“सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय: सेवा के दौरान दिव्यांगता प्राप्त करने वाले कर्मचारियों को न तो त्यागा जा सकता है और न ही समय पूर्व सेवानिवृत्त किया जा सकता है”
प्रस्तावना
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय में यह स्पष्ट किया है कि सेवा के दौरान दिव्यांगता (Disability) प्राप्त करने वाले कर्मचारियों को न तो नौकरी से बाहर किया जा सकता है और न ही उन्हें समय से पहले सेवानिवृत्ति (Premature Retirement) के लिए बाध्य किया जा सकता है, भले ही उनके पास कोई विशिष्ट संविदात्मक अधिकार (Contractual Right) न हो। यह निर्णय न केवल दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करता है, बल्कि कार्यस्थलों पर समावेशिता (inclusivity) को भी बढ़ावा देता है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला उस कर्मचारी से संबंधित था जिसने सेवा में रहते हुए शारीरिक अक्षमता प्राप्त की थी। नियोक्ता ने उस कर्मचारी को सेवा से समय पूर्व सेवानिवृत्त करने या हटा देने का निर्णय लिया, यह तर्क देते हुए कि वह अब कार्य करने में सक्षम नहीं है और सेवा नियमों या अनुबंध में इस स्थिति से निपटने का कोई विशेष प्रावधान नहीं है।
इस पर कर्मचारी ने अदालत का रुख किया और यह याचिका सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची, जहां संवैधानिक पीठ ने इस विषय पर विस्तार से विचार करते हुए एक महत्वपूर्ण फैसला दिया।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि:
- संवैधानिक नैतिकता का पालन: सेवा के दौरान दिव्यांगता का शिकार हुए कर्मचारी को त्याग देना या समय पूर्व सेवानिवृत्त करना असंवैधानिक, अमानवीय और असंवेदनशील कृत्य है।
- मानव गरिमा की रक्षा: संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता” में गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार शामिल है। ऐसे कर्मचारी को काम से हटाना इस मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा।
- न्यायसंगत और समावेशी दृष्टिकोण आवश्यक: नियोक्ता का यह कर्तव्य है कि वह ऐसे कर्मचारियों को वैकल्पिक कार्य या उपयुक्त सहायता देकर सेवा में बनाए रखने का प्रयास करे।
- समता का अधिकार: अनुच्छेद 14 और 16 के तहत समान अवसर और भेदभाव से मुक्ति का अधिकार भी ऐसे मामलों में लागू होता है।
- दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016 का समर्थन: इस अधिनियम में यह स्पष्ट है कि दिव्यांग व्यक्तियों को रोजगार से वंचित नहीं किया जा सकता और उनकी कार्यक्षमता के अनुसार उचित समायोजन (Reasonable Accommodation) प्रदान किया जाना चाहिए।
फैसले का महत्व
- यह निर्णय देशभर के नियोक्ताओं को यह संदेश देता है कि वे दिव्यांगता प्राप्त कर्मचारियों को त्यागने के बजाय उनके पुनर्वास और सेवा में समायोजन के लिए कदम उठाएं।
- यह समाज में समानता, समावेशिता और करुणा की भावना को प्रोत्साहित करता है।
- इससे यह स्पष्ट होता है कि संविदा या सेवा नियमों में भले ही कोई अधिकार न दिया गया हो, फिर भी संवैधानिक सिद्धांतों और मानवाधिकारों के आधार पर कर्मचारियों को संरक्षण प्राप्त है।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह ऐतिहासिक निर्णय दिव्यांगता को जीवन के अंत नहीं, बल्कि एक नए समावेशी अध्याय की शुरुआत के रूप में देखने की प्रेरणा देता है। यह फैसला न केवल कानूनी दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह एक नैतिक दृष्टिकोण से भी कार्यस्थलों को अधिक मानवोचित और संवेदनशील बनाने की दिशा में मील का पत्थर साबित होता है।