सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: अब बिना कोर्ट की अनुमति नई FIR में गिरफ्तारी नहीं!
Wazid & Ors. vs State of Uttar Pradesh & Ors. (W.P. (Crl.) No. 450/2024, निर्णय तिथि: 22 अगस्त 2025)
मुख्य न्यायाधीश एवं न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ का महत्वपूर्ण निर्णय
भारत के न्यायिक इतिहास में कुछ फैसले ऐसे होते हैं जो न केवल तत्कालीन परिस्थितियों को बदलते हैं, बल्कि भविष्य की कानूनी व्यवस्था की दिशा भी निर्धारित करते हैं। 22 अगस्त 2025 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय — “अब बिना कोर्ट की अनुमति नई FIR में गिरफ्तारी नहीं” — ऐसा ही एक ऐतिहासिक निर्णय है। यह फैसला नागरिक स्वतंत्रता, व्यक्तिगत आज़ादी और पुलिस की शक्ति के दुरुपयोग पर न्यायपालिका की मजबूत निगरानी को स्थापित करता है।
यह निर्णय Wazid & Ors. vs State of Uttar Pradesh & Ors. मामले में दिया गया, जिसने बार-बार एक ही व्यक्ति के विरुद्ध कई FIR दर्ज कर गिरफ्तारी की दुरुप्रेरित प्रवृत्ति पर निर्णायक प्रहार किया है।
1. पृष्ठभूमि: इस मामले की उत्पत्ति कैसे हुई?
उत्तर प्रदेश के वाजिद और उनके सह-याचियों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा तब खटखटाया जब उनके खिलाफ अलग-अलग थानों में कई FIR दर्ज की जाने लगीं। उनका आरोप था कि—
- वे पहले से एक केस में जमानत पर थे,
- लेकिन पुलिस उन्हें परेशान करने के उद्देश्य से नए मामलों में बार-बार FIR दर्ज करती रही,
- और हर बार गिरफ्तारी की तलवार उन पर लटकती रहती थी।
इससे न केवल उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्रभावित हो रही थी, बल्कि आर्टिकल 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) का सीधा उल्लंघन हो रहा था।
याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि—
- राज्य पुलिस “मल्टीपल FIR सिस्टम” का इस्तेमाल उत्पीड़न के हथियार की तरह करती है।
- जब किसी व्यक्ति को कोर्ट से राहत मिल जाती है, तो उसी घटना को अलग धाराओं में तोड़कर नई FIR दर्ज कर ली जाती है।
- इससे जमानत आदेश का प्रभाव अप्रासंगिक हो जाता है।
यही प्रश्न सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ के सामने था — क्या पुलिस को असीमित शक्ति देकर किसी भी व्यक्ति को अनंत समय तक गिरफ्तारी के भय में रखा जा सकता है?
2. मुख्य मुद्दा: बार-बार FIR और गिरफ्तारी — क्या यह संविधान संगत है?
न्यायालय के सामने तीन महत्वपूर्ण प्रश्न थे:
(1) क्या पहले से जमानत पाए व्यक्ति को नई FIR के आधार पर तुरंत गिरफ्तार किया जा सकता है?
(2) क्या एक ही घटना या समान परिस्थितियों में बहु-FIR दर्ज करना संविधान के अनुरूप है?
(3) क्या पुलिस को नए केस में कार्रवाई हेतु कोर्ट की अनुमति आवश्यक होनी चाहिए?
इन बिंदुओं पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि—
“गिरफ्तारी पुलिस की स्वेच्छा नहीं, बल्कि कानून द्वारा नियंत्रित एक शक्ति है।”
और इस शक्ति का दुरुपयोग मानव अधिकारों पर सीधा आघात है।
3. सुप्रीम कोर्ट का फैसला: एक ऐतिहासिक न्यायिक कवच
मुख्य न्यायाधीश और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने स्पष्ट और कड़ा निर्णय देते हुए कहा—
“अगर किसी व्यक्ति के विरुद्ध पहले से कोई केस लंबित है और वह जमानत पर है, तो नई FIR में पुलिस उसे तब तक गिरफ्तार नहीं कर सकती जब तक संबंधित कोर्ट से अनुमति न ले ले।”
यह फैसला किन परिस्थितियों में लागू होगा?
- यदि आरोपी पहले से किसी केस में जमानत पर है।
- यदि नया मामला उसी व्यक्ति के खिलाफ दर्ज किया गया हो।
- यदि पुलिस को नई FIR में गिरफ्तारी करनी हो।
- ऐसी गिरफ्तारी तभी संभव होगी जब—
- पुलिस कोर्ट को नई FIR की प्रति दे,
- गिरफ्तारी की आवश्यकता का कारण बताए,
- कोर्ट से विशेष अनुमति (Leave of Court) प्राप्त करे।
सुप्रीम कोर्ट के अनुसार गिरफ्तारी अब “Exceptional” होगी, Routine नहीं
अदालत ने कहा—
“पुलिस द्वारा गिरफ्तारी कोई औपचारिकता नहीं हो सकती। यह नागरिक की स्वतंत्रता पर गंभीर प्रहार है, जिसे केवल असाधारण परिस्थितियों में ही लागू किया जा सकता है।”
4. निर्णय के पीछे सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक तर्कव्यवस्था
(1) आर्टिकल 21 — जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा—
व्यक्ति को डर की स्थिति में रखकर बार-बार गिरफ्तारी की धमकी देना उसकी स्वतंत्रता का उल्लंघन है।
(2) आर्टिकल 14 — समानता का अधिकार
किसी व्यक्ति को बार-बार धमकाने हेतु कई FIR दर्ज करना
“इक्विटी एंड फेयरनेस” की संवैधानिक कसौटी पर खरा नहीं उतरता।
(3) आर्टिकल 22 — गिरफ्तारी से सुरक्षा
कानून कहता है कि गिरफ्तारी उचित, न्यायोचित और आवश्यक होनी चाहिए।
अन्यथा यह मनमानी कहलाती है।
(4) पुलिस का दुरुपयोग रोकना
सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की—
“देश में लॉ एंड ऑर्डर पुलिस की ताकत पर नहीं, न्यायिक नियंत्रण पर आधारित होना चाहिए।”
5. कैसे निर्णय पुलिस, न्यायालय और नागरिकों को प्रभावित करेगा?
(1) पुलिस पर तात्कालिक प्रभाव
- पुलिस अब किसी आरोपी को डराने या दबाव बनाने हेतु नई FIR दर्ज कर तुरंत गिरफ्तार नहीं कर सकेगी।
- हर गिरफ्तारी पर न्यायिक निगरानी होगी।
- विवेचना स्वतंत्र रहेगी, पर गिरफ्तारी सीमित होगी।
(2) न्यायालय की भूमिका बढ़ेगी
- कोर्ट को जांचना होगा कि गिरफ्तारी वास्तव में आवश्यक है या नहीं।
- कोर्ट आरोपी की जमानत, पिछले केस, परिस्थितियों और नई FIR की प्रासंगिकता को देखेगा।
(3) नागरिकों की स्वतंत्रता को नया सुरक्षा कवच
- मनमानी गिरफ्तारियों पर लगाम लगेगी।
- राजनीतिक, प्रशासनिक या व्यक्तिगत प्रतिशोध में होने वाली FIR पर रोक लगेगी।
- एक ही व्यक्ति को बार-बार परेशान करने की प्रवृत्ति समाप्त होगी।
6. यह फैसला किन मामलों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण?
राजनीतिक कार्यकर्ता
सरकार विरोधी गतिविधियों में अक्सर कई FIR दायर की जाती हैं। अब बिना कोर्ट अनुमति गिरफ्तारी संभव नहीं।
सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार
पुलिस द्वारा उत्पीड़न की संभावनाएं सीमित होंगी।
व्यापारिक विवाद
इंडस्ट्री में FIR का इस्तेमाल ब्लैकमेलिंग के लिए होता है, उस पर नियंत्रण आएगा।
पारिवारिक विवाद, जमीन विवाद
एक पक्ष दूसरे पक्ष को हर स्तर पर परेशान करने के लिए अनेक FIR दर्ज करता है—अब रोक लगेगी।
7. सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस के लिए क्या दिशानिर्देश (Guidelines) जारी किए?
(1) नई FIR की सूचना कोर्ट को अनिवार्य रूप से देनी होगी।
(2) सुविधा के अनुसार आरोपी को भी इसकी जानकारी मिलनी चाहिए।
(3) कोर्ट यह जांच करेगा कि नई FIR पूर्व मामलों से संबंधित है या बिल्कुल अलग।
(4) यदि दोनों FIR में तथ्य समान पाए गए, तो पुलिस को गिरफ्तारी का न्यायोचित कारण देना होगा।
(5) कोर्ट अनुमति के बिना गिरफ्तारी अवैध मानी जाएगी।
(6) गिरफ्तारी की अनुमति केवल तब ही दी जाएगी जब—
- आरोपी सबूत प्रभावित कर सकता हो,
- गवाहों को धमका सकता हो,
- फरार होने की संभावना हो,
- अपराध अत्यंत गंभीर हो।
8. क्या इससे जांच प्रभावित होगी?
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया—
“निर्णय का उद्देश्य जांच को बाधित करना नहीं, बल्कि मनमानी गिरफ्तारी रोकना है।”
- पुलिस चाहे तो विवेचना जारी रख सकती है।
- नोटिस भेज सकती है।
- बयान ले सकती है।
- लेकिन गिरफ्तारी नहीं कर सकती जब तक कोर्ट अनुमति न दे।
यह संतुलन नागरिक आज़ादी और राज्य की शक्ति के बीच न्यायसंगत सामंजस्य स्थापित करता है।
9. निर्णय के आलोचनात्मक पहलू
यद्यपि यह फैसला नागरिक अधिकारों के लिए क्रांतिकारी है, फिर भी कुछ आलोचनात्मक बिंदु उभरते हैं—
बड़ी संख्या में मामलों के कारण कोर्ट पर भार बढ़ सकता है।
हर नई FIR में अनुमति प्रक्रिया लंबी हो सकती है।
गंभीर अपराधों में गिरफ्तारी में देरी हो सकती है।
हालाँकि कोर्ट ने “असाधारण मामलों” में तत्काल अनुमति देने का अधिकार सुरक्षित रखा है।
10. निष्कर्ष: एक संवैधानिक मील का पत्थर
Wazid & Ors. vs State of Uttar Pradesh का यह निर्णय भारतीय लोकतंत्र में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को मजबूत करने वाले स्तंभों में से एक है।
यह फैसला संदेश देता है—
“राज्य शक्तिशाली है, पर व्यक्ति की स्वतंत्रता उससे अधिक महत्वपूर्ण है।”
इस निर्णय ने न केवल पुलिस की मनमानी पर अंकुश लगाया है, बल्कि—
- संविधान के मूलभूत अधिकारों की रक्षा की,
- जमानत के सिद्धांत को सार्थक बनाया,
- नागरिकों को न्यायिक सुरक्षा चक्र प्रदान किया।
यह स्पष्ट है कि यह फैसला भविष्य में ऐसे सभी मामलों का मार्गदर्शन करेगा जहाँ पुलिस की असीमित शक्तियों और नागरिक अधिकारों के बीच टकराव उत्पन्न होगा।