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सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी: गुजरात के सरकारी कॉलेजों में संविदा सहायक प्राध्यापकों को मिलने वाला वेतन ‘चिंताजनक रूप से कम’

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी: गुजरात के सरकारी कॉलेजों में संविदा सहायक प्राध्यापकों को मिलने वाला वेतन ‘चिंताजनक रूप से कम’


भूमिका

भारत में उच्च शिक्षा प्रणाली का आधार विश्वविद्यालयों और सरकारी कॉलेजों पर टिका हुआ है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए योग्य और प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति आवश्यक है। परंतु लंबे समय से यह देखा गया है कि विभिन्न राज्यों में सरकारी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में स्थायी नियुक्तियों की बजाय संविदा (contractual) आधार पर सहायक प्राध्यापकों (Assistant Professors) की नियुक्ति की जा रही है। इससे न केवल शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होती है बल्कि शिक्षकों के भविष्य और उनके जीवन-यापन की स्थिति पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

हाल ही में आए मामले Shah Samir Bharatbhai & Ors. बनाम State of Gujarat & Ors. में सुप्रीम कोर्ट ने इसी मुद्दे पर गंभीर चिंता व्यक्त की। अदालत ने कहा कि गुजरात राज्य के सरकारी कॉलेजों में संविदा सहायक प्राध्यापकों को जो वेतन दिया जा रहा है, वह अत्यंत कम है और इस तरह की व्यवस्था से शिक्षकों का शोषण हो रहा है।


मामले की पृष्ठभूमि

गुजरात राज्य के विभिन्न सरकारी कॉलेजों में कई वर्षों से बड़ी संख्या में सहायक प्राध्यापक संविदा आधार पर कार्यरत हैं। ये शिक्षक पूर्णकालिक कार्य करते हैं, लेकिन उन्हें नियमित नियुक्त सहायक प्राध्यापकों के वेतन और भत्तों का लाभ नहीं मिलता।

  • संविदा पर नियुक्त इन प्राध्यापकों को अक्सर न्यूनतम वेतन ही दिया जाता है।
  • उन्हें नियमित सेवा लाभ जैसे भविष्य निधि, पेंशन, चिकित्सा भत्ता, अवकाश वेतन आदि का हक नहीं होता।
  • इसके अलावा, संविदा की अवधि छोटी होती है और हर वर्ष नवीनीकरण की प्रक्रिया में शिक्षकों को असुरक्षा का सामना करना पड़ता है।

याचिकाकर्ता Shah Samir Bharatbhai और अन्य सहायक प्राध्यापक, जो वर्षों से इस व्यवस्था के तहत काम कर रहे थे, उन्होंने गुजरात हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।


याचिकाकर्ताओं की दलीलें

  1. समान कार्य के लिए समान वेतन (Equal Pay for Equal Work):
    याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि वे नियमित सहायक प्राध्यापकों के समान कार्य कर रहे हैं—पढ़ाना, परीक्षा का मूल्यांकन, अनुसंधान गतिविधियाँ—लेकिन वेतन में भारी असमानता है।
  2. शोषणकारी व्यवस्था:
    संविदा प्रणाली के माध्यम से योग्य प्राध्यापकों को न्यूनतम वेतन पर काम करवाना शिक्षा प्रणाली और संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 21 के खिलाफ है।
  3. गुणवत्ता पर असर:
    शिक्षकों की आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा का सीधा असर उनकी शिक्षण गुणवत्ता और छात्रों के भविष्य पर पड़ता है।

राज्य सरकार की दलीलें

गुजरात सरकार ने अपनी ओर से यह तर्क दिया कि—

  • संविदा प्रणाली बजटीय सीमाओं को ध्यान में रखते हुए बनाई गई है।
  • राज्य ने नियमों के अनुसार मानदेय (Honorarium) तय किया है।
  • संविदा प्राध्यापकों को स्थायी नियुक्ति का दावा करने का अधिकार नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी

सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने इस मामले में सुनवाई करते हुए स्पष्ट किया कि—

  1. न्यूनतम वेतन ‘सम्मानजनक जीवन’ के अनुरूप नहीं:
    अदालत ने कहा कि संविदा सहायक प्राध्यापकों को जो वेतन दिया जा रहा है, वह इतना कम है कि उससे उनका और उनके परिवार का सम्मानजनक जीवन संभव नहीं।
  2. शिक्षकों का शोषण अस्वीकार्य:
    कोर्ट ने टिप्पणी की कि राज्य सरकार का यह रवैया शोषणकारी है। यदि शिक्षक ही असुरक्षित और असंतुष्ट रहेंगे तो उच्च शिक्षा की गुणवत्ता कैसे सुनिश्चित होगी?
  3. समान कार्य के लिए समान वेतन का सिद्धांत लागू:
    कोर्ट ने याद दिलाया कि संविधान का अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) शिक्षकों के अधिकारों की रक्षा करता है।
  4. नीतिगत बदलाव की आवश्यकता:
    अदालत ने राज्य सरकार से कहा कि इस मुद्दे को केवल कानूनी नहीं, बल्कि नीतिगत और नैतिक दृष्टिकोण से भी देखा जाना चाहिए।

संवैधानिक और विधिक परिप्रेक्ष्य

  1. अनुच्छेद 14 – समानता का अधिकार:
    समान परिस्थितियों में समान कार्य करने वाले कर्मचारियों को समान वेतन मिलना चाहिए।
  2. अनुच्छेद 21 – जीवन का अधिकार:
    सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार केवल न्यूनतम जीवनयापन नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा से जुड़ा है।
  3. ‘Equal Pay for Equal Work’ सिद्धांत:
    सुप्रीम कोर्ट कई बार यह स्पष्ट कर चुका है कि यदि कर्मचारी समान कार्य कर रहे हैं तो उन्हें समान वेतन मिलना चाहिए। (उदाहरण: Randhir Singh v. Union of India, 1982)।

मामले का व्यापक महत्व

यह निर्णय केवल गुजरात तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे देश के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि—

  • लगभग सभी राज्यों में संविदा पर बड़ी संख्या में सहायक प्राध्यापकों और अन्य शिक्षकों की नियुक्ति होती है।
  • स्थायी पदों पर नियुक्ति की बजाय संविदा व्यवस्था अपनाने से बेरोजगारी, अनिश्चितता, और शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट जैसी समस्याएँ बढ़ रही हैं।
  • इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियाँ राज्यों को यह याद दिलाती हैं कि शिक्षा क्षेत्र में वित्तीय बचत को प्राथमिकता देने की बजाय गुणवत्ता और शिक्षकों के हितों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

नीतिगत प्रभाव और संभावित सुधार

  1. नियमित नियुक्तियों को बढ़ावा:
    सरकारों को चाहिए कि संविदा नियुक्तियों पर निर्भरता घटाएँ और स्थायी पदों पर नियुक्तियाँ करें।
  2. न्यायोचित वेतन संरचना:
    संविदा प्राध्यापकों को भी ऐसा वेतन दिया जाए जिससे वे सम्मानजनक जीवन जी सकें।
  3. समान कार्य के लिए समान वेतन का पालन:
    यदि संविदा प्राध्यापक स्थायी प्राध्यापकों की तरह कार्य कर रहे हैं तो उनके वेतन और भत्तों में बहुत बड़ा अंतर नहीं होना चाहिए।
  4. राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 का क्रियान्वयन:
    इस नीति का उद्देश्य गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा को बढ़ावा देना है। यह तभी संभव होगा जब शिक्षक वर्ग सुरक्षित और संतुष्ट होगा।

आलोचना और चुनौतियाँ

  • कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि न्यायालय की टिप्पणी के बावजूद सरकारें बजटीय सीमाओं का हवाला देकर सुधारों को टाल सकती हैं।
  • राज्य सरकारें अक्सर यह तर्क देती हैं कि स्थायी नियुक्तियों से वेतन और पेंशन पर अत्यधिक वित्तीय बोझ पड़ेगा।
  • लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या शिक्षा जैसे बुनियादी क्षेत्र में वित्तीय बचत को छात्रों और शिक्षकों के भविष्य पर प्राथमिकता दी जा सकती है?

निष्कर्ष

Shah Samir Bharatbhai & Ors. v. State of Gujarat & Ors. का मामला केवल एक कानूनी विवाद नहीं, बल्कि शिक्षा व्यवस्था की गहरी समस्या की ओर संकेत करता है। सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी शिक्षा क्षेत्र में संविदा व्यवस्था के शोषणकारी पहलू को उजागर करती है और राज्यों को यह सोचने पर मजबूर करती है कि यदि शिक्षा की गुणवत्ता बनाए रखनी है तो शिक्षकों की स्थिति सुधारनी ही होगी।

संविदा प्राध्यापकों को न्यायसंगत वेतन, सामाजिक सुरक्षा और सम्मानजनक स्थिति देना केवल उनका अधिकार ही नहीं, बल्कि यह राष्ट्र के भविष्य की आवश्यकता भी है।