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“सुप्रीम कोर्ट की पहल: गरीबों की रिहाई में नहीं रहेगा आर्थिक भेदभाव” “गरीब कैदियों के लिए राहत: डीएलएसए भरेगी जमानत राशि”

गरीब कैदियों की रिहाई में अब जमानती रकम नहीं बनेगी रोड़ा — सुप्रीम कोर्ट का मानवीय निर्णय

प्रस्तावना

भारत में न्याय तक समान पहुंच संविधान का मौलिक वचन है, परंतु वास्तविकता यह है कि हजारों गरीब और असहाय विचाराधीन कैदी केवल इस वजह से जेलों में बंद रहते हैं क्योंकि वे अपनी जमानत की रकम जमा नहीं कर पाते। यह स्थिति न केवल सामाजिक अन्याय का प्रतीक है बल्कि न्याय के उस मूलभूत सिद्धांत के भी विपरीत है जो कहता है कि “हर व्यक्ति तब तक निर्दोष है जब तक कि उसका दोष सिद्ध न हो।”

ऐसे समय में सुप्रीम कोर्ट का हालिया निर्णय, जिसमें गरीब कैदियों की जमानती रकम अब जिला विधिक सेवा प्राधिकरण (DLSA) द्वारा जमा कराई जा सकेगी, न्याय के सामाजिक और मानवीय दृष्टिकोण का महत्वपूर्ण उदाहरण है।
न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की खंडपीठ ने यह ऐतिहासिक आदेश देते हुए कहा कि न्याय केवल अमीरों के लिए नहीं, बल्कि प्रत्येक नागरिक के लिए सुलभ होना चाहिए।


पृष्ठभूमि: जमानत और न्याय की विषमता

भारत में जेलों में बंद कैदियों में से लगभग 75% विचाराधीन (undertrial) हैं, यानी वे अभी दोषसिद्ध नहीं हुए हैं।
इनमें से एक बड़ा हिस्सा ऐसे गरीब लोगों का है जिन पर छोटे या मध्यम अपराधों के आरोप हैं, परंतु वे जमानत की राशि जमा करने में असमर्थ हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी हुसेनारा खातून बनाम बिहार राज्य (1979), मोताराम बनाम मध्यप्रदेश राज्य (1994) और सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम सीबीआई (2022) जैसे मामलों में कहा था कि गरीब अभियुक्तों के लिए जमानत की शर्तें यथार्थवादी होनी चाहिए, ताकि न्याय तक समान पहुंच सुनिश्चित हो सके।

फिर भी, आर्थिक असमानता के कारण हजारों लोग वर्षों तक जेलों में सड़ते रहे — सिर्फ इसलिए क्योंकि वे अदालत द्वारा तय की गई राशि नहीं दे सके।
यही सामाजिक अन्याय अब सुप्रीम कोर्ट के नए आदेश से काफी हद तक समाप्त हो सकेगा।


सुप्रीम कोर्ट का निर्णय: DLSA करेगी गरीब कैदियों की मदद

सुप्रीम कोर्ट की न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने केंद्र सरकार, राज्यों और विधिक सेवा प्राधिकरणों को निर्देश दिया है कि वे गरीब कैदियों की रिहाई में जमानती रकम को बाधा न बनने दें।

अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी और न्यायमित्र (Amicus Curiae) सिद्धार्थ लूथरा द्वारा दिए गए सुझावों को स्वीकार करते हुए कोर्ट ने कहा —

“यदि किसी गरीब विचाराधीन कैदी के लिए जमानती रकम जमा करना संभव नहीं है, तो जिला विधिक सेवा प्राधिकरण (DLSA) उसकी ओर से यह राशि भर सकेगा।”

कोर्ट ने यह भी तय किया कि डीएलएसए अधिकतम ₹1,00,000 (एक लाख रुपये) तक की राशि जमानत के रूप में दे सकेगा।
यह निर्णय उन हजारों कैदियों के लिए राहत की किरण है, जो महज कुछ हजार रुपये की कमी के कारण महीनों या वर्षों तक जेलों में बंद रहते हैं।


नई मानक संचालन प्रक्रिया (SOP): न्याय की दिशा में ठोस कदम

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में पहले 13 फरवरी 2024 को एक मानक संचालन प्रक्रिया (Standard Operating Procedure) जारी की थी।
हालांकि, अब उस SOP में कुछ महत्वपूर्ण संशोधन किए गए हैं ताकि प्रणाली और अधिक प्रभावी और मानवीय बन सके।

नए निर्देशों के अनुसार —

  1. प्रत्येक जिले में एक अधिकार प्राप्त समिति (Empowered Committee) बनाई जाएगी।
  2. इस समिति में निम्नलिखित अधिकारी होंगे:
    • जिला कलेक्टर या जिला मजिस्ट्रेट द्वारा नामित अधिकारी,
    • डीएलएसए के सचिव (जो समिति के संयोजक होंगे),
    • पुलिस अधीक्षक,
    • संबंधित जेल के अधीक्षक या उपाधीक्षक,
    • संबंधित जेल के प्रभारी न्यायाधीश (Judge-in-Charge)।
  3. जब किसी गरीब कैदी को जमानत आदेश मिल जाता है, तो जेल अधिकारी को यह सूचना सात दिनों के भीतर डीएलएसए सचिव को देनी होगी।
  4. इसके बाद, डीएलएसए सचिव यह जांच करेगा कि कैदी के पास बैंक खाते में धनराशि है या नहीं।
  5. यदि नहीं है, तो पांच दिनों के भीतर डीएलएसए के माध्यम से राशि के भुगतान की सिफारिश की जाएगी।
  6. अधिकार प्राप्त समिति पांच दिनों में उस सिफारिश पर निर्णय लेकर राशि जारी करेगी।

इस तरह, सुप्रीम कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया है कि कोई भी कैदी केवल गरीबी या संसाधनों की कमी के कारण अपनी स्वतंत्रता से वंचित न रहे।


मानवीय दृष्टिकोण से न्याय: संविधान की भावना का विस्तार

भारत के संविधान की प्रस्तावना में न्याय — सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक — को सर्वोच्च आदर्श के रूप में घोषित किया गया है।
यह निर्णय उसी आदर्श को व्यवहार में लाने का प्रयास है।

संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत हर व्यक्ति को “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता” का अधिकार प्राप्त है। यदि कोई व्यक्ति केवल इस कारण जेल में बंद रहे कि उसके पास कुछ सौ या हजार रुपये नहीं हैं, तो यह अनुच्छेद 21 की भावना के प्रतिकूल है।

सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश से संविधान की आत्मा को व्यावहारिक स्वरूप देते हुए कहा कि न्याय केवल अमीरों की पहुंच तक सीमित नहीं रह सकता।
यह निर्णय “समानता के अधिकार” (Article 14) और “न्याय तक समान पहुंच” (Article 39-A) को मजबूत करता है।


विचाराधीन कैदियों की वास्तविकता: आंकड़ों की भाषा में अन्याय

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट के अनुसार, भारत की जेलों में बंद लगभग 4.5 लाख कैदियों में से लगभग 3.3 लाख कैदी विचाराधीन हैं।
इनमें से अधिकांश गरीब, असंगठित वर्गों से आते हैं — जैसे दैनिक मजदूर, घरेलू कर्मचारी, या ग्रामीण पृष्ठभूमि के व्यक्ति।

उनमें से अनेक लोग मामूली अपराधों — जैसे झगड़ा, चोरी, सड़क विवाद — के आरोप में वर्षों तक जेल में रह जाते हैं।
कई बार उनकी जमानत राशि केवल ₹5,000 से ₹10,000 तक होती है, परंतु उनके परिवार इतने गरीब होते हैं कि वे यह राशि भी नहीं जुटा पाते।

यह स्थिति न केवल अमानवीय है बल्कि यह दर्शाती है कि आर्थिक असमानता न्यायिक असमानता में परिवर्तित हो चुकी है।
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय इस विषमता को समाप्त करने की दिशा में क्रांतिकारी कदम है।


DLSA की भूमिका: न्याय तक समान पहुंच का माध्यम

जिला विधिक सेवा प्राधिकरण (District Legal Services Authority – DLSA) न्याय प्रणाली में उन नागरिकों के लिए सेतु का कार्य करता है जो कानूनी सहायता या प्रतिनिधित्व के खर्च का वहन नहीं कर सकते।

अब इस आदेश के बाद DLSA की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाएगी।
यह संस्था न केवल कानूनी सहायता देगी, बल्कि आर्थिक सहायता के माध्यम से भी यह सुनिश्चित करेगी कि किसी व्यक्ति को उसकी गरीबी के कारण स्वतंत्रता से वंचित न किया जाए।

इस प्रणाली से न्यायपालिका का मानवीय चेहरा और स्पष्ट होगा।
यह निर्णय “विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987” के उद्देश्यों के अनुरूप भी है, जिसका लक्ष्य है “सभी के लिए समान न्याय।”


प्रणालीगत बदलाव की आवश्यकता

हालांकि यह निर्णय ऐतिहासिक है, परंतु इसे प्रभावी बनाने के लिए प्रशासनिक स्तर पर कुछ बदलाव आवश्यक हैं —

  1. डीएलएसए को पर्याप्त बजट और स्वायत्तता दी जाए ताकि वह समय पर सहायता प्रदान कर सके।
  2. कैदियों की सूचना प्रणाली (ICJS) को और सशक्त किया जाए ताकि हर विचाराधीन कैदी की स्थिति वास्तविक समय में दर्ज हो सके।
  3. जेल अधिकारियों को प्रशिक्षण दिया जाए कि वे ऐसे मामलों को तुरंत डीएलएसए तक पहुंचाएं।
  4. गरीब कैदियों के परिवारों को भी यह जानकारी दी जाए कि वे DLSA से सहायता कैसे प्राप्त कर सकते हैं।

इन उपायों से यह आदेश केवल न्यायिक निर्णय नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का माध्यम बन सकता है।


न्यायमित्रों की भूमिका और सुप्रीम कोर्ट का संवेदनशील रुख

इस आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायमित्र सिद्धार्थ लूथरा और ए.एस.जी. ऐश्वर्या भाटी के सुझावों को गंभीरता से स्वीकार किया।
दोनों ने यह प्रस्तुत किया कि न्याय तक समान पहुंच का अर्थ है — किसी की गरीबी उसके अधिकार में बाधा न बने।

न्यायमूर्ति सुंदरेश और न्यायमूर्ति शर्मा ने इस विचार को संवैधानिक दृष्टि से मान्यता दी।
उनका रुख यह दर्शाता है कि न्यायिक संवेदनशीलता केवल निर्णय देने में नहीं, बल्कि उस निर्णय को व्यवहारिक और मानवीय बनाने में निहित है।


संविधान के आदर्शों की पुनः स्थापना

इस निर्णय के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर यह सिद्ध किया है कि भारतीय न्यायपालिका केवल कानूनी व्याख्याओं तक सीमित नहीं है, बल्कि वह सामाजिक न्याय के आदर्शों को भी मूर्त रूप देने में सक्षम है।
यह आदेश संविधान के उस वाक्य को पुनर्जीवित करता है — “न्याय सबके लिए समान होगा।”

यह निर्णय उस दिशा में एक कदम है, जहाँ गरीबी और न्याय के बीच की दूरी कम होगी।
यह संदेश देता है कि भारत की न्यायपालिका केवल कानून की संरक्षक नहीं, बल्कि मानवता की रक्षक भी है।


निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न केवल एक प्रशासनिक सुधार है, बल्कि न्याय की आत्मा को पुनर्जीवित करने वाला संवेदनशील कदम है।
अब कोई भी व्यक्ति केवल इसलिए जेल में बंद नहीं रहेगा क्योंकि वह जमानती रकम नहीं दे सका।
डीएलएसए जैसी संस्था के माध्यम से गरीब और असहाय नागरिकों को अब न्याय तक वास्तविक पहुंच प्राप्त होगी।

यह आदेश उस न्याय की ओर इशारा करता है जो संविधान के मूल तत्वों — समानता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुत्व — पर आधारित है।
यह न्यायपालिका की मानवीय चेतना का प्रमाण है और यह संदेश देता है कि न्यायालय केवल निर्णय देने की संस्था नहीं, बल्कि न्याय की आत्मा का रक्षक है।

अंततः, यह कहा जा सकता है कि —

“जब न्याय गरीबी की दीवार तोड़ता है, तभी लोकतंत्र अपने सच्चे अर्थों में जीवंत होता है।”