सुप्रीम कोर्ट का कड़ा रुख: रेप मामलों में महिला-विरोधी व विवादित आदेशों पर राष्ट्रीय स्तर की गाइडलाइन तैयार होगी | न्यायपालिका में संवेदनशीलता और पीड़िता-केंद्रित दृष्टिकोण की आवश्यकता पर ऐतिहासिक पहल
भारत में न्यायपालिका को पीड़ित-केन्द्रित दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता पर सुप्रीम कोर्ट लगातार जोर देता रहा है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर कठोर रुख अपनाते हुए देश के कई हाई कोर्ट और निचली अदालतों द्वारा पारित उन विवादित और महिला-विरोधी आदेशों पर कड़ी टिप्पणी की है, जिनमें रेप पीड़िताओं के अधिकार, संवेदनशीलता और सम्मान को दरकिनार किया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि ऐसे आदेश न केवल पीड़ितों को डराते हैं बल्कि कई बार उन्हें शिकायत वापस लेने के लिए मजबूर भी करते हैं। इस गंभीर स्थिति को देखते हुए अब सुप्रीम कोर्ट पूरे देश के हाई कोर्ट्स और निचली अदालतों के लिए एक सुसंगठित, संवेदनशील और व्यापक गाइडलाइन तैयार करने जा रहा है—ताकि यौन अपराधों से जुड़े मामलों में एक समान, न्यायसंगत और पीड़िताओं की गरिमा का सम्मान करने वाला न्यायिक दृष्टिकोण विकसित हो सके।
विवादित आदेशों पर सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी
इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक अत्यधिक विवादित आदेश के खिलाफ दायर चुनौती पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे फैसले न्यायपालिका की संवेदनशीलता पर प्रश्न उठाते हैं। हाई कोर्ट ने कहा था कि—
“नाबालिग लड़की का सीना पकड़ने और पायजामे का नाड़ा तोड़ने की हरकत को रेप की कोशिश मानने के पर्याप्त आधार नहीं हैं।”
यह टिप्पणी व्यापक रूप से आलोचना का विषय बनी थी। बाल पीड़िता के संदर्भ में हाई कोर्ट की इस व्याख्या को न केवल कानून के विरुद्ध माना गया बल्कि पीड़ित की गरिमा के खिलाफ भी। सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर पहले ही रोक लगा दी थी और इस बार भी रोक बरकरार रखते हुए स्पष्ट संकेत दिया कि अब इस तरह के निर्णयों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसी टिप्पणियाँ युवतियों और महिलाओं को न्याय पाने के लिए आगे आने से रोकती हैं। कई बार आरोपी इन टिप्पणियों का दबाव बनाकर समझौते या शिकायत वापस लेने की कोशिश करते हैं। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने इस मसले को सार्वजनिक हित और न्यायिक मर्यादा का मामला मानते हुए स्वतः संज्ञान (suo motu) भी लिया है।
सभी हाई कोर्ट्स के विवादित आदेशों का रिकॉर्ड मांगा गया
सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ी पहल शुरू करते हुए देश के सभी हाई कोर्ट्स से ऐसे सभी आदेशों का संपूर्ण रिकॉर्ड मांगा है जिनमें—
- महिला-विरोधी
- कानूनी रूप से त्रुटिपूर्ण
- असंवेदनशील
- या पीड़ित-शर्मिंदगी (victim shaming) वाली टिप्पणियाँ की गई हों
उद्देश्य यह पता लगाना है कि न्यायपालिका के किस स्तर पर यह समस्या गहरी है और किन मामलों में अदालतें यौन अपराधों के प्रति संवेदनशीलता नहीं दिखा पा रही हैं। सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि ऐसे आदेश भविष्य में न्यायिक प्रशिक्षण, न्यायाधीशों के लिए संवेदनशीलता-उन्मुख कार्यशालाओं और नई गाइडलाइन बनाने में मदद करेंगे।
क्यों जरूरी है ऐसी राष्ट्रीय गाइडलाइन?
यौन अपराधों से जुड़े मामलों में अदालतें कानून की भावना को समझे बिना कई बार ऐसे टिप्पणियाँ करती हैं जो पीड़िता को आहत करती हैं। कुछ वर्षों में कई हाई कोर्ट और निचली अदालतों में ऐसे आदेश दिए गए जिनमें—
- “कपड़े उत्तेजक थे”
- “लड़की ने प्रतिरोध नहीं किया”
- “संभोग की कोशिश को रेप नहीं माना जा सकता”
- “पीड़िता का व्यवहार संदिग्ध है”
- “शादी का वादा टूटना रेप नहीं”
जैसी टिप्पणियाँ दर्ज हैं, जिनकी समाज में आलोचना हुई। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि भारतीय दंड संहिता और POCSO Act जैसे कानूनों की व्याख्या करते समय अदालतों को पीड़िता की गरिमा, संवेदनशीलता और सामाजिक वास्तविकताओं को प्राथमिकता देनी चाहिए।
ऐसी गाइडलाइन बनने से होंगे मुख्य लाभ:
- न्यायालयों में एकरूपता आएगी।
यौन अपराधों से जुड़े मामलों में देश के हर हिस्से में संवेदनशील और समान दृष्टिकोण अपनाया जाएगा। - न्यायिक प्रशिक्षण में सुधार होगा।
भावी और कार्यरत न्यायाधीशों को लैंगिक संवेदनशीलता और कानून के सही उपयोग की ट्रेनिंग दी जाएगी। - पीड़िताओं का हौंसला बढ़ेगा।
न्याय प्रणाली पर विश्वास बढ़ेगा और अधिक महिलाएँ बिना डर के शिकायत दर्ज कर सकेंगी। - असंवेदनशील टिप्पणियाँ नियंत्रित होंगी।
Personal opinion आधारित न्यायिक टिप्पणियाँ जो कानून से मेल नहीं खातीं, उन पर रोक लगेगी।
POCSO और आईपीसी में रेप के प्रयास की कानूनी परिभाषा
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यौन अपराधों, विशेषकर नाबालिगों से संबंधित मामलों में, “रेप का प्रयास” केवल शारीरिक घावों या अंतिम निष्पादन से नहीं आंका जा सकता। IPC के तहत यदि आरोपी ने—
- पीड़िता के शरीर के संवेदनशील अंगों को छुआ
- कपड़े उतारने की कोशिश की
- यौन कृत्य की तैयारी की
- या ऐसा वातावरण बनाया जो पीड़िता की इच्छा के विरुद्ध था
तो यह ‘attempt to rape’ में शामिल हो सकता है। POCSO Act में तो मानक और भी कठोर हैं, जहां पीड़िता नाबालिग होने के कारण कोई भी यौन संकेतक हरकत अपने-आप में गंभीर अपराध मानी जाती है।
इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा की गई टिप्पणी कानून की इसी भावना के विरुद्ध थी।
सुप्रीम कोर्ट की पहल: पीड़िता की गरिमा का संवैधानिक संरक्षण
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार शामिल है। यौन उत्पीड़न और दुष्कर्म की पीड़िताओं के लिए यह अधिकार और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले निर्णयों में कहा है कि—
- न्यायपालिका को “Victim Centric Approach” अपनानी चाहिए।
- अदालतों में पीड़ित को शर्मिंदा करने, उसके चरित्र का मूल्यांकन करने या उसके कपड़ों/व्यवहार की आलोचना करने की अनुमति नहीं है।
- न्यायिक प्रणाली को महिलाओं की सुरक्षा और गरिमा की गारंटी देनी चाहिए।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने “विवाहित होने पर रेप नहीं हो सकता” जैसे तर्कों को भी खारिज करते हुए कहा था कि विवाह किसी महिला के सम्मान या शरीर पर ‘License to Sexual Act’ नहीं देता।
अतीत में भी ऐसे विवादित आदेश—लंबी सूची
बीते कुछ वर्षों में कई ऐसे आदेश सामने आए, जैसे—
- “लड़की ने प्रतिरोध नहीं किया इसलिए सहमति मानी जाएगी”
- “पीड़िता आरोपी से प्रेम करती थी”
- “आरोपी को पीड़िता से राखी बंधवाने का आदेश”
- “लड़की का कपड़ा छोटा था इसलिए घटना हो गई”
सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी ऐसे आदेशों को गलत बताते हुए रद्द किया था। लेकिन अब पहली बार सर्वोच्च न्यायालय ऐसे आदेशों के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक हस्तक्षेप करने जा रहा है।
समाज पर असर: न्यायपालिका में विश्वास की परीक्षा
यौन अपराधों से जुड़े मामलों में विवादित आदेशों का समाज पर सीधा प्रभाव पड़ता है।
ऐसी टिप्पणियाँ—
- पीड़िताओं को असुरक्षित महसूस कराती हैं
- समाज को गलत संदेश देती हैं
- पुरुष सत्तावादी मानसिकता को बढ़ावा देती हैं
- न्याय की प्रक्रिया को कमजोर करती हैं
सुप्रीम कोर्ट की नई पहल से उम्मीद है कि न्यायिक प्रणाली में पीड़िताओं के अधिकारों का संरक्षण और अधिक मजबूत होगा।
भविष्य की दिशा: सुप्रीम कोर्ट की संभावित गाइडलाइन में क्या होगा?
यद्यपि अंतिम गाइडलाइन अभी तैयार नहीं हुई है, पर विशेषज्ञों का मानना है कि इसमें निम्न बिंदु शामिल हो सकते हैं—
1. यौन अपराधों पर टिप्पणी करते समय भाषा की मर्यादा
न्यायाधीश ‘कपड़े’, ‘व्यवहार’, ‘चरित्र’ जैसी असंगत बातों का उल्लेख नहीं कर सकेंगे।
2. POCSO और IPC की व्याख्या में पीड़िता की गरिमा सर्वोपरि
नाबालिग पीड़िताओं से जुड़े मामलों में ‘consent’ की अवधारणा लागू नहीं होगी।
3. संवेदनशीलता प्रशिक्षण अनिवार्य
जजों और न्यायिक अधिकारियों के लिए gender sensitization workshops अनिवार्य की जा सकती हैं।
4. निर्णयों का ऑडिट
किसी भी अदालत के विवादित आदेश पर स्वतः संज्ञान लेकर उसे उच्च स्तर पर जांचा जा सकेगा।
5. पीड़िता की पहचान और भावनात्मक स्थिति का सम्मान
मुकदमे की कार्रवाई के दौरान उसकी पहचान, गरिमा, और मानसिक स्थिति का संरक्षण।
निष्कर्ष: न्यायपालिका में बदलाव का समय
सुप्रीम कोर्ट की इस सख्त पहल से यह स्पष्ट हो गया है कि अब देश की सबसे बड़ी अदालत महिला-विरोधी, असंवेदनशील और कानून-विरुद्ध आदेशों को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं है।
यह कदम न केवल वर्तमान न्यायिक प्रणाली को अधिक संवेदनशील बनाने की दिशा में ऐतिहासिक साबित होगा, बल्कि यह हजारों पीड़िताओं को न्याय पाने की नई उम्मीद भी देगा।
यदि सर्वोच्च न्यायालय व्यापक गाइडलाइन तैयार करता है, तो यह देश में यौन अपराधों के मामलों के निपटान के तरीके में क्रांतिकारी सुधार लाएगा। कानून की सही व्याख्या, पीड़ित की गरिमा का सम्मान और संवेदनशील न्यायिक प्रक्रिया—इन्हीं तीन स्तंभों पर भविष्य की न्याय प्रणाली टिकेगी।