शीर्षक: सुप्रीम कोर्ट का निर्णय: “गवाह की आयु नहीं, उसकी समझ मायने रखती है – बच्चे को गवाही से नहीं किया जा सकता वंचित”
🔶 प्रस्तावना:
भारतीय न्याय प्रणाली में साक्ष्य (Evidence) की भूमिका निर्णायक होती है। गवाहों की गवाही अक्सर किसी मामले की सत्यता को उजागर करने में निर्णायक सिद्ध होती है। इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Indian Evidence Act, 1872) के अनुसार गवाह बनने के लिए कोई न्यूनतम आयु निर्धारित नहीं है, और किसी भी बच्चे को केवल उम्र के आधार पर गवाही देने से रोका नहीं जा सकता।
यह फैसला न्यायिक दृष्टिकोण में बाल साक्ष्य (Child Testimony) की प्रासंगिकता को बल देता है और यह स्पष्ट करता है कि आयु नहीं, बल्कि समझ और परिपक्वता ही गवाह बनने के लिए पर्याप्त है।
🔷 मामले की पृष्ठभूमि:
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक आपराधिक मामले में यह सवाल आया कि क्या कम उम्र का बच्चा गवाही देने के योग्य है। याचिकाकर्ता पक्ष ने तर्क दिया कि गवाह बहुत कम उम्र का है, इसलिए उसकी गवाही को अविश्वसनीय माना जाना चाहिए।
इस पर विचार करते हुए न्यायालय ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 118 का विस्तृत विश्लेषण किया और बाल गवाह की वैधानिक मान्यता पर विस्तृत टिप्पणी दी।
🔶 सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी:
न्यायालय ने कहा:
“साक्ष्य अधिनियम की धारा 118 के अनुसार, कोई भी व्यक्ति जो गवाही देने में सक्षम है, न्यायालय के समक्ष गवाही दे सकता है। इसमें कोई आयु सीमा नहीं दी गई है। यदि बच्चा यह समझने में सक्षम है कि उसे क्या कहना है और सच क्या है, तो वह गवाही के लिए पूरी तरह उपयुक्त है।”
न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि:
- बच्चे की मानसिक परिपक्वता,
- उसका घटना को समझने और व्यक्त करने का तरीका,
- और सत्य और असत्य का भेद जानने की समझ – ये सभी पहलू महत्वपूर्ण हैं।
इसलिए केवल आयु के आधार पर किसी बच्चे की गवाही को खारिज नहीं किया जा सकता।
🔷 साक्ष्य अधिनियम की धारा 118 का महत्व:
धारा 118 कहती है:
“हर वह व्यक्ति गवाही देने के योग्य है जिसे न्यायालय यह समझने के योग्य माने कि वह क्या कह रहा है।”
इसका आशय यह है कि:
- बच्चे, मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति, या कोई भी अन्य, यदि घटना की सही समझ और उसे व्यक्त करने की क्षमता रखते हैं, तो वह गवाही देने के लिए पात्र हैं।
🔷 पूर्व के न्यायिक दृष्टांत (Case Laws):
- Ratan Singh v. State of Himachal Pradesh (1997)
- 6 वर्षीय बच्ची की गवाही के आधार पर आरोपी दोषी ठहराया गया था।
- कोर्ट ने माना कि बच्ची की स्पष्ट, सुसंगत और स्वाभाविक गवाही विश्वसनीय थी।
- Dattu Ramrao Sakhare v. State of Maharashtra (1997)
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “यदि बच्चा मानसिक रूप से सक्षम है और न्यायालय को भरोसा है कि वह सच बोल रहा है, तो उसकी गवाही को खारिज नहीं किया जा सकता।”
🔶 बाल गवाह की विश्वसनीयता के कारक:
- घटना को स्पष्टता से बताने की क्षमता
- प्रश्नों के उत्तर में झिझक या भ्रम की अनुपस्थिति
- पूर्व प्रशिक्षण या प्रभावित गवाही का अभाव
- सुसंगतता और तर्कबद्ध उत्तर
न्यायालय का यह भी कर्तव्य होता है कि वह पहले एक प्रारंभिक परीक्षण (voir dire) कर यह सुनिश्चित करे कि बच्चा सच और झूठ में भेद कर सकता है या नहीं।
🔷 इस निर्णय का महत्व:
- ✅ बाल अधिकारों की रक्षा – यह फैसला बच्चों को न्याय में भागीदारी का अधिकार देता है।
- ✅ न्यायिक प्रणाली में समावेशन – केवल आयु के आधार पर किसी को बाहर नहीं किया जा सकता।
- ✅ प्रगतिशील व्याख्या – यह निर्णय यह सिद्ध करता है कि कानून को लचीले और यथार्थपरक तरीके से लागू करना चाहिए।
🔶 निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय न्याय व्यवस्था में बाल गवाहों की भूमिका को सशक्त बनाता है। यह स्पष्ट करता है कि उम्र नहीं, बल्कि समझदारी गवाही की पात्रता का मापदंड है। यदि कोई बच्चा सत्य बोलने की समझ और घटना का सटीक वर्णन करने की क्षमता रखता है, तो उसे न्याय से वंचित नहीं किया जा सकता।
यह फैसला न्याय के लिए एक सशक्त कदम है जो न केवल बच्चों की आवाज़ को मान्यता देता है, बल्कि न्यायालय की दृष्टि को और अधिक मानवीय तथा संवेदनशील बनाता है।