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सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय – अमान्य विक्रय विलेख (Void Sale Deed) से संबंधित वादों पर 12 वर्ष की सीमा अवधि लागू”

“Shanti Devi (Since Deceased) Through LRs. Goran v. Jagan Devi & Ors.: सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय – अमान्य विक्रय विलेख (Void Sale Deed) से संबंधित वादों पर 12 वर्ष की सीमा अवधि लागू”


प्रस्तावना (Introduction)

भारत में अचल संपत्ति (immovable property) से संबंधित विवाद सदैव न्यायिक प्रणाली के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में से एक रहे हैं। विशेषकर जब किसी व्यक्ति की संपत्ति का स्वामित्व (ownership) और उस पर अधिकार (possession) विवादित हो जाता है, तब यह प्रश्न अत्यंत महत्त्वपूर्ण बन जाता है कि कौन-सी सीमा अवधि (limitation period) उस मुकदमे पर लागू होगी।

इसी संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने “Shanti Devi (Since Deceased) Through LRs. Goran vs. Jagan Devi & Ors.” मामले में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया है, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि जब किसी व्यक्ति द्वारा अचल संपत्ति के कब्जे (possession) के लिए यह कहा जाए कि प्रतिवादी (defendant) का विक्रय विलेख (sale deed) अमान्य (void) है, तो ऐसे मामलों में Article 65 of the Limitation Act, 1963 के तहत 12 वर्ष की सीमा अवधि लागू होगी, न कि Article 59 के तहत तीन वर्ष की।

यह निर्णय भारतीय संपत्ति कानून और सीमा अधिनियम (Limitation Act) की व्याख्या में अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह उन स्थितियों को स्पष्ट करता है जब कोई व्यक्ति यह दावा करता है कि दूसरे का विक्रय विलेख पूरी तरह शून्य (void ab initio) है।


मामले की पृष्ठभूमि (Background of the Case)

इस मामले में मूल वादी शांति देवी, जो अब मृत हैं, उनकी कानूनी प्रतिनिधि (legal representatives) गोरन ने मुकदमा दायर किया था। वादी का दावा था कि प्रतिवादी जगन देवी और अन्य ने उनकी संपत्ति का एक हिस्सा एक अवैध और अमान्य विक्रय विलेख (void sale deed) के माध्यम से अपने नाम कर लिया है।

वादी का यह कहना था कि संबंधित विक्रय विलेख शून्य (void) है क्योंकि:

  1. विक्रेताओं के पास उस संपत्ति को बेचने का अधिकार ही नहीं था, और
  2. विक्रय विलेख धोखाधड़ीपूर्ण और विधि-विरुद्ध था।

वादी ने अदालत से यह राहत मांगी कि—

  • उक्त विक्रय विलेख को अमान्य घोषित किया जाए, और
  • संपत्ति का वास्तविक कब्जा (possession) उसे वापस दिया जाए।

प्रतिवादी पक्ष का तर्क था कि मुकदमा समय सीमा से बाहर (barred by limitation) है, क्योंकि Limitation Act, 1963 की Article 59 के अनुसार जब कोई व्यक्ति किसी विलेख को रद्द (set aside) करने की मांग करता है, तो मुकदमा 3 वर्षों के भीतर दाखिल किया जाना चाहिए।


विवाद का मूल प्रश्न (Core Legal Issue)

इस मामले में मुख्य प्रश्न यह था:

जब कोई व्यक्ति यह दावा करता है कि प्रतिवादी का विक्रय विलेख शून्य (void) है और वह संपत्ति का कब्जा मांगता है, तो क्या उस पर 3 वर्ष की सीमा अवधि (Article 59) लागू होगी या 12 वर्ष की सीमा अवधि (Article 65)?

दूसरे शब्दों में —
क्या वादी को यह सिद्ध करना होगा कि वह विलेख को रद्द (cancel) करवाना चाहता है, या यह कि विलेख प्रारंभ से ही शून्य (void ab initio) है?


प्रासंगिक विधिक प्रावधान (Relevant Legal Provisions)

1. Article 59 – Limitation Act, 1963

जब कोई व्यक्ति किसी दस्तावेज़ को रद्द (set aside) करवाने की मांग करता है, तो सीमा अवधि तीन वर्ष होती है।
यह अवधि उस दिन से प्रारंभ होती है जब वादी को यह ज्ञात हो जाता है कि वह दस्तावेज़ उसके अधिकारों के विरुद्ध है।

2. Article 65 – Limitation Act, 1963

जब कोई व्यक्ति अचल संपत्ति के कब्जे (possession) के लिए दावा करता है, तो सीमा अवधि 12 वर्ष होती है।
यह अवधि उस दिन से प्रारंभ होती है जब प्रतिवादी ने उसका कब्जा अवैध रूप से ग्रहण (adverse possession) किया हो।


निचली अदालतों के निर्णय (Decisions of Lower Courts)

  1. निचली अदालत (Trial Court):
    निचली अदालत ने कहा कि मुकदमा समय सीमा से बाहर है क्योंकि वादी को विक्रय विलेख की जानकारी बहुत पहले थी और उन्होंने 3 वर्ष की अवधि में मुकदमा दायर नहीं किया। इसलिए यह Article 59 के अंतर्गत आता है।
  2. अपील अदालत (First Appellate Court):
    अपील अदालत ने भी निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा और कहा कि चूंकि वादी को विलेख के अस्तित्व का पता था, तो उसे उसी समय तीन वर्ष की अवधि में कार्यवाही करनी चाहिए थी।
  3. हाई कोर्ट:
    हाई कोर्ट ने भी वही दृष्टिकोण अपनाया और कहा कि चूंकि वादी ने विलेख को रद्द करने की मांग की है, इसलिए यह Article 59 के अंतर्गत आता है।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय (Supreme Court’s Judgment)

सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने इस मामले में वादी के पक्ष में निर्णय दिया और निचली अदालतों के सभी आदेशों को रद्द कर दिया।

न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि—

“यदि किसी व्यक्ति का यह कहना है कि कोई विक्रय विलेख पूर्णतः शून्य (void ab initio) है, तो उसे उस विलेख को रद्द (cancel) करवाने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे मामलों में मुकदमा ‘कब्जा प्राप्त करने’ (possession) के लिए होता है, और इस पर Article 65 – 12 वर्ष की सीमा अवधि लागू होगी।”


सुप्रीम कोर्ट की विस्तृत व्याख्या (Court’s Reasoning in Detail)

  1. Void और Voidable विलेख में अंतर:
    कोर्ट ने कहा कि ‘शून्य (void)’ विलेख और ‘रद्दयोग्य (voidable)’ विलेख में स्पष्ट अंतर होता है।

    • यदि कोई विलेख void है, तो वह प्रारंभ से ही विधिक प्रभावहीन (ineffective) होता है।
    • जबकि voidable विलेख तब तक प्रभावी रहता है जब तक उसे न्यायालय द्वारा रद्द न किया जाए।
  2. Article 59 केवल Voidable Deeds पर लागू:
    कोर्ट ने कहा कि Article 59 केवल उन मामलों में लागू होता है जहाँ वादी को विलेख रद्द करवाना होता है (voidable cases)।
    लेकिन यदि वादी कहता है कि विलेख शून्य (void) है, तो उसे रद्द करवाने की आवश्यकता नहीं होती, और वह केवल कब्जा पुनः प्राप्त करने का दावा कर सकता है।
  3. Possession-Based Claims पर Article 65 लागू:
    जहाँ विवाद संपत्ति के कब्जे (possession) से संबंधित है, वहाँ 12 वर्ष की सीमा अवधि लागू होगी, चाहे विक्रय विलेख 10, 15 या 20 वर्ष पहले ही क्यों न बना हो।
  4. न्यायिक दृष्टांतों (Precedents) का संदर्भ:
    सुप्रीम कोर्ट ने अपने पुराने निर्णयों —

    • Prem Singh v. Birbal (2006) 5 SCC 353
    • Dharmarajan v. Valliammal (2020)
    • Khatri Hotels Pvt. Ltd. v. Union of India (2011) 9 SCC 126
      का हवाला दिया, जिनमें समान सिद्धांत अपनाया गया था कि void deeds से जुड़े मुकदमों पर Article 65 लागू होता है।

महत्वपूर्ण कानूनी सिद्धांत (Key Legal Principles Laid Down)

विषय सुप्रीम कोर्ट का निष्कर्ष
विलेख की प्रकृति यदि विलेख void है, तो वह विधिक रूप से अस्तित्वहीन है।
लागू अनुच्छेद ऐसे मुकदमों पर Article 65 (12 वर्ष) लागू होगा।
वादी की जिम्मेदारी वादी को यह दिखाना होगा कि उसका कब्जा प्रतिवादी द्वारा अवैध रूप से लिया गया।
Article 59 का उपयोग केवल voidable deeds के मामलों में लागू होगा।
मुकदमे का उद्देश्य कब्जा पुनः प्राप्त करना, न कि विलेख को रद्द करवाना।

निर्णय का प्रभाव (Impact of the Judgment)

  1. संपत्ति विवादों में स्पष्टता:
    यह निर्णय यह तय करता है कि जब कोई व्यक्ति कहता है कि दूसरा व्यक्ति उसकी संपत्ति पर अवैध रूप से काबिज है और उसका विलेख शून्य (void) है, तो मुकदमे की सीमा अवधि 12 वर्ष होगी।
  2. वाद की प्रकृति तय करने में मार्गदर्शन:
    अब अदालतें यह तय कर सकेंगी कि कोई वाद Article 59 के अंतर्गत आता है या Article 65 के।
  3. न्यायिक प्रक्रिया में स्थिरता:
    इससे न्यायालयों में limitation disputes के कारण जो मुकदमे प्रारंभिक स्तर पर ही खारिज हो जाते थे, उनमें स्थिरता आएगी।
  4. संपत्ति स्वामियों को राहत:
    जिनके अधिकार अवैध रूप से छीने गए हैं, उन्हें अब यह स्पष्ट अधिकार मिल गया है कि वे 12 वर्ष के भीतर कभी भी अपना कब्जा पुनः प्राप्त करने का दावा कर सकते हैं, यदि उनका मामला void sale deed से संबंधित है।

विश्लेषणात्मक टिप्पणी (Analytical Commentary)

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय एक बार फिर यह रेखांकित करता है कि Limitation Act की व्याख्या मात्र तकनीकी आधार पर नहीं, बल्कि वास्तविक न्यायिक उद्देश्य (substantive justice) के आधार पर की जानी चाहिए।

यदि कोई विलेख शून्य (void) है, तो वह प्रारंभ से ही अस्तित्वहीन है — उसे रद्द करवाने की कोई आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार वादी का अधिकार उस दिन से प्रभावित होता है जब उसका कब्जा प्रतिवादी द्वारा लिया गया, और वही दिन सीमा अवधि की गणना का प्रारंभिक बिंदु होगा।

यह निर्णय संपत्ति विवादों में न्यायिक स्पष्टता और न्यायिक विवेक दोनों को बढ़ावा देता है।


निष्कर्ष (Conclusion)

Shanti Devi (Since Deceased) Through LRs. Goran vs. Jagan Devi & Ors. का निर्णय भारतीय संपत्ति कानून और सीमा अधिनियम की व्याख्या में एक मील का पत्थर (landmark judgment) है।

सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि जब किसी व्यक्ति का दावा इस आधार पर हो कि प्रतिवादी का विक्रय विलेख शून्य और अमान्य (void ab initio) है, तो उस पर Article 65 के अंतर्गत 12 वर्ष की सीमा अवधि लागू होगी।

इस प्रकार यह फैसला उन हजारों संपत्ति विवादों के लिए एक महत्वपूर्ण मार्गदर्शक (guiding precedent) बन गया है जहाँ वादी यह कहते हैं कि उनके अधिकार किसी अवैध विक्रय विलेख के माध्यम से छीने गए हैं।


मुख्य उद्धरण (Key Quotation from the Judgment):

“A suit instituted for possession of immovable property on the ground that the defendant’s sale deed is void is governed by Article 65 of the Limitation Act, 1963 — and not by Article 59.”
Supreme Court of India, Shanti Devi (Since Deceased) Through LRs. Goran v. Jagan Devi & Ors.