“अभियुक्त द्वारा दर्ज की गई स्व-स्वीकारात्मक प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) : Supreme Court of India द्वारा प्रमाण में अस्वीकार्य — एक विवेचनात्मक अध्ययन”
प्रस्तावना
भारतीय दण्ड प्रक्रिया एवं सुबूत-कानून की व्याख्या में यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न रहा है कि जब स्वयं अभियुक्त कोई प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराता है, जिसमें स्व-स्वीकार (confession) शामिल हो, तो क्या वह FIR मुकदमे में अभियुक्त के विरुद्ध “प्रमुख सुबूत” के रूप में प्रयोग की जा सकती है? हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा है कि स्व-स्वीकारात्मक प्रकृति की FIR जिसे अभियुक्त ने दर्ज किया है, उसे अभियुक्त के विरुद्ध प्रमाण के रूप में नहीं माना जा सकता।
इस लेख में हम (1) FIR-स्वीकारात्मक प्रकृति की अवधारणा, (2) संबंधित कानूनी प्रावधान (Indian Evidence Act, 1872 के तहत) का विश्लेषण, (3) सुप्रीम कोर्ट के नवीनतम निर्णयों का विवेचन (विशेषकर Narayan Yadav मामला), (4) इस सिद्धांत के सार एवं सीमाएँ, (5) वकील / अभियोजन / प्रतिरक्षा पक्ष के लिए व्यावहारिक सुझाव, और अन्त में (6) निष्कर्ष प्रस्तुत करेंगे।
I. “स्व-स्वीकारात्मक प्रथम सूचना रिपोर्ट (Confessional FIR)” की अवधारणा
- सामान्यतः FIR (First Information Report) को पुलिस द्वारा अपराध के सामने आते ही दर्ज की जाने वाली रिपोर्ट माना जाता है, जिसमें शिकायतकर्ता द्वारा बताया जाता है कि कोई अपराध हुआ है।
- परंतु जब वही FIR अभियुक्त स्वयं दर्ज कराता है और उसमें यह स्वीकार करता है कि “मैंने यह अपराध किया है”, या “मेरी इस प्रकार की भागीदारी थी” — तो इसे “स्व-स्वीकारात्मक प्रकृति की FIR” या “confessional FIR” कहा जाता है।
- इस तरह की FIR में अभियुक्त द्वारा अपनी भागीदारी स्वीकृत की जाती है — जो कि आत्म पराधारोपण जैसा भाव उत्पन्न करती है।
- न्यायशास्त्रीय दृष्टि से यह विवादित है क्योंकि भारतीय सुबूत-कानून (Evidence Act) में विशेष रूप से “पुलिस अधिकारी के समक्ष की गई स्व-स्वीकारात्मक स्वीकृति / बयान” के प्रतिरोधात्मक पर्याय मौजूद हैं।
- उदाहरणतः हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि “An FIR of a confessional nature made by an accused person is inadmissible in evidence against him, except to the extent that it shows he made a statement soon after the offence…”
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि ऐसे FIR की प्रकृति-वश उसे सामान्य FIR-प्रमाण की तरह स्वीकार करना न्यायशास्त्र-अनुकूल नहीं माना गया है।
II. कानूनी प्रावधान एवं न्यायसिद्धांत
(१) प्रावधान
- Indian Evidence Act, 1872 की धारा 25 (‘Confession to a police officer’) के अंतर्गत यह प्रावधान है कि “No confession made to a police officer shall be proved as against a person accused of any offence.”
- इसके अतिरिक्त धारा 27 (‘Information resulting in discovery of fact’) में कहा गया है कि जानकारी जो अपराध संबंधी तथ्य की खोज में सहायक हो, उसे प्रमाण के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।
- तथा धारा 8 (‘Conduct of person charged or examined as a fact’) के अंतर्गत अभियुक्त के आचरण-तथ्यों को प्रमाण के रूप में देखा जा सकता है।
(२) न्यायसिद्धांत
- यदि FIR एक अभियुक्त द्वारा स्वयं दर्ज की गई है और उसमें स्व-स्वीकारात्मक भाग है, तो पूरी FIR को विभाजित करना आसान नहीं — क्योंकि “स्वीकारात्मक भाग” और “अन्य तथ्य” में रेखा धुंधली हो सकती है। न्यायालयों ने यह माना है कि ऐसे FIR को पूरी तरह से अस्वीकार्य माना जाना चाहिए, सिवाय उन हिस्सों के जो धारा 8 या 27 के अंतर्गत आ सकते हों।
- सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि “Although the conduct of an accused may be relevant under Section 8 … it cannot by itself serve as the sole basis for conviction, especially in a grave charge such as murder.”
- इसी प्रकार, FIR की स्व-स्वीकारात्मक प्रकृति को देखकर, उसे अभियुक्त के विरुद्ध “सहायक सुबूत” (corroborative evidence) के रूप में इस्तेमाल करना या उसकी वजह से अन्य सुबूतों को भरोसा देना उचित नहीं माना गया है।
इस कानूनी पृष्ठभूमि में यह स्पष्ट है कि FIR-स्वीकारात्मक को प्रमाण-रूप में अपनाना न्यायशास्त्रीय रूप से बड़ी सावधानी से किया जाना चाहिए।
III. सुप्रीम कोर्ट का नवीनतम निर्णय (Narayan Yadav मामला)
(१) तथ्यात्मक पृष्ठभूमि
- आरोपी Narayan Yadav ने 2019 में स्वयं FIR दर्ज कराई, जिसमें उसने स्वीकार किया कि उसने अपने मित्र Ram Babu Sharma को शराब के मद्दे नजर हुए विवाद के बाद छुरा और अन्य आघातों से मार डाला।
- निचली अदालत एवं हाई-कोर्ट ने इस FIR एवं चिकित्सा रिपोर्ट आदि के आधार पर हत्या का दोषनिर्णय दिया।
- परंतु सुप्रीम कोर्ट ने इस FIR-स्वीकारात्मक प्रकृति तथा अन्य सुबूतों की कमी को देखते हुए अभियुक्त को रिहा कर दिया।
(२) मुख्य अवलोकन
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा: “An FIR of a confessional nature made by an accused person is inadmissible in evidence against him…”
- इसके बाद अदालत ने स्पष्ट किया कि ऐसे FIR-स्वीकारात्मक को “unless he (accused) testifies at the trial” तक को नहीं माना जा सकता।
- अदालत ने FIR-स्वीकारात्मक के कुछ भागों को “निर्देशात्मक” माना — जैसे कि आरोपी ने रिपोर्ट दर्ज कराई, यह तथ्य धारा 8 के अंतर्गत “conduct” के रूप में देखा जा सकता है।
- लेकिन यह कहा गया कि FIR-स्वीकारात्मक में आधारित मेडिकल/विशेषज्ञ रिपोर्ट को उस स्वीकारात्मक भाग के साथ प्रमाण-सहायता देना उचित नहीं: “A doctor is not a witness of fact. The expert evidence is of advisory character.”
- इस प्रकार, FIR-स्वीकारात्मक पर भरोसा करके दोषनिर्णय देना सुप्रीम कोर्ट ने अमान्य माना।
(३) परिणाम
- FIR-स्वीकारात्मक को प्रमाण-रूप में उपयोग नहीं किया गया, और अभियुक्त को रिहा किया गया।
- सुप्रीम कोर्ट ने इसमें यह संदेश दिया कि अभियुक्त के खिलाफ दोषमुक्ति-फैसले में यदि प्रमाण संपूर्ण नहीं हैं, तो FIR-स्वीकारात्मक को भरोसेमंद सुबूत नहीं मानना चाहिए।
IV. सार एवं सीमाएँ
(अ) सार
- जब अभियुक्त स्वयं FIR दर्ज करता है और उसमें स्व-स्वीकारात्मक बातें करता है, तो वह FIR स्वचालित रूप से सुबूत की तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता।
- ऐसा FIR धारा 25 Evidence Act के प्रावधान से प्रभावित होता है, जो “पुलिस अधिकारी के समक्ष की गई स्व-स्वीकार” को प्रमाण के रूप में नहीं स्वीकारने का प्रावधान है।
- केवल उन भागों को स्वीकार किया जा सकता है जो अभियुक्त के आचरण-तथ्यों (Section 8) या तथ्य-खोज से संबंधित (Section 27) हों।
- विशेषज्ञ-मेडिकल राय, पाचन आदि अकेले बल नहीं: उन्हें स्वीकार करने से पहले अन्य समर्थ सुबूत होने जरूरी हैं।
(ब) सीमाएँ / चुनौतियाँ
- FIR-स्वीकारात्मक और अन्य तथ्यात्मक बयान अक्सर मिश्रित होते हैं; उन्हें “स्वीकारात्मक” तथा “अन्य” में अलग करना व्यावहारिक रूप से जटिल हो सकता है।
- अभियोजन पक्ष के लिए यह चुनौती है कि उपयुक्त सबूत जुटाए जाएँ कि FIR में मात्र स्वीकार नहीं है, बल्कि संबंधित तथ्य-खोज (Section 27) आदि उपलब्ध हों।
- अदालत-न्यायालयों को यह विवेक-रहित निर्णय नहीं करना चाहिए कि FIR-स्वीकारात्मक को पूरी तरह खारिज किया जाए; बल्कि उसे उसकी प्रकृति, पृष्ठभूमि, संलग्नता-स्थिति, पंजीकरण-प्रक्रिया आदि से जाँचा जाना चाहिए।
- इसके अलावा, ऐसे मामलों में प्रतिरक्षा पक्ष (defence) को यह सुनिश्चित करना होगा कि FIR-स्वीकारात्मक का उपयोग केवल विधिसम्मत तरीके से हो और यदि हो रहा हो तो उसे चुनौती देने के लिए उचित दलीलें तैयार हों।
V. व्यावहारिक सुझाव
(१) अभियोजन-दृष्टि से
- FIR-स्वीकारात्मक मिलने पर यह सही मूल्यांकन करें कि उसमें “स्वीकार” किस हद तक है — क्या उसने अपराध स्वीकार किया, या मात्र गवाह-रूप से सूचना दी?
- यदि स्वीकारात्मक हिस्से मौजूद हों, तो अन्य सहायक सुबूत-जैसे गवाह-बयान, पैनचाना, वस्तु-प्राप्ति आदि जुटाने की आवश्यकता अधिक है।
- FIR दर्ज हो जाने के बाद अभियुक्त के क्रियाकलाप-तथ्यों (जैसे हत्या-स्थल-दर्शना, वस्तु-प्रस्तुति) को धारा 8 या 27 के अंतर्गत देखने योग्य बनाएं।
- मेडिकल/विशेषज्ञ रिपोर्ट पर पूरी निर्भरता न रखें; उसे प्रतीक-स्वरूप (advisory) देखें और प्रत्यक्ष/परोक्ष सुबूतों के साथ लिंक करें।
(२) प्रतिरक्षा-दृष्टि से
- FIR-स्वीकारात्मक को छाँटें – स्वीकारात्मक भाग क्या है, अन्य तथ्य क्या हैं; और स्वीकारात्मक भाग को पूरी तरह चुनौती दें कि क्या मान्य रूप से दर्ज हुआ, क्या उत्पीड़न/प्रेरणा-दबाव था।
- धारा 25 की अवकाशता (exclusion) को जोर-शोर से उठाएँ — “पुलिस समक्ष की गई स्व-स्वीकार” आदि।
- यदि FIR-स्वीकारात्मक पर अभियोजन निर्भर है, तो उसे विरोध दें कि पुष्टि/सहयोग-गवाहों की कमी है, तथा स्वीकार-कार्यों के अतिरिक्त कोई वस्तुनिष्ठ सुबूत नहीं।
- अदालत में यह सुनिश्चित करें कि FIR-स्वीकारात्मक का उपयोग केवल धारा 8/27 के अंतर्गत ही संभावित हो, उसे स्वतः दोषनिर्णय-सुबूत न माना जाए।
VI. निष्कर्ष
संक्षिप्त रूप से कहा जाए तो — जब अभियुक्त स्वयं FIR दर्ज कराता है और उसमें स्वीकारात्मक बातें करता है, तब उस FIR को सीधे अभियुक्त के विरुद्ध सुबूत की तरह उपयोग नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात को पुनः पुष्ट किया है कि ऐसी FIR में स्वीकारात्मक हिस्सा धारा 25 Evidence Act द्वारा प्रतिबंधित है, और केवल सीमित-हद तक (जैसे धारा 8 या 27 के अंतर्गत) स्वीकार हो सकती है।
इसलिए, अभियोजन पक्ष को अन्य सुबूतों के सहारे मामला खड़ा करना होगा, और प्रतिरक्षा पक्ष को Vigilant होना चाहिए कि FIR-स्वीकारात्मक को पक्षपाती आधार न बनाने दें। न्यायशास्त्र-दृष्टि से यह निर्णय पर्याप्त-न्याय, सुनवाई-न्याय एवं दोषसिद्धि-प्रमाण की कसौटी को सुदृढ़ करता है।