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“सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार को तलब किया: आपराधिक अपीलों की सूची में देरी पर जवाब मांगा”

 “Supreme Court Summons Allahabad High Court Registrar To Explain Delay In Listing Of Criminal Appeals” 

“सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार को तलब किया: आपराधिक अपीलों की सूची में देरी पर जवाब मांगा”


प्रस्तावना

न्यायपालिका का मूल दायित्व है समय रहते न्याय प्रदान करना। लेकिन यदि याचिकाएँ वर्षों तक लंबित रहें और प्रभावित पक्षों को न्याय नहीं मिले, तो न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है। इसी संदर्भ में, हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने आलिसाबाद (Allahabad) हाई कोर्ट के Registrar Judicial (Listing) को कारण बताओ नोटिस जारी किया है कि वह यह बताए कि लंबित क्रिमिनल अपीलों (Criminal Appeals) की “लिस्टिंग” (yani उन्हें सुनवाई सूची में डालने की प्रक्रिया) में विलंब क्यों हुआ।

यह मामला न सिर्फ एक प्रशासनिक प्रश्न है, बल्कि संवैधानिक मूल्यों, प्रक्रियात्मक न्याय (procedural justice) एवं क़ानून की आत्मा की रक्षा से जुड़ा है।本文 में, मैं इस घटना की पृष्ठभूमि बताूँगा, सुप्रीम कोर्ट के तर्कों का विश्लेषण करूँगा, हाई कोर्ट की चुनौतियों को उजागर करूँगा और सुझाव प्रस्तुत करूँगा कि कैसे इस तरह की समस्या की पुनरावृत्ति रोकी जा सकती है।


घटना की पृष्ठभूमि

1. मामला और प्रेरणा

यह विवाद Chatra Pal vs State of U.P. & Anr. नामक Special Leave Petition (Criminal) में सामने आया। यह मामला इस आधार पर है कि एक अभियुक्त की अपील 2010 से सुनवाई सूची में नहीं डाली गई। उस अभियुक्त पर मुकदमा चला और ही अपील दायर हुई थी, लेकिन वर्षों तक वह सुनवाई सूची में नहीं आई। वह अभियुक्त अब 21 वर्ष से अधिक अवधि से कारावास में है।

सुप्रीम कोर्ट ने 8 सितंबर 2025 को आलिसाबाद हाई कोर्ट के Registrar General को आदेश दिया कि वह रिपोर्ट प्रस्तुत करे:

  1. यह बताया जाए कि वह अपील 2010 की सुनवाई सूची में क्यों नहीं आई।
  2. उन अन्य लंबित क्रिमिनल अपीलों का विवरण पेश किया जाए जिनमें अभियुक्त बहुत वर्षो से कारावास में है।

इस पर, 27 सितंबर 2025 को हाई कोर्ट की ओर से एक रिपोर्ट प्रस्तुत की गई, जिसमें यह कहा गया कि कुल 2,297 अपीलें लंबित हैं, जिनमें अभियुक्त दस वर्ष से अधिक समय से कारावास में हैं, और 52 मामलों में अभियुक्त 15 वर्ष से अधिक समय से कारावास में हैं।

लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने इस रिपोर्ट में एक कार्यात्मक योजना (working plan) नहीं पाई — यानी यह स्पष्ट नहीं था कि वे किस प्रकार इन मामलों की लिस्टिंग और सुनवाई को प्राथमिकता देंगे, कितनी बेंच गठन की जाएगी, किन व्यवस्थाओं को ठीक करना है, आदि।

इसलिए, सुप्रीम कोर्ट ने 13 या 14 अक्टूबर 2025 को आदेश दिया कि Registrar Judicial (Listing) या वर्तमान पदस्थ अधिकारी कोर्ट में उपस्थित हो और एक पूर्ण कार्ययोजना (complete working plan) प्रस्तुत करे, जिसमें बताया जाए कि ये लंबित अपीलें कैसे सूचीबद्ध की जाएँगी और सुनवाई कैसे होगी। साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश दिया कि हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधिपति (Chief Justice) को इस आदेश से अवगत कराया जाए।

तदनुसार, अगली सुनवाई 16 अक्टूबर 2025 को सूचीबद्ध की गई है, जिसमें यह मामला फिर विचाराधीन होगा।


सुप्रीम कोर्ट की दृष्टि एवं चिंता

सुप्रीम कोर्ट ने निम्नलिखित बिंदुओं पर विशेष चिंता व्यक्त की है:

  1. अधूरी, अधूरापन और चुप्पी
    रिपोर्ट में यह सुविधा ही नहीं दी गई कि किस प्रकार इन अपीलों को सूचीबद्ध किया जाएगा। यह रिपोर्ट “conspicuously silent” — यानी जानबूझ कर चुप — मानी गई।
  2. गणनात्मक विवरणों की कमी
    सुप्रीम कोर्ट यह अपेक्षा करती थी कि रिपोर्ट निम्नलिखित विवरण स्पष्ट करेगी:

    • कितनी बेंचें बनायी गई या बनायी जाएंगी सुनवाई हेतु
    • पक्षों को सेवा (service) हो चुकी है या नहीं
    • पेपर बुक्स (case records) तैयार हैं या नहीं
    • सूचीबद्ध (listing) में बाधाएं एवं विशिष्ट कारण (difficulties with reasons)
  3. न्याय का विलम्ब
    2,297 ऐसे अपीलें हैं जिनमें अभियुक्त दस वर्ष से अधिक समय से कारावास में हैं; और उनमें से 52 मामलों में अभियुक्त 15 वर्ष से अधिक समय से कारावास में हैं। इस तरह की लंबित स्थिति न्यायिक तंत्र की अक्षमता प्रदर्शित करती है।
  4. जवाबदारी एवं नियंत्रण
    सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि केवल रिपोर्ट देना पर्याप्त नहीं है — वह एक कार्ययोजना चाहती है जिसमें चरणबद्ध तौर पर यह बताया जाए कि कैसे इस समस्या से निपटा जाएगा। साथ ही, मुख्य न्यायाधिपति को इस आदेश की जानकारी देना यह संकेत है कि यह सिर्फ एक तकनीकी समस्या नहीं, बल्कि न्यायालयीय प्रशासन की जवाबदेही से जुड़ी समस्या है।
  5. संवैधानिक प्रभाव
    सुप्रीम कोर्ट की यह कार्रवाई यह बताती है कि यदि उच्च न्यायालय प्रशासनिक दृष्टि से निष्क्रिय हो जाए, तो अदालतों के दायरे में आना आवश्यक हो जाता है। लंबित सुनवाई और अनदेखी अभियुक्तों के मौलिक अधिकार (विशेषकर Article 21 — जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) का उल्लंघन कर सकती है।

इस तरह, सुप्रीम कोर्ट ने यह संदेश दिया कि न्यायालय केवल विवादों को हल करने की जगह नहीं है, बल्कि न्याय देने की प्रक्रिया की संरचनात्मक जिम्मेदारियों का भी निर्वाह करती है।


कानूनी एवं संवैधानिक विश्लेषण

इस पूरे घटनाक्रम के पीछे कई महत्वपूर्ण कानूनी और संवैधानिक सिद्धांत काम करते हैं। मैं यहाँ उनमें से कुछ प्रमुखों को स्पष्ट करना चाहूँगा:

1. समुचित कारण बताओ एवं निष्पक्ष सुनवाई (audi alteram partem)

विचारण प्रक्रिया का एक अपरिहार्य अंग है कि यदि किसी प्रक्रिया में विलंब हो रहा हो, तो प्रभावित पक्ष को यह सुनने का अवसर मिले कि विलंब क्यों हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने कोर्ट-प्रशासन (किसी भी रजिस्ट्रार आदि) को ग्राहक (affected party) जैसी स्थिति दी है और कहा कि वे अपनी ओर से स्पष्टीकरण प्रस्तुत करें।

2. संविधान का Article 21 – जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता

व्यक्ति को केवल दोष सिद्धि पर ही सजाति (punishment) दी जानी चाहिए, और यदि वह दंड भुगत रहा है, तो उसे अपील सुनवाई का अवसर समय पर मिलना चाहिए। यदि वह वर्षों तक अपील की सुनवाई नहीं हो सके, तो यह व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का हनन हो सकता है।

3. न्याय की समयबद्धता (Right to speedy trial / appeal)

न्यायपालिका की अधीनस्थता को देखते हुए, यह पुरानी मान्यता है कि न्याय को विलंब नहीं होना चाहिए। यदि अपीलें वर्षों तक लंबित रह जाएँ, तो “न्याय का विलम्ब” न्याय का अन्य रूप बन जाता है। इस सिद्धांत को न्यायालयों ने समय-समय पर कई मामलों में स्वीकार किया है।

4. उच्च न्यायालयों का पर्यवेक्षण एवं उत्तरदायित्व

हाई कोर्टों को अपने अधीनस्थ न्यायालयों पर नज़र रखने का अधिकार (superintendence) है (संविधान, Article 227)। इसी तरह, उच्च न्यायालयों के प्रशासनिक अंग (Registrar, Listing) पर यह अपेक्षा है कि वे सुचारु रूप से सुनवाई प्रक्रिया सुनिश्चित करें। यदि एक उच्च न्यायालय स्वयं प्रक्रिया में लापरवाही करता है, तो वह सुप्रीम कोर्ट की अभिरक्षा में आ जाता है।

5. न्यायपालिका का स्वशासन और न्याय व्यवस्था की जवाबदेही

न्यायपालिका एक स्वायत्त अंग है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वह प्रशासनिक जवाबदेही से ऊपर हो। यदि न्यायालय के कार्यालयों द्वारा प्रक्रियात्मक लापरवाही होती है, तो सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) हस्तक्षेप कर सकती है, न केवल न्यायलयीय समीक्षा (judicial review) के दायरे में, बल्कि प्रशासनिक सुधार की दिशा में।

इन सिद्धांतों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई विधिसम्मत और संवैधानिक रूप से समर्थनीय है, विशेषतः जब यह न्याय अमल की प्रक्रिया की गिरावट को संबोधित करती है।


चुनौतियाँ और कारकों का विवेचन

हालाँकि सुप्रीम कोर्ट की मंशा स्पष्ट है, लेकिन उच्च न्यायालयों, विशेषतः आलिसाबाद हाई कोर्ट, को इस विषय में दस्तूरों, संसाधनों और प्रक्रियात्मक बाधाओं का सामना करना पड़ता है। मैं निम्नलिखित चुनौतियों और कारकों पर प्रकाश डालता हूँ:

  1. प्रशासनिक अव्यवस्था एवं संसाधन कमी
    उच्च न्यायालयों में अक्सर पर्सनल (judges), प्रशासनिक स्टाफ एवं वित्तीय संसाधनों की कमी होती है। यदि सुनवाई (hearing) की बेंचें पर्याप्त संख्या में न हों, या न्यायाधीशों की उपलब्धता कम हो, तो सूचीबद्ध करना कठिन हो जाता है।
  2. मुकदमे की सामग्री (case records) तैयारी
    बहुत सी अपीलें सिर्फ इसलिए सूचीबद्ध नहीं हो पातीं क्योंकि पेपर बुक्स और अन्य आवश्यक दस्तावेज पूरी तरह तैयार नहीं होते। यदि रिकॉर्ड गायब हों या अधूरा हों, सुनवाई नहीं हो सकती।
  3. न्यायालयीय स्टाफ ओर सूचीबद्ध करने वाली इकाई की अक्षमता
    हाई कोर्ट के Registrar (Listing) कार्यालयों में प्रबंधन, श्रेणीकरण, समयबद्धता आदि के लिए एक सक्षम और पारदर्शी प्रक्रिया होनी चाहिए। यदि वहाँ पारदर्शिता, जवाबदेही एवं कार्यप्रणाली का अभाव हो, विलंब अनिवार्य हो जाता है।
  4. पक्षों की सेवा (service) या नोटिस की समस्या
    यदि कोई पार्टी सेवा नहीं ले रही हो या सही पते का अभाव हो, तो सूचीबद्ध करना संभव नहीं। न्यायालय को यह सुनिश्चित करना होगा कि सभी पक्षों को समय रहते नोटिस दिया जाए।
  5. न्यायालयीन लिपि (case load) एवं पार्श्व भार
    हाई कोर्ट के न्यायाधीशों एवं सूचीबद्ध अधिकारीयों पर पहले से भारी लोड हो सकता है। नए मामले, विधि सुधार, संविधान संबंधी मामलों, सार्वजनिक महत्व के मामलों आदि की भी भरमार हो सकती है।
  6. नियम एवं दिशा-निर्देशों की अस्पष्टता
    यदि सूचीबद्ध प्रक्रिया (listing rules) स्पष्ट नहीं हों या उसमें प्रशासनिक छूट अधिक हो, तो विवेकानुसार कार्रवाई में विलंब हो सकता है।
  7. प्राथमिकता निर्धारण की समस्या
    यदि लंबित अपीलों में प्राथमिकता देने का कोई मानक न हो, तो कौन सी अपील पहले सूचीबद्ध हो, यह आयोजन दुविधा में पड़ सकता है।
  8. न्यायालयीय निगरानी और सार्वजनिक दबाव की कमी
    यदि न्यायालयीन प्रक्रिया के सार्वजनिक निरीक्षण की सुविधा नहीं हो या मीडिया/निजी दृष्टिकोण से दबाव न हो, तो प्रशासन कम सतर्क रहता है।

ये चुनौतियाँ अकेले नहीं हैं; अक्सर ये परस्पर जटिल रूप ले लेती हैं। लेकिन यह कहा जाना चाहिए कि किसी भी न्यायालय में न्यायिक प्रक्रिया का सुचारु संचालन सुनिश्चित करना मूल अपेक्षा है।


इस कार्रवाई के संभावित प्रभाव और निहितार्थ

सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस प्रकार का आदेश देने और रजिस्ट्रार को दोषपूण रूप से उपस्थित होने को कहने के कई सकारात्मक एवं नकारात्मक परिणाम हो सकते हैं। मैं निम्नलिखित प्रभावों को सूचीबद्ध करूँगा:

सकारात्मक प्रभाव:

  1. न्याय का त्वरित निष्पादन
    यदि कार्ययोजना ठीक से लागू हो, तो वह लंबित अपीलों का निस्तारण तेजी से कर सकती है, जिससे अभियुक्तों को लम्बे कारावास में रहने की स्थिति से राहत मिलेगी।
  2. न्यायालयीन प्रशासन में जवाबदेही
    यह कदम न्यायालयीन प्रशासन को अधिक जवाबदेह बनाएगा — यदि रजिस्ट्रार को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष उपस्थित होना पड़े, तो वे अधिक सक्रियता दिखाएँगे।
  3. प्रक्रियात्मक पारदर्शिता और नियोजन
    कार्ययोजना तैयार करना न्यायालयीन प्रक्रिया को पारदर्शी और व्यवस्थित बनाने का अवसर है — यह सूचीबद्ध करने की एक समयबद्ध रणनीति हो सकती है।
  4. न्याय विभाग की सुधार प्रेरणा
    अन्य हाई कोर्टों में भी यह चेतना फैलेगी कि उन्हे ऐसी लापरवाही नहीं करनी चाहिए, अन्यथा सुप्रीम कोर्ट उनसे भी जवाब मांग सकती है।
  5. न्यायमूर्ति (judicial legitimacy) की पुनर्स्थापना
    यदि अदालतें लंबित मामलों को त्वरित रूप से सुनें तो आम जनता का न्याय व्यवस्था पर विश्वास बढ़ेगा।

संभावित चुनौतियाँ / नकारात्मक प्रभाव:

  1. कार्ययोजना बनाना आसान नहीं होगा
    रजिस्ट्रार या वृहद प्रशासनिक इकाई के लिए एक संतुलित और व्यावहारिक योजना तैयार करना कठिन हो सकता है, विशेषकर यदि संसाधन सीमित हों।
  2. दबाव एवं व्यवस्था पर बोझ
    यदि बहुत अधिक संख्या में अपीलें एक साथ सूचीबद्ध की जाएँ, तो न्यायाधीशों पर सुनवाई दबाव बढ़ सकता है, जिससे गुणवत्ता प्रभावित हो सकती है।
  3. अनुचित प्राथमिकता विवाद
    यदि कार्ययोजना में प्राथमिकता निर्धारण विवादास्पद हो, तो पक्षकारों द्वारा शिकायतें हो सकती हैं कि उनकी अपील अनैतिक तरीके से पीछे रखी गई।
  4. संसाधन एवं वित्तीय बोझ
    यदि अतिरिक्त स्टाफ, लॉजिस्टिक्स, रिकॉर्ड प्रबंधन आदि की जरूरत पड़े, तो न्यायिक बजट पर दबाव बढ़ सकता है।
  5. यदि आदेश का अनुपालन न हो
    यदि रजिस्ट्रार / हाई कोर्ट आदेश का पालन न करें, तो यह सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई को कठोर बनाना पड़ेगा — संभवतः अवमानना ​​(contempt) की कार्यवाही या अन्य नियंत्रण उपाय।

समग्रतः, इस प्रकार की कार्रवाई न्याय व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम हो सकती है, बशर्तु कि इसके साथ सुक्ष्म योजना, संसाधन संयोजन व प्रशासनिक समर्पण हो।


सुझाव और सुधारात्मक उपाय

ऐसी समस्या की पुनरावृत्ति रोकने एवं न्याय व्यवस्था को और अधिक सक्षम बनाने के लिए निम्नलिखित सुझाव उपयोगी हो सकते हैं:

  1. सूचीबद्ध प्रक्रिया (listing) के लिए मानक दिशानिर्देश
    सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट अपनी सूचीबद्ध नीति को स्पष्ट दिशानिर्देशों के रूप में जारी करें — जैसे कि कितनी बेंचें होंगी, कैसे प्राथमिकता तय होगी (उदाहरणतः अभियुक्त वर्षों से कारावास में हो, उम्र, स्वास्थ्य आदि को ध्यान में रखते हुए), कैसे सेवा सुनिश्चित होगी, आदि।
  2. ऑनलाइन / डिजिटलीकरण एवं केस मैनेजमेंट सिस्टम
    सभी अपीलों को डिजिटल रूप से ट्रैक किया जाए — उनकी स्थिति, दस्तावेज तैयार होना, सूचीबद्ध करना आदि — ताकि प्रशासन को स्पष्ट डेटा मिले और विलंबों का पूर्व अनुमान हो सके।
  3. न्यायालयीन पूरक संसाधन वृद्धि
    यदि बेंचों की संख्या बढ़ानी हो, तो अतिरिक्त न्यायाधीशों की नियुक्ति, अधिक लिपिक, सूचीबद्ध स्टाफ आदि की व्यवस्था होनी चाहिए।
  4. प्राथमिकता युक्त सूचीबद्धता
    उन अपीलों को पहले सूचीबद्ध किया जाए, जिनमें अभियुक्त वर्षों से कारावास में हैं। “लंबित अभियुक्त अपील सूचीबद्ध प्राथमिकता” नामक नीति बनाई जाए।
  5. नियमित निगरानी एवं समीक्षा
    न्यायालयीन प्रशासन को मासिक / त्रैमासिक समीक्षा करनी चाहिए कि कितनी अपीलें सूचीबद्ध की गईं, कितनी लंबित हैं, किन कारणों से रुकी हैं — और इस समीक्षा को सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
  6. पक्षों के बीच समयबद्ध सेवा / नोटिस सुनिश्चित करना
    डिजिटल सेवा, ई-नोटिस आदि व्यवस्था अपनाई जाए ताकि पक्षों को समय पर सेवा हो। यदि कोई सेवा पुनरावृत्त विफल हो, तो उच्च न्यायालय हस्तक्षेप कर सके।
  7. लोक सार्वजनिकता एवं पारदर्शिता
    सूचना उपयोगी हो कि न्यायालय की सूचीबद्ध नीति सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हो, ताकि वकील और पक्ष प्रक्रिया की पारदर्शिता को देख सकें।
  8. सहमति एवं सहयोग से स्थानीय सुधार
    हाई कोर्ट, वकील संघ, न्यायालयीन स्टाफ आदि मिलकर समिति बनाएं जो सूचीबद्ध प्रक्रिया सुधारें; प्रारंभिक बाधाओं की पहचान करें और सुधार करें।
  9. सुप्रीम कोर्ट से दिशानिर्देश / मॉनिटरिंग
    सुप्रीम कोर्ट इस तरह की मामलों में नियमित निर्देश जारी कर सकती है कि उच्च न्यायालय अपनी सूचीबद्ध नीति सुप्रीम कोर्ट को भेजें और अनुपालन रिपोर्ट दें।
  10. न्यायालयीन संवेदनशीलता प्रशिक्षण
    रजिस्ट्रार कार्यालय और अन्य न्यायालयी स्टाफ को न्यायमूर्ति प्रक्रिया, मानवीय स्थिति (especially लम्बे वक्त से बंद अभियुक्तों की स्थिति) की संवेदनशीलता का प्रशिक्षण दिया जाए।

निष्कर्ष

“Supreme Court Summons Allahabad High Court Registrar To Explain Delay In Listing Of Criminal Appeals” इस घटना में हमें केवल एक आदेश नहीं दिख रहा, बल्कि एक संकेत — न्यायपालिका की जवाबदेही, प्रशासनिक दक्षता और प्रक्रियात्मक न्याय के प्रति सतर्कता का संकेत — मिल रहा है।

लंबित और अनसुनी अपीलें सिर्फ कानूनी समस्या नहीं हैं; वे उन व्यक्तियों की स्वतंत्रता, मर्यादा और विश्वास को प्रभावित करती हैं जो न्याय की उम्मीद करते हैं। यदि न्यायालयों में प्रक्रियात्मक लापरवाही बढ़े, तो न्याय का कहीं अर्थ ही नहीं रह जाएगा।

इसलिए सुप्रीम कोर्ट का यह कदम समयानुकूल एवं आवश्यक था। इसे केवल एक “कठोर आदेश” न समझें, बल्कि न्याय व्यवस्था को पुनर्सजग करने का अवसर। यदि यह आदेश सही तरह से लागू हो, और यदि हाई कोर्ट प्रशासन सक्रिय हो जाए, तो यह विषय एक मिसाल बन सकती है कि कैसे न्यायपालिका भी प्रशासनिक सुधारों के लिए आत्मविश्लेषण कर सकती है।