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“सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: अब पूरी सीमावधि अवधि का औचित्य देना होगा, न कि केवल बाद की देरी का”

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय — लिमिटेशन एक्ट, 1963 की धारा 5 की नयी व्याख्या: “Within Such Period” का वास्तविक अर्थ और ‘Sufficient Cause’ की सीमा

(Shivamma (Dead) by LRs v. Karnataka Housing Board & Ors., Appeal No. 11794 of 2025, Supreme Court of India, Judgment dated 12 September 2025)


🔹 प्रस्तावना

भारतीय न्याय प्रणाली में “Law of Limitation” यानी सीमावधि का कानून एक ऐसा मौलिक सिद्धांत है, जो यह सुनिश्चित करता है कि मुकदमे समय पर दायर हों और न्यायिक प्रक्रिया में अनिश्चितता न बनी रहे।
लिमिटेशन एक्ट, 1963 की धारा 5 इस व्यवस्था को संतुलित करती है — यह न्यायालय को यह अधिकार देती है कि यदि किसी अपील या आवेदन में देरी हुई है, तो “पर्याप्त कारण” (sufficient cause) सिद्ध होने पर न्यायालय देरी को माफ कर सकता है।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने Shivamma बनाम Karnataka Housing Board (2025) के मामले में एक महत्वपूर्ण व्याख्या प्रस्तुत की है, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि धारा 5 के अंतर्गत “within such period” शब्दों का वास्तविक दायरा क्या है और “sufficient cause” का मूल्यांकन कैसे किया जाना चाहिए। यह फैसला पुराने न्यायिक दृष्टिकोण को पलट देता है और सीमावधि कानून की व्याख्या को नया आयाम देता है।


🔹 मामले की पृष्ठभूमि

इस मामले की जड़ें 1971 तक जाती हैं। उस वर्ष एक विभाजन (Partition) वाद दायर किया गया था।

  • ट्रायल कोर्ट ने वाद पर निर्णय दिया, जिसके विरुद्ध अपील दायर की गई।
  • 2006 में प्रथम अपीलीय न्यायालय (First Appellate Court) ने अपील स्वीकार कर ली और वादी (शिवम्मा) के पक्ष में फैसला सुनाया
    इसमें प्रतिवादी कर्नाटक हाउसिंग बोर्ड को मुआवज़ा देने का आदेश दिया गया।
  • निर्णय के बाद 2011 में वादी पक्ष ने डिक्री के क्रियान्वयन (execution) की कार्यवाही प्रारंभ की।
  • लेकिन प्रतिवादी (Housing Board) ने 2017 में, यानी 3966 दिन (लगभग 11 वर्ष) की देरी से दूसरी अपील (Second Appeal) दाखिल की, साथ ही विलंब माफी का आवेदन भी प्रस्तुत किया।
  • कर्नाटक हाईकोर्ट ने इस देरी को माफ करते हुए अपील स्वीकार कर ली।

वादी (अब मृतक शिवम्मा की कानूनी प्रतिनिधि) ने इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।


🔹 सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुख्य प्रश्न

  1. लिमिटेशन एक्ट, 1963 की धारा 5 में प्रयुक्त शब्द “within such period” का आरंभ कब होता है?
  2. ‘Sufficient Cause’ की व्याख्या कैसे की जानी चाहिए? क्या प्रशासनिक लापरवाही (official negligence) एक पर्याप्त कारण है?

🔹 सुप्रीम कोर्ट का निर्णय (12 सितंबर 2025)

सुप्रीम कोर्ट ने अपील को स्वीकार किया, और कर्नाटक हाईकोर्ट का आदेश रद्द कर दिया (set aside)
न्यायालय ने विस्तार से यह स्पष्ट किया कि —


🔸 1. “Within Such Period” कब आरंभ होता है

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि —

“It commences with the prescribed period of limitation.”

अर्थात्, “within such period” की गणना सीमावधि की निर्धारित अवधि के आरंभ से ही होती है।

इसका अर्थ यह है कि जब कोई व्यक्ति या संस्था अपील या आवेदन दाखिल करती है, तो उसे पूरी अवधि — यानी सीमावधि प्रारंभ होने से लेकर वास्तविक दायर करने की तारीख तक — का समुचित हिसाब देना होता है।

केवल अंतिम कुछ दिनों की देरी का स्पष्टीकरण पर्याप्त नहीं है।


🔹 न्यायालय की व्याख्या

  • धारा 5 में प्रयुक्त शब्द “such” दो वाक्यांशों से जुड़ा है —
    1. “for not preferring the appeal or making the application”
    2. “after the prescribed period”
  • पहला वाक्यांश संकेत करता है कि अपील न करने या आवेदन न करने की विफलता या त्रुटि कहाँ हुई।
  • दूसरा वाक्यांश इंगित करता है कि अपील वास्तव में कब दायर की गई — यानी सीमावधि समाप्त होने के बाद

इस प्रकार, “within such period” का अर्थ है — वह मूल अवधि जिसमें अपील दायर की जानी चाहिए थी, और जिसके पश्चात हुई देरी के लिए पूरा विवरण अपेक्षित है।


🔹 पूर्व निर्णयों का पलटना

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि —

“This overturns previous rulings that only required an explanation for the delay that occurred after the limitation period had already ended.”

अर्थात्, इससे पहले जिन फैसलों में कहा गया था कि केवल सीमावधि समाप्त होने के बाद की देरी का स्पष्टीकरण पर्याप्त है, वे अब सही नहीं माने जाएंगे।
अब संपूर्ण अवधि — शुरू से लेकर फाइलिंग की तारीख तक — का औचित्य प्रस्तुत करना आवश्यक है।


🔸 2. “Sufficient Cause” का निर्धारण कैसे किया जाए

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘पर्याप्त कारण’ का निर्धारण न्यायिक विवेक (judicial discretion) और न्यायिक व्याख्या (judicial interpretation) से किया जाना चाहिए।

इसके लिए न्यायालय दो चरणों में परीक्षण (two-pronged inquiry) करता है —

  1. पहला चरण: यह देखना कि क्या वास्तव में कोई पर्याप्त कारण मौजूद है जिसने देरी को उत्पन्न किया।
  2. दूसरा चरण: यदि कारण पर्याप्त है, तो न्यायालय अपने विवेक का प्रयोग करते हुए तय करेगा कि क्या इस आधार पर देरी माफ की जानी चाहिए या नहीं।

🔹 पर्याप्त कारण के निर्धारण में विचारणीय बिंदु

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि प्रत्येक मामला अपनी परिस्थितियों पर निर्भर करेगा, परंतु निम्नलिखित कारकों पर विचार किया जाएगा —

  • आवेदक का आचरण (conduct)
  • परिस्थितियाँ क्या अपरिहार्य थीं? (unavoidable circumstances)
  • क्या कोई सद्भावनापूर्ण भूल (bona fide mistake) थी?
  • क्या लापरवाही (negligence) हुई?
  • क्या विरोधी पक्ष को इस देरी से नुकसान या prejudice हुआ?

🔹 प्रशासनिक लापरवाही “Sufficient Cause” नहीं

सुप्रीम कोर्ट ने सख्ती से कहा कि —

“Administrative lethargy and laxity can never stand as a sufficient ground for condonation of delay.”

यानी, किसी सरकारी या प्रशासनिक विभाग के कर्मचारियों की सुस्ती, फाइलों का इधर-उधर होना, या अधिकारियों की निष्क्रियता को कभी भी ‘पर्याप्त कारण’ नहीं माना जा सकता।

यह न्यायिक प्रक्रिया की विश्वसनीयता और सीमावधि कानून की भावना के विपरीत है।


🔹 न्यायालय की टिप्पणियाँ

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी दोहराया कि —

“The law of limitation is founded on public policy. A person ought not to be allowed to agitate his claim after a long delay.”

इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि मुकदमे समयबद्ध रूप से दाखिल हों और कोई भी पक्ष अनिश्चित काल तक न्यायिक प्रक्रिया को लंबा न करे।


🔹 परिणाम

इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि —

  • कर्नाटक हाईकोर्ट ने 3966 दिनों की देरी को माफ करते समय धारा 5 की व्याख्या में त्रुटि की थी,
  • और उसने “within such period” शब्दों की भावना को अनदेखा किया था।
  • पाँच अधिकारियों की लापरवाही को “sufficient cause” नहीं कहा जा सकता।

अतः, सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का आदेश रद्द कर दिया और अपीलकर्ता (शिवम्मा के कानूनी प्रतिनिधि) के पक्ष में निर्णय दिया।


🔹 निष्कर्ष

यह फैसला न केवल धारा 5 की व्याख्या को नया रूप देता है, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया की अनुशासनात्मक भावना को भी सुदृढ़ करता है।
अब कोई भी पक्ष, चाहे वह व्यक्ति हो या सरकारी संस्था, “देरी” के लिए सम्पूर्ण अवधि का औचित्य प्रस्तुत करने के लिए बाध्य होगा

Shivamma बनाम Karnataka Housing Board (2025) के इस निर्णय से यह स्पष्ट संदेश जाता है कि —

“न्याय समयबद्धता के बिना अधूरा है, और विलंब का औचित्य बिना ‘सच्चे कारण’ के स्वीकार्य नहीं।”


🔹 प्रमुख न्यायिक सिद्धांत जो इस निर्णय से स्थापित हुए

  1. “Within such period” का आरंभ सीमावधि की मूल अवधि से होता है।
  2. पूर्ण अवधि — आरंभ से लेकर फाइलिंग तक — का औचित्य प्रस्तुत करना आवश्यक है।
  3. Administrative delay या अधिकारियों की लापरवाही को sufficient cause नहीं माना जाएगा।
  4. न्यायिक विवेक और सावधानीपूर्ण मूल्यांकन आवश्यक है।
  5. सीमावधि का कानून लोकनीति (public policy) पर आधारित है — अनिश्चितता से बचाव के लिए।