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“सुप्रीम कोर्ट ने कहा — अपराध गुस्से का नहीं, सोची-समझी हिंसा का परिणाम था”

“सुप्रीम कोर्ट ने कहा — अपराध गुस्से का नहीं, सोची-समझी हिंसा का परिणाम था”

— न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ का सख्त संदेश: सजा में नरमी समाज के विश्वास को कमजोर करती है

भारत का सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court of India) न केवल देश का सर्वोच्च न्यायिक मंच है बल्कि न्याय के सिद्धांतों और सामाजिक मूल्यों का रक्षक भी है। जब अपराध के मामलों में दोषसिद्ध व्यक्ति न्यायालय से दया या सजा में कमी की मांग करता है, तब न्यायालय का दायित्व केवल आरोपी के प्रति सहानुभूति दिखाना नहीं होता, बल्कि पूरे समाज की न्याय अपेक्षा का उत्तर देना होता है।
इसी संदर्भ में, हाल ही में न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की दो सदस्यीय पीठ ने एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया, जिसमें अदालत ने स्पष्ट कहा कि —

“न्यायालय को सजा देते समय समाज की सामूहिक आवाज़ का उत्तर देना होता है। अत्यधिक नरमी न्याय व्यवस्था में जनता के विश्वास को कमजोर कर सकती है।”


मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला एक हत्या (Murder) से संबंधित था, जिसमें अभियुक्त (Appellant) ने यह तर्क दिया कि उसने अपराध बिना पूर्व-योजना के, अचानक हुए झगड़े में गुस्से में आकर किया।
उसने अपनी अपील में कहा कि —

  • वह उस समय केवल 20 वर्ष का युवक था,
  • उसका इरादा किसी की जान लेने का नहीं था,
  • घटना एक अचानक हुई झड़प (Sudden Fight) का परिणाम थी,
  • और उसने क्षणिक आवेश (Momentary Anger) में आकर हथियार का उपयोग किया।

इसलिए, उसने सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया कि उसे दी गई कठोर सजा (Severe Punishment) को घटाया जाए।


मामले के तथ्य (Facts of the Case)

घटना उस समय की है जब अभियुक्त का किसी व्यक्ति R के साथ झगड़ा हुआ था। झगड़ा बढ़ने पर मृतक S (जो एक निर्दोष व्यक्ति था) बीच-बचाव करने पहुंचा।
लेकिन स्थिति को शांत करने के बजाय, अभियुक्त ने उल्टा S पर ही हमला कर दिया। उसने पास रखे एक तेजधार हथियार से वार किया, जिससे S की मौके पर ही मृत्यु हो गई

इस मामले में अभियोजन (Prosecution) ने यह साबित किया कि—

  • अभियुक्त को हथियार के स्थान का पहले से पता था।
  • उसने जानबूझकर हथियार निकाला और वार किया
  • यह पूरी तरह से सोची-समझी हिंसा थी, न कि अचानक गुस्से का परिणाम।

ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट का निर्णय

मामले की सुनवाई के बाद ट्रायल कोर्ट ने अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 302 (अब Bharatiya Nyaya Sanhita, 2023 की धारा 101) के तहत हत्या का दोषी पाया और आजीवन कारावास (Life Imprisonment) की सजा सुनाई।

इसके खिलाफ अभियुक्त ने हाईकोर्ट में अपील की।
लेकिन हाईकोर्ट ने भी ट्रायल कोर्ट के निष्कर्षों को सही ठहराया और कहा कि यह मामला किसी भी तरह से “Sudden Provocation” या “Culpable Homicide not amounting to Murder” की श्रेणी में नहीं आता।
इसलिए, अभियुक्त की सजा को बरकरार रखा गया।


सुप्रीम कोर्ट में अपील

हाईकोर्ट से निराश होकर अभियुक्त ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
उसने फिर वही तर्क दोहराया कि—

  • वह युवा था,
  • घटना आकस्मिक थी,
  • और उसने कोई पूर्व-योजना नहीं बनाई थी।

उसने न्यायालय से सजा में राहत (Reduction in Sentence) देने की प्रार्थना की।


सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई और निष्कर्ष

न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने पूरे मामले की गहराई से समीक्षा की।
पीठ ने कहा कि अभियुक्त के कथन और आचरण से स्पष्ट है कि—

  1. वह हथियार के स्थान से परिचित था,
  2. उसने झगड़े के दौरान जानबूझकर हथियार निकाला,
  3. और एक निर्दोष व्यक्ति पर घातक वार किया जो केवल झगड़ा रोकने आया था।

इससे यह निष्कर्ष निकला कि यह आकस्मिक या आवेशपूर्ण कार्य नहीं, बल्कि जानबूझकर किया गया अपराध था।


अदालत का अवलोकन (Court’s Observation)

पीठ ने कहा कि—

“अपराधी की उम्र या भावनात्मक स्थिति को ध्यान में रखते हुए दया दिखाना न्याय का एक पहलू हो सकता है, परंतु जब अपराध की प्रकृति क्रूर और समाजविरोधी हो, तब न्यायालय को समाज की अपेक्षाओं को भी ध्यान में रखना चाहिए।”

“कोई भी अदालत यह नहीं भूल सकती कि हर अपराध केवल एक व्यक्ति के विरुद्ध नहीं, बल्कि पूरे समाज के विरुद्ध होता है।”

सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा कि अत्यधिक सहानुभूति या नरमी (Excessive Leniency) दिखाने से समाज का न्याय व्यवस्था पर से विश्वास डगमगा सकता है।
न्यायालयों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सजा अपराध के अनुरूप (Proportionate to the Crime) हो।


सुप्रीम कोर्ट का अंतिम निर्णय

पीठ ने पाया कि—

  • अभियुक्त के पास हथियार पहले से था या उसे उसकी उपलब्धता का पता था,
  • उसने जानबूझकर उसका उपयोग किया,
  • और पीड़ित निर्दोष था जो झगड़ा रोकने आया था।

इन परिस्थितियों को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह “Sudden Provocation” का मामला नहीं है।

अतः,

  • हाईकोर्ट का निर्णय सही ठहराया गया,
  • अपील खारिज (Dismissed) कर दी गई,
  • और सजा में कोई कमी नहीं की गई।

हालांकि, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि—

“यदि राज्य की Remission Policy (क्षमा नीति) के तहत अभियुक्त पात्र है, तो वह समय से पहले रिहाई के लिए आवेदन कर सकता है।”


न्यायिक संदेश (Judicial Message to Society)

यह निर्णय केवल एक अपराधी की सजा की पुष्टि नहीं है, बल्कि यह एक गंभीर सामाजिक संदेश भी देता है।
अदालत ने कहा कि—

  • न्यायालयों को सजा देते समय केवल आरोपी की परिस्थितियों को नहीं देखना चाहिए,
  • बल्कि यह भी देखना चाहिए कि समाज उस अपराध को कैसे देखता है,
  • और यदि न्यायालय बिना कारण नरमी दिखाता है, तो यह न्याय प्रणाली के प्रति जनता का विश्वास (Public Faith in Justice System) कमजोर करता है।

कानूनी विश्लेषण (Legal Analysis)

यह निर्णय भारतीय आपराधिक न्यायशास्त्र (Criminal Jurisprudence) के उस सिद्धांत को पुनः पुष्ट करता है जिसे “Proportionality in Punishment” कहा जाता है।
यानी कि अपराध की गंभीरता के अनुरूप ही सजा होनी चाहिए।
यह सिद्धांत इस विचार पर आधारित है कि—

“न्याय तभी पूर्ण है जब सजा अपराध के बराबर हो।”

इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी रेखांकित किया कि—

  • Youthfulness या गुस्से का क्षणिक भाव किसी गंभीर अपराध के लिए ढाल नहीं बन सकता।
  • अगर कोई व्यक्ति हथियार लेकर हमला करता है, तो यह अपने आप में यह दिखाता है कि उसमें पूर्वनियोजन (Premeditation) था।

मानवता और न्याय के बीच संतुलन

भारतीय न्यायपालिका हमेशा इस बात पर जोर देती रही है कि न्याय केवल बदले की भावना नहीं है, बल्कि समाज के नैतिक ताने-बाने को सुरक्षित रखने का माध्यम है।
परंतु जब कोई अपराध इस स्तर पर किया जाता है कि वह समाज की शांति और विश्वास को हिला दे, तब न्यायालय की प्राथमिकता सख्त दंड (Deterrent Punishment) बन जाती है।

इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने यही संतुलन दिखाया —
जहाँ उसने न तो अभियुक्त के प्रति अमानवीय दृष्टिकोण अपनाया,
और न ही समाज की आवाज़ को अनसुना किया।


समाज और न्याय के लिए संदेश

यह निर्णय उन सभी के लिए एक चेतावनी है जो अचानक गुस्से या झगड़े में हिंसा का सहारा लेते हैं।
कानून ऐसे तर्कों को “मानवीय कमजोरी” नहीं, बल्कि “सामाजिक अपराध” मानता है।
और न्यायालय का यह स्पष्ट संदेश है कि —

“भावनाओं में बहकर किया गया अपराध भी अपराध ही होता है।”


निष्कर्ष (Conclusion)

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय न्यायव्यवस्था के उस मूलभूत सिद्धांत को पुनः रेखांकित करता है कि —

“दया न्याय का विकल्प नहीं हो सकती।”

न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की यह टिप्पणी आने वाले वर्षों तक न्यायिक दृष्टिकोण को प्रभावित करेगी —
कि जब अदालतें सजा सुनाती हैं, तो वे केवल आरोपी और पीड़ित के बीच के विवाद को नहीं सुलझातीं,
बल्कि वे समाज के नैतिक विवेक का भी प्रतिनिधित्व करती हैं।

अंततः, अदालत ने कहा कि आरोपी राज्य की रिमिशन पॉलिसी (Remission Policy) के तहत समय से पहले रिहाई के लिए आवेदन कर सकता है, परंतु यह न्याय का नहीं, केवल प्रशासनिक विवेक का विषय होगा।


“सजा का उद्देश्य प्रतिशोध नहीं, परंतु यह सुनिश्चित करना है कि अपराध करने वाला और समाज — दोनों न्याय से भयभीत रहें।”