सुप्रीम कोर्ट का “नालसा बनाम भारत संघ (2014)” निर्णय – ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को ‘थर्ड जेंडर’ के रूप में मान्यता देने की ऐतिहासिक पहल

सुप्रीम कोर्ट का “नालसा बनाम भारत संघ (2014)” निर्णय – ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को ‘थर्ड जेंडर’ के रूप में मान्यता देने की ऐतिहासिक पहल

परिचय :
भारतीय समाज में ट्रांसजेंडर समुदाय को सदियों से भेदभाव, अपमान और बहिष्कार का सामना करना पड़ा है। उनकी पहचान, सम्मान और अधिकारों की न तो सामाजिक मान्यता थी और न ही संवैधानिक संरक्षण। ऐसे समय में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 15 अप्रैल 2014 को “राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) बनाम भारत संघ” मामले में ऐतिहासिक निर्णय देते हुए ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को संविधान के तहत ‘थर्ड जेंडर’ (Third Gender) के रूप में मान्यता दी। यह निर्णय मानव गरिमा, समानता और स्वतंत्रता की दिशा में एक युगांतकारी कदम था।


मामले की पृष्ठभूमि :

यह जनहित याचिका राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) द्वारा दायर की गई थी, जिसमें मांग की गई थी कि ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को संविधान में प्रदत्त समान अधिकारों और स्वतंत्रता की गारंटी दी जाए। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को न तो पुरुष माना जाता है, न महिला, जिसके कारण उन्हें कानूनी और सामाजिक रूप से पहचान से वंचित रखा गया है।


मुख्य संवैधानिक प्रश्न :

  1. क्या ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को संविधान के तहत समान अधिकार दिए जा सकते हैं?
  2. क्या उन्हें “थर्ड जेंडर” के रूप में पहचान देने का अधिकार है?
  3. क्या उनके प्रति भेदभाव भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता), अनुच्छेद 15 (भेदभाव का निषेध), अनुच्छेद 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) का उल्लंघन है?

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय :

  1. थर्ड जेंडर की मान्यता :
    सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति भारतीय संविधान के तहत ‘तीसरे लिंग’ के रूप में मान्यता प्राप्त करते हैं। उन्हें केवल पुरुष या महिला की श्रेणी में सीमित नहीं किया जा सकता।
  2. आत्म-पहचान का अधिकार (Right to Self-Identification) :
    व्यक्ति को अपने लिंग की पहचान स्वयं तय करने का मौलिक अधिकार है। चाहे वह पुरुष, महिला या थर्ड जेंडर के रूप में हो। इसके लिए किसी चिकित्सा प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं है।
  3. संवैधानिक संरक्षण :
    ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को भी संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 15 और 16 (लैंगिक पहचान के आधार पर भेदभाव का निषेध), अनुच्छेद 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता), और अनुच्छेद 21 (जीवन और गरिमा का अधिकार) के अंतर्गत पूर्ण सुरक्षा प्राप्त है।
  4. सरकारी जिम्मेदारी :
    सरकार को निर्देश दिए गए कि वह थर्ड जेंडर के लिए आरक्षण, शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सेवाएं, और सामाजिक सुरक्षा योजनाएं लागू करे ताकि वे समाज में गरिमापूर्ण जीवन जी सकें।
  5. भेदभाव का निषेध :
    ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव न केवल अमानवीय है, बल्कि यह संविधान के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है।
  6. मानव गरिमा पर जोर :
    कोर्ट ने कहा कि लिंग पहचान व्यक्तिगत गरिमा और आत्म-सम्मान से जुड़ा विषय है, जिसे कोई भी सरकार या समाज नकार नहीं सकता।

न्यायालय के तर्क और मानवाधिकार सिद्धांत :

  • सुप्रीम कोर्ट ने योजगकर्त्ता (Yogyakarta) सिद्धांतों का हवाला दिया, जो लैंगिक पहचान और यौनिक अभिविन्यास पर आधारित अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों को दर्शाते हैं।
  • यह निर्णय संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार घोषणापत्र (UDHR) और International Covenant on Civil and Political Rights (ICCPR) जैसे अंतरराष्ट्रीय दस्तावेजों के अनुरूप है।

नालसा निर्णय का सामाजिक और कानूनी प्रभाव :

  1. पहचान और गरिमा की प्राप्ति :
    पहली बार ट्रांसजेंडर समुदाय को कानूनी पहचान और मानव गरिमा की संवैधानिक मान्यता मिली।
  2. नीतिगत परिवर्तन की दिशा में प्रेरणा :
    इस निर्णय के बाद कई राज्यों और केंद्र सरकार ने LGBTQ+ नीतियां, शिक्षा और रोजगार में आरक्षण, तथा संवेदनशीलता प्रशिक्षण कार्यक्रम लागू करने की दिशा में कदम उठाए।
  3. लैंगिक विविधता की स्वीकृति :
    यह निर्णय समाज में लैंगिक विविधता और व्यक्तित्व की स्वतंत्रता को मान्यता देता है, जिससे सामाजिक समावेशन और समानता को बल मिला।
  4. ट्रांसजेंडर व्यक्तियों का अधिनियम, 2019 :
    नालसा निर्णय के आधार पर संसद ने वर्ष 2019 में “ट्रांसजेंडर व्यक्तियों का (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम” पारित किया, जो ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकारों की रक्षा और उनके खिलाफ भेदभाव को रोकने हेतु कानूनी ढांचा प्रदान करता है।

निष्कर्ष :

“NALSA बनाम भारत संघ (2014)” का निर्णय भारतीय संवैधानिक इतिहास में एक क्रांतिकारी और परिवर्तनकारी निर्णय है। यह निर्णय न केवल ट्रांसजेंडर समुदाय को कानूनी पहचान प्रदान करता है, बल्कि उनके मौलिक अधिकारों, गरिमा और सामाजिक सम्मान की गारंटी देता है। यह भारतीय न्यायपालिका की संवेदनशीलता, उदारता और समावेशी दृष्टिकोण का प्रतीक है। यह फैसला इस बात का सशक्त उदाहरण है कि न्यायपालिका कैसे हाशिए पर खड़े समुदायों के अधिकारों की रक्षा में एक निर्णायक भूमिका निभा सकती है।