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सुप्रीम कोर्ट का निर्णय : धारा 118(क) एन.आई. अधिनियम के अंतर्गत विचारधन (Consideration) का अनुमान और प्रतिवादी पर प्रमाण का भार

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय : धारा 118(क) एन.आई. अधिनियम के अंतर्गत विचारधन (Consideration) का अनुमान और प्रतिवादी पर प्रमाण का भार


प्रस्तावना

Negotiable Instruments Act, 1881 (प्रचलित रूप में ‘एन.आई. अधिनियम’) वाणिज्यिक लेन-देन को सरल बनाने और वित्तीय दस्तावेज़ों में विश्वास स्थापित करने हेतु महत्वपूर्ण विधायी प्रावधान है। इस अधिनियम की धारा 118(क) विशेष रूप से यह निर्धारित करती है कि न्यायालय यह अनुमान लगाएगा कि कोई प्रॉमिसरी नोट (Promissory Note) विचारधन (Consideration) के लिए ही बनाया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में दिए गए एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया कि इस अनुमान का खंडन करने का दायित्व प्रतिवादी (Defendant) पर होगा। इस निर्णय में अदालत ने यह भी कहा कि प्रतिवादी को या तो प्रत्यक्ष साक्ष्य प्रस्तुत कर विचारधन के अभाव को सिद्ध करना होगा अथवा परिस्थितियों के आधार पर यह दर्शाना होगा कि विचारधन की संभावना अत्यंत कम, संदिग्ध या अवैध है। प्रस्तुत लेख में हम धारा 118(क), इसके उद्देश्य, न्यायालय द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया, तथा सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का विस्तृत विश्लेषण करेंगे।


धारा 118(क) का उद्देश्य और महत्व

एन.आई. अधिनियम के अंतर्गत विचारधन का अनुमान इसलिए आवश्यक है क्योंकि प्रॉमिसरी नोट, बिल ऑफ एक्सचेंज और चेक जैसी उपकरणों में पक्षकारों के बीच भरोसा और त्वरित लेन-देन को सुनिश्चित करना जरूरी है। यदि हर बार यह सिद्ध करना पड़े कि लेन-देन वास्तविक था और उसके पीछे विचारधन मौजूद था, तो वित्तीय लेन-देन की प्रक्रिया अत्यंत जटिल हो जाएगी। इसलिए कानून ने एक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाते हुए यह प्रावधान किया है कि न्यायालय प्रारंभ में यह मानेगा कि दस्तावेज़ विचारधन के लिए बनाया गया है और प्रतिवादी को इसका खंडन करना होगा।

इस अनुमान से दो मुख्य लाभ होते हैं:

  1. व्यावसायिक लेन-देन में विश्वास – लेन-देन को सहज और सुगम बनाना।
  2. अनावश्यक विवादों की रोकथाम – हर छोटे लेन-देन में प्रमाण जुटाने की आवश्यकता नहीं रहती।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय : मुख्य बिंदु

सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में निम्नलिखित महत्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डाला:

1. अनुमान का स्वरूप

धारा 118(क) के तहत विचारधन का अनुमान एक ‘प्रारंभिक अनुमान’ (Presumptive Burden) है, न कि अंतिम निष्कर्ष। अदालत तब तक मानती है कि विचारधन मौजूद है जब तक प्रतिवादी ऐसा प्रमाण प्रस्तुत न कर दे जो इस अनुमान को अस्वीकार करने के लिए पर्याप्त हो।

2. प्रमाण का भार प्रतिवादी पर

अदालत ने स्पष्ट किया कि प्रॉमिसरी नोट का वादी (Plaintiff) यह सिद्ध करने का प्रारंभिक भार नहीं उठाता कि विचारधन मौजूद है। प्रतिवादी को यह दिखाना होगा कि:

  • विचारधन का अस्तित्व नहीं है; या
  • विचारधन अवैध है; या
  • लेन-देन केवल दिखावा है।

यह भार प्रतिवादी पर इसलिए है क्योंकि दस्तावेज़ स्वयं एक विश्वास योग्य साधन है और इसका उपयोग करने वाला पक्ष सामान्यतः लेन-देन को वैध मानता है।

3. प्रमाण प्रस्तुत करने की विधियाँ

अदालत ने कहा कि प्रतिवादी निम्नलिखित तरीकों से यह सिद्ध कर सकता है:

  • प्रत्यक्ष साक्ष्य – जैसे कोई लिखित अनुबंध या पक्षकारों की स्वीकारोक्ति जिससे स्पष्ट हो कि विचारधन नहीं दिया गया।
  • परिस्थितिजन्य साक्ष्य – जैसे यह दर्शाना कि लेन-देन का उद्देश्य अवैध है, या लेन-देन केवल दिखावे के लिए किया गया है, या दस्तावेज़ का निष्पादन किसी दबाव, धोखाधड़ी या अन्य अनुचित साधनों से किया गया।

4. साक्ष्य का स्तर

सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि प्रतिवादी को “संतोषजनक प्रमाण” प्रस्तुत करना होगा। इसका अर्थ है कि अदालत को यह विश्वास हो जाए कि विचारधन का अस्तित्व असंभव, असत्य या अवैध है। केवल संदेह उत्पन्न करना पर्याप्त नहीं है; तथ्यों और परिस्थितियों की श्रृंखला द्वारा अदालत को विश्वास दिलाना होगा।


विचारधन की अवधारणा

विचारधन का अर्थ है लेन-देन में परस्पर लाभ या प्रतिफल। प्रॉमिसरी नोट में विचारधन के बिना कोई वैधता नहीं होती। विचारधन निम्न रूप में हो सकता है:

  • धन का अग्रिम भुगतान;
  • वस्तु या सेवा की आपूर्ति;
  • किसी वैध दायित्व का निर्वहन;
  • किसी अधिकार का त्याग।

यदि विचारधन अवैध है, जैसे कि प्रतिबंधित वस्तु की खरीद या अपराध से संबंधित लेन-देन, तो अदालत उस लेन-देन को विचारधन रहित मान सकती है।


व्यावहारिक उदाहरण

उदाहरण 1 – वास्तविक लेन-देन

अमित ने रोहित को व्यवसाय के लिए ₹5,00,000 उधार दिए और बदले में एक प्रॉमिसरी नोट लिया। अदालत में यदि रोहित कहे कि विचारधन नहीं दिया गया, तो उसे बैंक लेन-देन, गवाहों या अनुबंध से यह साबित करना होगा कि राशि वास्तव में नहीं दी गई थी।

उदाहरण 2 – अवैध लेन-देन

किसी ने अवैध कारोबार के लिए धन उधार लिया और एक प्रॉमिसरी नोट बनाया। अदालत यह मान सकती है कि विचारधन अवैध होने के कारण लेन-देन विचारधन रहित है। प्रतिवादी को अवैध लेन-देन का प्रमाण प्रस्तुत करना होगा।

उदाहरण 3 – दिखावटी लेन-देन

यदि प्रॉमिसरी नोट केवल कर्ज दिखाने के लिए बनाया गया और वास्तव में कोई लेन-देन नहीं हुआ, तो प्रतिवादी को यह दिखाना होगा कि यह दस्तावेज़ केवल औपचारिकता थी।


सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण – नीतिगत आधार

सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में निम्नलिखित नीति आधारों का उल्लेख किया:

  1. व्यावसायिक सुविधा का संरक्षण – अदालत ने कहा कि यदि हर प्रॉमिसरी नोट में विचारधन का प्रमाण देना अनिवार्य कर दिया जाए तो व्यापार जगत में अनावश्यक बाधाएँ उत्पन्न होंगी।
  2. धोखाधड़ी से संरक्षण – यह प्रावधान केवल प्रारंभिक अनुमान है, अंतिम नहीं। यदि कोई पक्ष धोखाधड़ी करता है तो अदालत तथ्यात्मक आधार पर उसे राहत दे सकती है।
  3. संतुलित दृष्टिकोण – कानून ने विश्वास और न्याय के बीच संतुलन साधा है। वादी को दस्तावेज़ पर भरोसा करने का अधिकार है, लेकिन प्रतिवादी को भी यह अवसर दिया गया है कि वह तथ्यात्मक प्रमाण प्रस्तुत कर सके।

धारा 118(क) का अन्य धाराओं से संबंध

धारा 118(क) अकेले नहीं बल्कि अन्य प्रावधानों के साथ मिलकर काम करती है:

  • धारा 118(ख) – यह बताती है कि एक हस्ताक्षरित दस्तावेज़ वैध माना जाएगा जब तक कि विपरीत सिद्ध न हो।
  • धारा 139 (भारतीय साक्ष्य अधिनियम में) – यह भी इसी तरह का अनुमान बनाती है, जिसमें वादी द्वारा जारी किए गए चेक में विचारधन का अनुमान लगाया जाता है।

इस प्रकार, न्यायालय का दृष्टिकोण निरंतरता प्रदान करता है और विभिन्न प्रावधानों में समरूपता स्थापित करता है।


अदालत की अपेक्षाएँ – प्रतिवादी के लिए मार्गदर्शिका

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से प्रतिवादी के लिए स्पष्ट निर्देश मिलते हैं:

✅ केवल यह कहना कि विचारधन नहीं था, पर्याप्त नहीं।
✅ दस्तावेज़ की प्रक्रिया, लेन-देन की प्रकृति, पक्षकारों के बीच संबंध, बैंक लेन-देन, गवाहों की गवाही आदि प्रस्तुत करना आवश्यक।
✅ यदि लेन-देन अवैध था तो उसके प्रमाण देने होंगे।
✅ परिस्थितिजन्य साक्ष्यों की श्रृंखला अदालत को विश्वास दिलाए कि विचारधन असंभव या संदिग्ध है।
✅ अदालत संदेह से नहीं, बल्कि पर्याप्त प्रमाण से निर्णय करेगी।


निर्णय का प्रभाव

इस निर्णय से निम्नलिखित प्रभाव उत्पन्न होते हैं:

  1. वाणिज्यिक लेन-देन में स्पष्टता – दस्तावेज़ों पर भरोसा बढ़ेगा।
  2. न्यायिक प्रक्रिया में संतुलन – वादी और प्रतिवादी दोनों को उचित अवसर मिलेगा।
  3. धोखाधड़ी के खिलाफ सुरक्षा – न्यायालय केवल प्रमाण के आधार पर लेन-देन को अवैध मान सकता है।
  4. साक्ष्य का महत्व बढ़ेगा – केवल आरोप लगाने से न्याय नहीं मिलेगा।

निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय धारा 118(क) के अंतर्गत विचारधन के अनुमान को स्पष्ट करता है और यह बताता है कि प्रतिवादी को इसका खंडन करने हेतु प्रमाण प्रस्तुत करना अनिवार्य है। यह प्रावधान वाणिज्यिक विश्वास को बनाए रखने के लिए आवश्यक है, किंतु साथ ही न्यायालय को तथ्यपरक आधार पर लेन-देन की वैधता पर विचार करने का अधिकार भी देता है। अदालत ने संतुलित दृष्टिकोण अपनाते हुए यह स्पष्ट किया कि केवल संदेह पर्याप्त नहीं, बल्कि ठोस साक्ष्य और परिस्थितियाँ प्रस्तुत कर यह सिद्ध करना होगा कि विचारधन मौजूद नहीं था, अवैध था या दिखावटी था। इस प्रकार यह निर्णय न केवल विधिक स्पष्टता प्रदान करता है, बल्कि व्यापारिक गतिविधियों को सुरक्षित और पारदर्शी बनाए रखने में भी सहायक है।