✒️ शीर्षक:
सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट संदेश – बार-बार तुच्छ याचिकाओं के माध्यम से न्याय प्रक्रिया पर दबाव डालना अस्वीकार्य
🔍 प्रस्तावना:
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि न्यायिक प्रक्रिया को तुच्छ, दुर्भावनापूर्ण या बार-बार दायर की गई याचिकाओं के माध्यम से प्रभावित नहीं किया जा सकता। एक हालिया मामले में, याचिकाकर्ता विकास साहा द्वारा उद्योगपति मुकेश अंबानी और उनके परिवार को प्रदान की गई ‘जेड प्लस’ सुरक्षा हटाने की मांग को लेकर बार-बार याचिकाएं दायर करने पर सुप्रीम कोर्ट ने कड़ी आपत्ति जताई और याचिका को खारिज करते हुए सख्त चेतावनी दी।
⚖️ मामला और पृष्ठभूमि:
- मूल याचिका:
फरवरी 2023 में विकास साहा ने याचिका दायर की थी जिसमें उन्होंने रिलायंस इंडस्ट्रीज के प्रमुख मुकेश अंबानी और उनके परिवार को दी गई ‘Z+’ सुरक्षा हटाने की मांग की थी। - याचिका खारिज:
सुप्रीम कोर्ट ने यह याचिका इस आधार पर खारिज कर दी थी कि याचिकाकर्ता को इस विषय में कोई प्रत्यक्ष अधिकार (locus standi) नहीं है। - नवीनतम प्रयास:
साहा ने पुनः आवेदन दाखिल कर उसी आदेश के स्पष्टीकरण की मांग की, जिससे न्यायालय ने यह माना कि वह न्यायिक प्रणाली का दुरुपयोग कर रहे हैं।
🧑⚖️ सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी:
न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा और न्यायमूर्ति मनमोहन की पीठ ने याचिकाकर्ता को फटकार लगाते हुए कहा:
- “न्यायिक प्रक्रिया पर दबाव डालने की इजाजत नहीं दी जा सकती। यह बहुत गंभीर विषय है।”
- “ऐसी याचिकाएं तुच्छ और परेशान करने वाली हैं। भविष्य में यदि ऐसा दोहराया गया, तो अदालत जुर्माना लगाने के लिए बाध्य होगी।”
न्यायालय ने यह भी कहा:
“यह मत सोचिए कि यहां कोई सोने की खान है जिसे छीना जा सकता है। हम केवल सुविधा देने के लिए नहीं हैं, बल्कि यह प्रक्रिया एक पवित्र व्यवस्था है।”
📌 कानूनी सिद्धांत और निष्कर्ष:
- सार्वजनिक सुरक्षा के मामलों में निर्णय लेना केवल केंद्र और राज्य सरकार का अधिकार है, न कि न्यायालय का।
- सुरक्षा मुहैया कराने का निर्णय खुफिया एजेंसियों द्वारा खतरे के विश्लेषण के आधार पर होता है।
- किसी राजनीतिक व्यक्ति या उद्योगपति को दी गई सुरक्षा को चुनौती देना किसी आम नागरिक का अधिकार क्षेत्र नहीं है, जब तक कि कोई ठोस कानूनी आधार न हो।
📚 प्रमुख संदेश और प्रभाव:
- न्यायालय की पवित्रता को बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है।
- जनहित याचिकाओं (PILs) का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए, वरना न्यायिक व्यवस्था पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
- यदि कोई याचिकाकर्ता बार-बार उसी मुद्दे को लेकर अदालत का समय बर्बाद करता है, तो अदालत उसके विरुद्ध जुर्माना लगाने का अधिकार रखती है।
🔚 निष्कर्ष:
इस निर्णय ने एक बार फिर सिद्ध किया कि सुप्रीम कोर्ट केवल न्याय के लिए है, न कि किसी व्यक्तिगत एजेंडा या प्रचार के लिए। न्यायालय की कार्यवाही को बाधित करना या राजनीतिक या व्यक्तिगत उद्देश्य के लिए इसका प्रयोग करना न केवल असंवैधानिक है, बल्कि अवमानना के दायरे में आता है।
यह निर्णय उन लोगों के लिए चेतावनी है जो न्याय व्यवस्था को प्रचार मंच या राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग करना चाहते हैं।