“सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी: यदि जूनियर न्यायाधीश ‘डी.जे. परीक्षा’ को प्राथमिकता देंगे, तो निचली न्यायपालिका संकट में पड़ जाएगी”
प्रस्तावना
भारतीय न्यायपालिका प्रणाली की रीढ़ मानी जाती है मै मुकदमों की सुनवाई एवं निर्णय प्रक्रिया — विशेष रूप से निचली अदालतों का तंत्र, जहाँ प्रत्यक्ष प्रभावित नागरिकों के जीवन-हित जुड़े होते हैं। ऐसे में जब Supreme Court of India ने एक संवेदनशील विषय पर सुनवाई के दौरान यह कहा कि यदि “जूनियर-डिवीजन न्यायाधीश (Civil Judge (JD)/JMFC स्तर)” अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी — यानी मुकदमों का निर्णय एवं न्यायोद्दीकरण — की जगह केवल अगले स्तर की परीक्षा-तैयारी (जैसे District Judge की भर्ती परीक्षा) को केंद्र बनायेंगे, तो न्यायिक तंत्र में संकट उत्पन्न हो सकता है, तो यह सिर्फ एक न्यायिक टिप्पणी नहीं बल्कि संकेत है कि न्याय सेवा में संतुलन बिगड़ने का जोखिम है।
यह लेख उस टिप्पणी ने किन-किन चर्चा एवं चिंताओं को जन्म दिया है, उसके कारण, निहितार्थ एवं संभव समाधान-मॉडल को विस्तारपूर्वक:
- पहले टिप्पणी की पृष्ठभूमि;
- मुख्य चिन्ताएँ (concerns) एवं उनकी वजहें;
- निचली अदालतों पर पड़ने वाला प्रभाव;
- न्यायिक प्रशासन एवं कैडर‐प्रमोशन संरचना की व्यावहारिक चुनौतियाँ;
- समाधान-विकल्प एवं सुझाव;
- समापन में सार एवं आगे का रास्ता।
पृष्ठभूमि
हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट की पाँच न्यायाधीशों की संविधान-पीठ ने “कैंसाइडर” किया है कि ऊपर उठने की परीक्षा-प्रक्रिया (जैसे District Judge परीक्षा) किस प्रकार से न्यायाधीशों के कैरियर-मार्ग (career path) में बदलाव ला रही है।
विशेष रूप से, निम्नलिखित तथ्य सामने आए हैं:
- न्यायाधीश-कैडर में “सीधी भर्ती” (direct recruitment) तथा “पदोन्नति” (promotion) के माध्यमों का मिश्रण है;
- हाल की निर्णय-निर्देशों में यह स्पष्ट किया गया है कि जो न्यायाधीश पहले Civil Judge (Junior Division) / JMFC स्तर पर हैं, वे सीधे District Judge पद के लिए परीक्षा दे सकते हैं।
- इस बदलाव के चलते यह आशंका उठी है कि निचले स्तर पर कार्यरत न्यायाधीश अपने रोज-रोज के निर्वाहकीय/निर्णायक कर्तव्यों से हटकर केवल उस परीक्षा-तैयारी पर केंद्रित हो सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान अमिकस क्यूरिय (amicus curiae) द्वारा प्रस्तुत विवरणों को भी खंगाला, जैसे कि विभिन्न राज्यों में Promote-पेथ व Direct-रीक्रूटमेंट कैडर में उम्र, पदोन्नति की अवधि, अनुभव आदि में भारी असमानता।
इस पृष्ठभूमि में, अदालत ने खुलकर कहा है — यदि जूनियर-डिवीजन न्यायाधीश का फोकस केस फाइनल करना और न्याय उपलब्ध कराना की बजाय परीक्षा-तैयारी ओर अग्रसर हो गया, तो न्यायिक प्रवाह (flow) में व्यवधान, कम निर्णयों की संख्या, मुकदमे लंबित रहने का बढ़ता भार जैसी समस्या पैदा हो सकती है।
मुख्य चिंताएँ एवं उनकी वजहें
१. न्यायाधीशों का प्राथमिक कर्तव्य-परिवर्तन
जब एक न्यूनीकृत न्यायाधीश यह सोचने लगता है कि अगले स्तर की परीक्षा (District Judge परीक्षा) पास करना ही सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य है, तो उसका प्राथमिक फोकस — यानि प्रतिदिन मुकदमे सुनना-निराकरण करना — पीछे छूट सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने ठीक यही आशंका व्यक्त की है:
“अगर आप ७ साल इस परीक्षा के लिए लगाएं, तो आपकी ‘ACR’ (वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट) या कार्य-प्रदर्शन पर शायद कम ध्यान रहेगा।”
इससे कार्य निष्पादन का स्तर गिर सकता है।
२. निचली अदालतों में न्यायिक प्रणाली पर असर
निचले स्तर (Junior Division) की अदालतें अक्सर रोज-मर्रा के नागरिक विवाद, छोटी-मोटी संपत्ति-मुकदमे, पारिवारिक मामले आदि देखती हैं। यदि इन अदालतों में न्यायाधीशों का समय और ऊर्जा परीक्षा-तैयारी में लगने लगे, तो इसके दुष्परिणाम हो सकते हैं:
- लंबित मामलों की संख्या बढ़ेगी;
- सुनवाई में देरी एवं निर्णय-प्रक्रिया की गुणवत्ता प्रभावित होगी;
- न्याय प्राप्ति में निराशा बढ़ेगी, जिससे आम नागरिक का विश्वास न्याय-तंत्र पर कम होगा;
- न्यायिक प्रणाली की सुपरियनायित्व की धारणा (credibility of judiciary) कमजोर होगी।
३. प्रेरणा-भ्रष्टि का जोखिम (Incentive Misalignment)
जब अगले स्तर की परीक्षा-उत्तीर्णता को अधिक महत्व मिलना शुरू हो जाता है, तो निम्न-लिखित असमंजस्य उत्पन्न हो सकता है:
- प्रमुख प्रेरणा “केस बंद करना” न रहते “परीक्षा पास करना” बन जाए;
- न्यायाधीश अपनी ACR, निर्णय-संख्या, न्याय-प्राप्ति समय आदि की बजाय परीक्षा-संख्या पर ध्यान दें;
- परिणामस्वरूप, न्यायिक प्रशासन का लक्ष्य — समय पर न्याय दे पाना — पीछे छूट जाए।
४. कैडर-प्रमोशन एवं वरिष्ठता का विन्यास
सुप्रीम कोर्ट ने उल्लेख किया कि कई राज्यों में प्रमोशन-पथ (promotees) और सीधे भर्ती (direct recruits) के बीच आयु, अनुभव, पदोन्नति-समय में भारी असमानताएँ हैं।
जब नीचे-की पीढ़ी (Junior Division) न्यायाधीश प्रत्यक्ष अगली परीक्षा-मंच के लिए प्रतिस्पर्धा करेंगी, तो यह निम्नप्रेरक संरचनाएँ (incentive structures) बदल सकती हैं, जिसका असर पूरे न्यायिक कैडर पर होगा।
निचली अदालतों एवं न्यायायाधिकार पर प्रभाव
इस प्रकार की प्रवृत्ति का असर अदालतों के दैनिक संचालन पर कैसे होगा? नीचे प्रमुख प्रभाव दिए जा रहे हैं:
- विधिक देरी (Adjournments, Pendency)
जब न्यायाधीश सुनवाई-निर्णय से हटकर परीक्षा-तैयारी में समय दें, तो मामले लटके रह सकते हैं, पुनः स्थगित होने की संख्या बढ़ सकती है, और निचली अदालतों में पेंडेंसी बढ़ सकती है। - न्याय-गुणवत्ता का पतन
निर्णय-निर्माण क्वालिटी पर असर हो सकता है — जैसे उत्सुकता-घाट, तैयार-जोखिम, मुकदमे का संक्षिप्त निपटारा, सीमित वक्त में जल्दी निर्णय देना। इससे न्याय मिलने की वास्तविकता और न्याय-समय प्रभावित होंगे। - न्यायाधीशों का मनोबल एवं व्यवस्था
युवा न्यायाधीश जब यह अनुभव करें कि उनका करियर अगली परीक्षा-उत्तीर्णता पर निर्भर है, तो वे दैनिक न्यायोद्धार्य कार्य से हट सकते हैं। यह मानसिक तनाव, असमय बोझ और संतुलन-विघटन का कारण बन सकता है। - उपरी अदालतों में बोझ
यदि निचली अदालतों में निर्णय नहीं होते तो आदेशों, अपीलों के रूप में मामलों का वॉर्कलोड उपरी अदालतों में बढ़ेगा, जिससे समूचे न्यायिक तंत्र पर दबाव बढ़ेगा।
कारण एवं विवेचन
(अ) परीक्षा-प्रोमोटिंग संरचना
पिछले निर्णयों में, जैसे कि Rejanish KV vs K Deepa में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि निचली अदालतों में कार्यरत न्यायाधीश सीधे District Judge की भर्ती परीक्षा में शामिल हो सकते हैं।
यह निर्णय अपने-आप में एक प्रगति और अवसर है, पर इसके साथ निहित है यह जोखिम कि न्यायाधीशों का ध्यान कार्य निर्वाह से हटकर परीक्षा-तैयारी पर केन्द्रित हो जाए।
(ब) वरिष्ठता-पदोन्नति में असमानताएँ
अभिकर्ता द्वारा प्रस्तुत आंकड़े दिखाते हैं कि कई राज्यों में Promote-पथ पर आने वाले न्यायाधीशों की औसत उम्र, Direct-रूट द्वारा आने वालों से काफी अधिक है।
इस असमानता ने न्यायाधीशों की प्रेरणा-नीति को प्रभावित किया है — “अगर जल्दी प्रमोशन मिलेगा तो बेहतर” की प्रवृत्ति विकसित हो रही है।
(स) सम्मान-वित्तीय प्रोत्साहन की पारदर्शिता
न्यायिक सेवा में प्रोमोशनल चक्र, समय-स्केल, चयन-ग्रेड आदि की संरचनाएँ जटिल हैं। इतने में, जब “परीक्षा पास करने” को प्रमोशन-चुनाव में प्रभावी माना गया, तो अन्य योग्यताओं (जैसे निरंतर निर्णय-संख्या, न्याय-गुणवत्ता, प्रशासनिक जिम्मेदारी) को कम तवज्जो मिल सकती है।
(द) ‘कीमत’ एवं ‘प्राथमिकता’ का संघर्ष
न्यायाधीश को दो तरह की ‘कीमत’ समझनी पड़ती है:
- केस को सुनना-निर्णय देना → यह रोज-मर्रा का काम है, और न्याय पहुँचाने का माध्यम।
- परीक्षा-तैयारी एवं प्रमोशन-चक्र → यह कैरियर की दिशा तय करती है।
यदि दूसरा काम पहले को पीछे धकेले, तो न्याय-प्रभाव (justice delivery) प्रभावित हो सकती है।
समाधान-विकल्प एवं सुझाव
यहाँ कुछ सुझाव दिए जा रहे हैं जिन पर विचार किया जाना चाहिए — ताकि इस प्रकार की समस्या से न्यायपालिका बच सके:
- प्रमोशन एवं परीक्षा-संरचना का पुनरीक्षण
- यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि निम्न-न्यायाधीशों का पहला कर्तव्य — “केस सुनना एवं निराकरण करना” — कम न हो।
- परीक्षा-तैयारी को प्रमोशन-केवल मार्ग न बनाया जाए बल्कि उसमें नियुक्ति-पूर्व तथा नियुक्ति-परोपयुक्त अनुभव-मानदंड भी शामिल हों।
- “जूनियर-डिवीजन न्यायाधीशों के लिए निर्धारित कुल पोस्टों का क्वोटा” प्रणाली पर विचार किया जा सकता है, पर उसे इस तरह से न बनाया जाए कि न्यायोद्धार्य कार्य बंदी का कारण बने।
- कार्य-प्रदर्शन एवं निर्णय-मेट्रिक्स को प्रमोशन में महत्व देना
- न्यायाधीशों के प्रमोशन-चयन में निर्णय-संख्या, सुनवाई-समय, न्याय-गुणवत्ता, महारत (competence) आदि को मुख्य मानदंड बनाया जाए।
- परीक्षा-उत्तीर्णता सिर्फ एक मिथक-चरण (gateway) बनकर न रह जाए।
- न्यायाधिकरणों द्वारा Annual Confidential Reports (ACR) का संक्षिप्त लेकिन प्रभावी लेखा-जोखा रखा जाए, जिसमें “केस फाइनल किए गए”, “अपीलों में उलटी संख्या”, “टाइमलाइन पर निर्णय” जैसे आंकड़े हों।
- न्यायाधीश-प्रशिक्षण एवं समय-व्यवस्था सुधार
- जूनियर-डिवीजन न्यायाधीशों को नियमित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए कि वे परीक्षा-तैयारी और दैनिक न्यायोद्धार्य कार्य को संतुलित कर सकें।
- न्यायालय समय-बोझ (caseload) का पूर्वावलोकन करें, ताकि न्यायाधीश पर अत्याधिक भार न हो और वे केस-निर्णय एवं तैयारी दोनों के लिए पर्याप्त समय पा सकें।
- कैडर-संकलन (Cadre Management) एवं भर्ती-प्रमोशन नीति में समन्वय
- राज्य उच्च-न्यायालयों, राज्य सरकारों एवं न्यायिक सर्विस आयोगों के बीच इस दिशा में समन्वित नीति बनानी होगी।
- यह देखा जाना चाहिए कि कैरियर-मार्ग में “प्रमोशन-समय”, “उम्र-सीमा”, “अनुभव” आदि को न्यायसंगत एवं पारदर्शी बनाया जाए।
- साथ ही यह सुनिश्चित करना होगा कि जूनियर-लेवल न्यायाधीशों के लिए भविष्य-प्रेरणा बनी रहे — न कि परीक्षा-चक्र ही उनका मुख्य काम बन जाए।
- निगरानी एवं समीक्षा तंत्र
- न्यायिक प्रशासन द्वारा नियमित रूप से यह आकलन करना चाहिए कि जूनियर-डिवीजन न्यायाधीशों का प्रमुख समय किस प्रकार बँट रहा है — निर्णय-शुनवाई बनाम परीक्षा-तैयारी।
- यदि किसी न्यायाधीश को अत्यधिक परीक्षा-तैयारी-प्राथमिकता लेने की प्रवृत्ति दिखे, तो समय-नियोजन एवं कार्यप्रणाली में सुधार-निर्देश दिए जाएँ।
समापन
न्यायपालिका, विशेष रूप से निचली अदालतें, देश के न्याय-प्राप्ति तंत्र का बेहद महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। जब इस स्तंभ में “केस सुनवाई एवं निर्णय” की प्राथमिकता कम होकर “परीक्षा-तैयारी / प्रमोशन” की ओर झुकने लगे, तो न्याय-प्राप्ति-संसाधन (justice-delivery mechanism) में अस्थिरता का जोखिम उत्पन्न होता है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई चेतावनी — कि यदि जूनियर-डिवीजन न्यायाधीश अपनी भूमिका को ‘केस-निर्णयकर्ता’ की जगह ‘परीक्षा-उत्तीर्णकर्ता’ की तरह देखेंगे, तो “न्यायिक तंत्र संकट में” पड़ सकता है — इसलिए समयानुकूल है।
इसलिए, हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रमोशन-प्रवेश की प्रेरणा और न्यायोद्धार्य कर्तव्य के बीच संतुलन बना रहे। इसका मतलब यही है: न्यायाधीश को न केवल अगला पद पाने की चाह हो, बल्कि प्रतिदिन न्याय देने की प्रतिबद्धता बनी रहे। यदि यह संतुलन बिगड़ेगा, तो निचले-न्यायालयों में न्यायोद्दीपन (efficient adjudication) की क्षमा संभावित रूप से धूमिल हो सकती है।
अतः यह हमारा दायित्व है — न्यायिक प्रशासन, नीति-निर्माता, न्यायाधीश, और आम नागरिक — कि इस चेतावनी को गंभीरता से लें और सुनिश्चित करें कि “केस सुनो, न्याय करो” का मूल मंत्र कहीं पीछे न छूट जाए।