सुप्रीम कोर्ट की चिंता: राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम, 1956 में मुआवजे की प्रक्रिया पर पुनर्विचार की आवश्यकता
प्रस्तावना
भारत में विकास की तीव्र गति और अधोसंरचना (infrastructure) के विस्तार के लिए भूमि अधिग्रहण एक अनिवार्य प्रक्रिया है। सड़कों, राजमार्गों और अन्य सार्वजनिक परियोजनाओं के निर्माण हेतु भूमि अधिग्रहण करना सरकार की जिम्मेदारी है। इसी उद्देश्य से राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम, 1956 (National Highways Act, 1956) बनाया गया, जिसके अंतर्गत केंद्र सरकार अथवा राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (NHAI) द्वारा भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया संचालित की जाती है।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिनियम के कुछ प्रावधानों, विशेषकर धारा 3जी और धारा 3जे, पर गंभीर सवाल उठाए और केंद्र सरकार से इस पर पुनर्विचार करने का सुझाव दिया। अदालत का मानना है कि मुआवजे का निर्धारण केवल कार्यपालिका (executive) के अधिकारियों पर छोड़ना न्याय और निष्पक्षता के सिद्धांतों के विपरीत है।
मामला और सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ, जिसमें जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची शामिल थे, ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की। यह याचिका पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर की गई थी, जिसमें धारा 3जी और 3जे को अनुच्छेद 14 के उल्लंघन के कारण असंवैधानिक करार दिया गया था।
- धारा 3जी (Section 3G): मुआवजे की राशि के निर्धारण से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि यदि भूमि मालिक और सरकार/अधिग्रहणकर्ता के बीच मुआवजे की राशि पर सहमति नहीं बनती, तो मामला केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त “आर्बिट्रेटर” (arbitrator) के पास जाएगा। आमतौर पर यह आर्बिट्रेटर कोई नौकरशाह या राजस्व अधिकारी होता है।
- धारा 3जे (Section 3J): इसमें स्पष्ट किया गया है कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 (और बाद में 2013 के कानून) की कोई भी प्रावधान राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम के अंतर्गत होने वाले अधिग्रहणों पर लागू नहीं होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अन्य अधिग्रहण कानूनों के तहत, जैसे भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन में उचित प्रतिकर एवं पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 (LARR Act, 2013), मुआवजे की प्रक्रिया में न्यायिक निगरानी का प्रावधान है। इसके विपरीत, राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम में यह निर्णय पूरी तरह कार्यपालिका पर छोड़ दिया गया है।
अदालत ने यह भी जोड़ा कि मुआवजे का निर्धारण एक गंभीर प्रक्रिया है, जो सीधे अनुच्छेद 300ए (संपत्ति का अधिकार) और अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) से जुड़ा हुआ है। अतः इसमें स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायिक जांच का अवसर होना चाहिए।
भूमि अधिग्रहण और संवैधानिक दृष्टिकोण
भारतीय संविधान संपत्ति के अधिकार को एक मौलिक अधिकार से हटाकर अनुच्छेद 300ए के तहत एक वैधानिक अधिकार के रूप में मान्यता देता है। इसका अर्थ है कि कोई भी व्यक्ति केवल कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार ही अपनी संपत्ति से वंचित किया जा सकता है।
इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद 14 प्रत्येक नागरिक को समानता और निष्पक्ष प्रक्रिया का अधिकार देता है। यदि मुआवजे का निर्धारण पूरी तरह कार्यपालिका के अधिकारियों के हाथ में हो और न्यायिक समीक्षा का कोई ठोस प्रावधान न हो, तो यह समानता और न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन माना जा सकता है।
हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की भूमिका
- पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने पहले ही यह माना था कि धारा 3जे और 3जी मनमानी को बढ़ावा देती हैं और नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन करती हैं।
- सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर सहमति जताते हुए मौखिक रूप से कहा कि सरकार को चाहिए कि वह इन प्रावधानों पर पुनर्विचार करे और एक ऐसी व्यवस्था बनाए, जिसमें निष्पक्ष, स्वतंत्र और न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से मुआवजे का निर्धारण हो।
मुआवजे की समस्या और व्यावहारिक कठिनाइयाँ
- नौकरशाही नियंत्रण: वर्तमान व्यवस्था में मुआवजे का निर्धारण अक्सर राजस्व अधिकारियों द्वारा किया जाता है, जिन पर सरकार का सीधा प्रभाव रहता है। इससे पक्षपात और असमानता की संभावना बढ़ जाती है।
- न्यायिक समीक्षा का अभाव: भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 में जहां प्रभावित पक्ष जिला न्यायालय या उच्च न्यायालय में अपील कर सकते हैं, वहीं NHAI अधिनियम में यह प्रावधान स्पष्ट रूप से नहीं है।
- निष्पक्षता पर प्रश्न: भूमि अधिग्रहण का उद्देश्य सार्वजनिक हित हो सकता है, परंतु यदि मुआवजे का निर्धारण पारदर्शी और न्यायसंगत न हो, तो यह व्यक्तिगत अधिकारों के हनन का कारण बन जाता है।
- समानता का सिद्धांत: दो अलग-अलग अधिनियमों के तहत भूमि अधिग्रहण में यदि प्रक्रियाएँ भिन्न हों, तो यह अनुच्छेद 14 का उल्लंघन बन सकता है।
संभावित सुधार और सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण
सुप्रीम कोर्ट ने यह संकेत दिया है कि भूमि अधिग्रहण जैसे संवेदनशील विषय में केवल कार्यपालिका पर निर्भर रहना उचित नहीं है। कुछ संभावित सुधार निम्न हो सकते हैं:
- स्वतंत्र न्यायिक प्राधिकरण का गठन: मुआवजे के निर्धारण के लिए एक स्वतंत्र न्यायिक प्राधिकरण या विशेष न्यायाधिकरण की स्थापना की जाए।
- LARR Act, 2013 का अनुप्रयोग: राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम के अधीन अधिग्रहण को भी भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 के न्यायसंगत मुआवजा और पुनर्वास प्रावधानों से जोड़ा जाए।
- पारदर्शिता की गारंटी: मुआवजे का निर्धारण सार्वजनिक और पारदर्शी प्रक्रिया के तहत हो, जिसमें प्रभावित किसानों और भूमि मालिकों की सहभागिता सुनिश्चित की जाए।
- अपील का अधिकार: प्रभावित पक्षों को उच्च न्यायिक मंचों पर अपील करने का स्पष्ट अधिकार दिया जाए।
निष्कर्ष
राष्ट्रीय राजमार्गों का निर्माण और विस्तार देश की आर्थिक प्रगति और सुगम यातायात व्यवस्था के लिए आवश्यक है। परंतु इसके लिए भूमि अधिग्रहण करते समय भूमि मालिकों और प्रभावित पक्षों के अधिकारों की रक्षा करना भी उतना ही जरूरी है।
सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी यह दर्शाती है कि निष्पक्षता, पारदर्शिता और न्यायिक निगरानी किसी भी अधिग्रहण प्रक्रिया का अनिवार्य हिस्सा होनी चाहिए। यदि मुआवजे का निर्धारण केवल कार्यपालिका के अधिकारियों के हाथ में रहेगा, तो यह नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों के विरुद्ध होगा।
इसलिए अब समय आ गया है कि केंद्र सरकार राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम, 1956 की धारा 3जी और 3जे पर पुनर्विचार करे और एक ऐसी व्यवस्था बनाए जो न्याय, समानता और निष्पक्षता के सिद्धांतों के अनुरूप हो। यह न केवल प्रभावित भूमि मालिकों के लिए उचित होगा, बल्कि अधिनियम की संवैधानिक वैधता को भी मजबूत करेगा।
1. राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम, 1956 का उद्देश्य क्या है?
राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम, 1956 का मुख्य उद्देश्य भारत में राष्ट्रीय राजमार्गों के निर्माण, रख-रखाव और विकास को सुचारु बनाना है। यह अधिनियम केंद्र सरकार को राजमार्गों से संबंधित भूमि अधिग्रहण, नियंत्रण और प्रशासनिक अधिकार प्रदान करता है। इसके माध्यम से सरकार को किसी भी निजी भूमि का अधिग्रहण करके राजमार्ग निर्माण करने का अधिकार है। अधिनियम में मुआवजे का प्रावधान भी है, जिससे प्रभावित भूमि मालिकों को क्षतिपूर्ति दी जा सके।
2. धारा 3जी (Section 3G) क्या प्रावधान करती है?
धारा 3जी मुआवजे के निर्धारण से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि यदि भूमि मालिक और अधिग्रहणकर्ता (सरकार/प्राधिकरण) के बीच मुआवजे की राशि पर सहमति नहीं बनती, तो मामला केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त आर्बिट्रेटर के पास जाएगा। यह आर्बिट्रेटर सामान्यतः नौकरशाह या राजस्व अधिकारी होते हैं। समस्या यह है कि इस व्यवस्था में न्यायिक समीक्षा का अभाव है, जिससे निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं।
3. धारा 3जे (Section 3J) क्यों विवादास्पद है?
धारा 3जे में स्पष्ट कहा गया है कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 (और बाद में 2013 का कानून) राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम के अंतर्गत होने वाले अधिग्रहण पर लागू नहीं होगा। इसका मतलब है कि NHAI के अधिग्रहणों पर अन्य कानूनों के न्यायसंगत मुआवजे, पुनर्वास और पुनर्स्थापन संबंधी प्रावधान लागू नहीं होंगे। यही कारण है कि इसे अनुच्छेद 14 और समानता के सिद्धांत का उल्लंघन माना गया है।
4. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में क्या टिप्पणी की?
सुप्रीम कोर्ट ने मौखिक रूप से कहा कि राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम में मुआवजे का निर्धारण केवल कार्यपालिका के हाथों में छोड़ना अनुचित है। अन्य कानूनों जैसे भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 में न्यायिक निगरानी का प्रावधान है, जबकि यहाँ यह अनुपस्थित है। अदालत ने कहा कि निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए मुआवजे का निर्धारण स्वतंत्र न्यायिक जांच से गुजरना चाहिए।
5. पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट का निर्णय क्या था?
पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने धारा 3जे और 3जी को अनुच्छेद 14 का उल्लंघन मानते हुए असंवैधानिक करार दिया था। अदालत का मानना था कि यदि दो अलग-अलग अधिनियमों के तहत भूमि अधिग्रहण की प्रक्रियाएँ अलग-अलग हों और एक में न्यायिक संरक्षण हो, जबकि दूसरे में न हो, तो यह असमानता और भेदभावपूर्ण स्थिति है।
6. अनुच्छेद 14 का उल्लंघन कैसे होता है?
अनुच्छेद 14 नागरिकों को समानता का अधिकार देता है। यदि भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 के तहत अधिग्रहण होने पर न्यायिक समीक्षा और उच्च मुआवजा उपलब्ध है, लेकिन राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम के तहत अधिग्रहण में ऐसा न हो, तो यह समान परिस्थिति में नागरिकों के साथ असमान व्यवहार है। इसी आधार पर अनुच्छेद 14 का उल्लंघन माना गया।
7. अनुच्छेद 300ए का महत्व क्या है?
अनुच्छेद 300ए कहता है कि किसी भी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से केवल कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जा सकता है। इसका अर्थ है कि भूमि अधिग्रहण में उचित प्रक्रिया और न्यायसंगत मुआवजा अनिवार्य है। यदि यह प्रक्रिया केवल कार्यपालिका तक सीमित रहे और न्यायिक समीक्षा न हो, तो यह अनुच्छेद 300ए के सिद्धांतों के विपरीत होगा।
8. वर्तमान व्यवस्था में क्या व्यावहारिक कठिनाइयाँ हैं?
मौजूदा व्यवस्था में मुआवजे का निर्धारण अक्सर नौकरशाहों या राजस्व अधिकारियों द्वारा किया जाता है, जिन पर सरकार का सीधा प्रभाव होता है। इससे पारदर्शिता और निष्पक्षता संदिग्ध हो जाती है। भूमि मालिकों को न्यायिक अपील का ठोस प्रावधान उपलब्ध नहीं है। परिणामस्वरूप, प्रभावित लोगों को उचित और न्यायसंगत मुआवजा पाने में कठिनाई आती है।
9. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को क्या सुझाव दिया?
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि वह राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम, 1956 की धारा 3जी और 3जे पर पुनर्विचार करे। अदालत ने सुझाव दिया कि मुआवजे के निर्धारण में न्यायिक निगरानी होनी चाहिए और यह कार्य केवल कार्यपालिका पर न छोड़ा जाए। इसके लिए स्वतंत्र न्यायिक प्राधिकरण या न्यायाधिकरण का गठन किया जा सकता है।
10. इस विवाद का समाधान कैसे संभव है?
इस विवाद का समाधान तभी संभव है जब राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम को भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 के सिद्धांतों से जोड़ा जाए। इसमें न्यायसंगत मुआवजा, पुनर्वास और पुनर्स्थापन की व्यवस्था की जाए। साथ ही, प्रभावित पक्षों को न्यायिक मंचों पर अपील करने का अधिकार मिले। इससे अधिग्रहण प्रक्रिया पारदर्शी होगी और नागरिकों का विश्वास बढ़ेगा।