शीर्षक: “सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: आदिवासी महिलाओं को भी मिला पुरुषों के समान उत्तराधिकार का अधिकार”
परिचय
भारतीय संविधान समानता, न्याय और मानव गरिमा के मूल सिद्धांतों पर आधारित है। लेकिन कई बार यह देखा गया है कि सामाजिक और धार्मिक परंपराओं के नाम पर महिलाओं — विशेषकर आदिवासी समुदायों की महिलाओं — को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित रखा गया। हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय में यह स्पष्ट किया कि आदिवासी महिलाओं को भी अपने पैतृक संपत्ति में पुरुषों के समान उत्तराधिकार (inheritance) का अधिकार है। यह फैसला महिला सशक्तिकरण, लैंगिक समानता और संवैधानिक न्याय के क्षेत्र में एक मील का पत्थर है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला झारखंड की एक आदिवासी महिला से संबंधित था, जिसने अपने पैतृक संपत्ति में बराबरी का हिस्सा मांगा था। पारंपरिक आदिवासी customary कानूनों के अनुसार, महिलाओं को भूमि या संपत्ति में उत्तराधिकार का अधिकार नहीं दिया जाता था। इस आधार पर निचली अदालतों ने महिला के दावे को खारिज कर दिया। अंततः यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, जहां कोर्ट को यह तय करना था कि क्या संविधान द्वारा प्रदत्त लैंगिक समानता का अधिकार आदिवासी महिलाओं पर भी लागू होता है।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यह कहते हुए महिला के पक्ष में निर्णय दिया:
“महिलाएं केवल पुनरुत्पादन का माध्यम नहीं हैं, बल्कि वे स्वतंत्र अस्तित्व रखने वाले नागरिक हैं। आदिवासी महिलाएं भी भारतीय नागरिक हैं और उन्हें समानता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।“
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि:
- अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और
- अनुच्छेद 15 (लैंगिक भेदभाव का निषेध)
इन दोनों के अंतर्गत आदिवासी महिलाओं को भी उतने ही अधिकार मिलते हैं जितने देश के अन्य नागरिकों को।
साथ ही, न्यायालय ने यह भी कहा कि परंपरागत customary कानून संविधान के ऊपर नहीं हो सकते। यदि कोई परंपरा या प्रथा किसी महिला के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है, तो वह असंवैधानिक मानी जाएगी।
महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ
न्यायालय ने निर्णय में यह भी कहा:
- “लिंग आधारित भेदभाव समाज में गहरी जड़ें जमा चुका है, जिसे कानूनी संरक्षण नहीं मिल सकता।”
- “किसी भी महिला को उसकी जाति, जनजाति, धर्म या समुदाय के आधार पर संविधान से प्राप्त अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता।”
- “समाज में परिवर्तन न्यायालयों के प्रगतिशील दृष्टिकोण से ही संभव है।”
इस फैसले का व्यापक प्रभाव
यह निर्णय केवल एक महिला को न्याय देने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके दूरगामी परिणाम होंगे:
- आदिवासी समाज में लैंगिक समानता को बढ़ावा
यह निर्णय आदिवासी समाज में महिलाओं की स्थिति को सशक्त करेगा, जहां अब तक उन्हें पारंपरिक रीति-रिवाजों के नाम पर संपत्ति से बाहर रखा जाता था। - पुनः परिभाषित होंगे Customary Laws
इस फैसले से यह स्पष्ट हो गया है कि यदि कोई customary practice मौलिक अधिकारों के विरुद्ध है, तो उसे बदलना होगा। - कानूनी मिसाल (Judicial Precedent)
यह निर्णय अन्य उच्च न्यायालयों और निचली अदालतों के लिए एक मिसाल बनेगा, जब वे किसी महिला के अधिकार से जुड़े विवाद को हल करेंगे।
न्यायिक दृष्टिकोण और समानता का संदेश
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने यह दिखा दिया कि संविधान की आत्मा केवल कागजों में नहीं बल्कि न्यायिक निर्णयों के माध्यम से जीवित रहती है। इस फैसले ने यह सुनिश्चित किया कि न्याय केवल बहुसंख्यकों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि समाज के सबसे हाशिए पर रहने वालों तक पहुंचेगा — विशेषकर आदिवासी महिलाएं, जो वर्षों से संपत्ति के अधिकार से वंचित थीं।
निष्कर्ष
यह निर्णय एक संवैधानिक क्रांति के समान है, जो समाज में व्याप्त लैंगिक असमानता और परंपरागत भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में एक ठोस कदम है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला महिलाओं के अधिकारों, आदिवासी समुदाय की संवैधानिक स्थिति और न्याय के मूल सिद्धांतों की जीत है। यह न केवल वर्तमान पीढ़ी के लिए बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक नई दिशा तय करता है।