दाख में शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन आयोजित किए गए, जिनका उद्देश्य स्थानीय लोगों के अधिकारों की रक्षा करना था। लेकिन 24 सितंबर को एक विरोध प्रदर्शन के दौरान तनाव बढ़ गया और स्थिति हिंसक हो गई, जिसमें चार लोगों की मृत्यु हुई।
वांगचुक पर आरोप लगाया गया कि वे इन विरोध प्रदर्शनों में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे और उनके भाषणों ने लोगों को उकसाया। इसके बाद 26 सितंबर 2025 को उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA) के तहत हिरासत में ले लिया गया।
राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA) क्या है
राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम सरकार को यह अधिकार देता है कि वह किसी व्यक्ति को अधिकतम 12 महीने तक बिना मुकदमे के हिरासत में रख सकती है, यदि यह माना जाए कि उसकी गतिविधियाँ देश की सुरक्षा या जन-शांति के लिए खतरा हैं।
हालाँकि, कानून यह भी कहता है कि हिरासत का आदेश ठोस कारणों (grounds) पर आधारित होना चाहिए और हिरासत में लिए गए व्यक्ति को इन कारणों की जानकारी दी जानी चाहिए ताकि वह अपनी रक्षा कर सके।
पत्नी की याचिका — प्रमुख तर्क
सोनम वांगचुक की पत्नी गीतांजलि एंगमो ने सुप्रीम कोर्ट में एक हैबियस कॉर्पस याचिका (Habeas Corpus Petition) दायर की, जिसमें उन्होंने कहा कि:
- हिरासत अवैध है, क्योंकि इसे बिना ठोस कारण बताए लागू किया गया।
- grounds of detention वांगचुक को भले दिए गए हों, लेकिन पत्नी को नहीं दिए गए, जिससे कानूनी कार्रवाई कठिन हो गई।
- वांगचुक से मुलाकात की अनुमति नहीं दी गई और परिवार को उनके स्वास्थ्य की जानकारी नहीं है।
- यह हिरासत राजनीतिक प्रतिशोध का परिणाम है, क्योंकि वांगचुक शांतिपूर्ण आंदोलन चला रहे थे।
- संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) और अनुच्छेद 22 (गिरफ्तारी की प्रक्रिया) का उल्लंघन हुआ है।
गीतांजलि ने सुप्रीम कोर्ट से अपील की कि:
- वांगचुक को तुरंत रिहा किया जाए, या
- कम से कम हिरासत के कारण उन्हें और उनके वकील को उपलब्ध कराए जाएँ।
सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही
6 अक्टूबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की पीठ — न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और न्यायमूर्ति एन.वी. अन्जारिया — ने याचिका पर सुनवाई की।
नोटिस जारी हुआ
अदालत ने केंद्र सरकार, लद्दाख प्रशासन और संबंधित एजेंसियों को नोटिस जारी किया और कहा कि वे यह स्पष्ट करें कि हिरासत के कारण (grounds) पत्नी को क्यों नहीं बताए गए।
अंतरिम राहत से इनकार
कोर्ट ने फिलहाल कोई अंतरिम राहत नहीं दी, अर्थात अभी वांगचुक की रिहाई या grounds साझा करने का आदेश नहीं दिया गया। अदालत ने कहा कि पहले केंद्र और लद्दाख प्रशासन से जवाब प्राप्त होगा, उसके बाद आगे का आदेश दिया जाएगा।
सॉलिसिटर जनरल का पक्ष
सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि कानून केवल “हिरासत में लिए गए व्यक्ति” को grounds देने की आवश्यकता बताता है, न कि उसके परिवार को।
हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने यह प्रश्न उठाया कि जब व्यक्ति हिरासत में है और वकील या पत्नी को grounds नहीं दिए जाते, तो क्या यह न्याय की पारदर्शिता का उल्लंघन नहीं है?
अगली सुनवाई
कोर्ट ने इस मामले की अगली सुनवाई 14 अक्टूबर 2025 के लिए निर्धारित की है और तब तक केंद्र सरकार को विस्तृत जवाब देने का निर्देश दिया है।
कानूनी और संवैधानिक पहलू
अनुच्छेद 21 — जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार
अनुच्छेद 21 कहता है कि किसी व्यक्ति को उसकी स्वतंत्रता से तभी वंचित किया जा सकता है जब यह विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार हो।
यदि किसी व्यक्ति को बिना स्पष्ट कारण बताए हिरासत में रखा जाता है, तो यह अनुच्छेद 21 का उल्लंघन माना जाएगा।
अनुच्छेद 22 — गिरफ्तारी और निरुद्धि के अधिकार
अनुच्छेद 22 के अनुसार, किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करते समय उसे कारण बताना और वकील से संपर्क की अनुमति देना आवश्यक है।
वांगचुक की पत्नी का तर्क है कि न तो उचित कारण बताए गए, न ही उनसे संपर्क की अनुमति दी गई।
हैबियस कॉर्पस का अधिकार
“हैबियस कॉर्पस” का अर्थ है — “व्यक्ति को प्रस्तुत करो”।
यह न्यायालय को यह अधिकार देता है कि यदि किसी व्यक्ति को अवैध रूप से हिरासत में रखा गया हो, तो उसे तुरंत अदालत के सामने लाया जाए।
गीतांजलि एंगमो की याचिका इसी सिद्धांत पर आधारित है।
NSA के तहत पारदर्शिता का अभाव
NSA जैसे कानूनों की सबसे बड़ी आलोचना यह है कि इसमें सरकार को व्यापक शक्ति मिल जाती है। व्यक्ति को बिना मुकदमे के महीनों तक कैद में रखा जा सकता है।
इसलिए सुप्रीम कोर्ट बार-बार कह चुका है कि ऐसे कानूनों का सख्ती से पालन और न्यायिक समीक्षा आवश्यक है।
राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव
सोनम वांगचुक केवल एक कार्यकर्ता नहीं, बल्कि लद्दाख के लोगों के अधिकारों की आवाज़ माने जाते हैं। वे शिक्षा, पर्यावरण संरक्षण और स्थानीय स्वशासन के लिए लगातार काम करते रहे हैं।
उनकी गिरफ्तारी ने पूरे देश में सवाल उठाए हैं —
क्या एक शांतिपूर्ण आंदोलनकारी को “राष्ट्रीय सुरक्षा” के नाम पर हिरासत में लेना लोकतंत्र के अनुरूप है?
कई नागरिक संगठनों, शिक्षाविदों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने वांगचुक की रिहाई की मांग की है। सोशल मीडिया पर #FreeSonamWangchuk ट्रेंड कर रहा है।
लोगों का कहना है कि अगर कोई व्यक्ति संविधान के भीतर रहकर अपनी बात रखता है, तो उसे अपराधी की तरह ट्रीट करना लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है।
सुप्रीम कोर्ट की भूमिका
भारत का सर्वोच्च न्यायालय न केवल कानून की व्याख्या करता है, बल्कि नागरिक अधिकारों की अंतिम रक्षा भी करता है।
इस मामले में अदालत का रुख बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि:
- यह तय करेगा कि NSA जैसे कानूनों के दुरुपयोग को कैसे रोका जाए।
- यह स्पष्ट करेगा कि क्या हिरासत के कारण केवल आरोपी को बताना पर्याप्त है, या परिवार और वकील को भी जानकारी मिलनी चाहिए।
- यह मामला भविष्य में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की सुरक्षा का मानक तय कर सकता है।
संभावित कानूनी प्रभाव
यदि सुप्रीम कोर्ट यह मानता है कि वांगचुक की हिरासत अवैध है, तो:
- NSA के अंतर्गत गिरफ्तारी की प्रक्रिया पर नए दिशा-निर्देश जारी हो सकते हैं।
- सरकारों को भविष्य में grounds साझा करने के नियमों को पारदर्शी बनाना पड़ सकता है।
- राजनीतिक या सामाजिक आंदोलनों में शामिल कार्यकर्ताओं को अधिक सुरक्षा मिलेगी।
वहीं यदि अदालत यह मान लेती है कि हिरासत उचित है, तो यह निर्णय सरकारों के लिए NSA के प्रयोग की वैधता को मजबूत करेगा।
लोकतंत्र में असहमति की भूमिका
भारत में असहमति (Dissent) लोकतंत्र की आत्मा है।
कोई भी समाज तब तक परिपक्व नहीं हो सकता जब तक उसमें मतभेद व्यक्त करने की स्वतंत्रता न हो।
सोनम वांगचुक जैसे कार्यकर्ता जब जनहित के मुद्दे उठाते हैं, तो वे शासन के लिए “चेतावनी की घंटी” होते हैं — न कि दुश्मन।
सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि “राजनीतिक लड़ाइयाँ जनता के बीच लड़ी जानी चाहिए, अदालतों में नहीं” यह संकेत देता है कि न्यायपालिका चाहती है कि लोकतंत्र की असली शक्ति जनता के निर्णय में निहित रहे।
निष्कर्ष
सोनम वांगचुक की गिरफ्तारी और उनकी पत्नी की याचिका केवल एक व्यक्ति का मामला नहीं है, बल्कि यह संवैधानिक अधिकारों, सरकारी जवाबदेही और लोकतांत्रिक मूल्यों का प्रश्न है।
सुप्रीम कोर्ट ने यह कहकर कि “हिरासत के कारण बताना अनिवार्य है”, यह दिखा दिया कि अदालत नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा के प्रति सजग है।
अब देखना यह होगा कि आने वाली सुनवाई में केंद्र सरकार क्या जवाब देती है और क्या अदालत इस हिरासत को कानूनी या अवैध घोषित करती है।
यदि अदालत पारदर्शिता और अधिकारों की दिशा में कठोर रुख अपनाती है, तो यह निर्णय आने वाले वर्षों तक नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए एक मिसाल बन जाएगा।
निष्कर्षतः, यह मामला केवल एक व्यक्ति की रिहाई का प्रश्न नहीं, बल्कि यह तय करेगा कि भारत में “राष्ट्रीय सुरक्षा” और “नागरिक स्वतंत्रता” के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए।
लोकतंत्र की असली पहचान यही है कि सत्ता भी संविधान के अधीन रहती है, और नागरिक की आवाज़ हमेशा सम्मानित होती है।