सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला: 33 वर्षीय व्यक्ति से जबरन शादी करने वाली नाबालिग को दी गई सुरक्षा, कहा – ‘उसे अपनी मर्जी से जीने का अधिकार है’

सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला: 33 वर्षीय व्यक्ति से जबरन शादी करने वाली नाबालिग को दी गई सुरक्षा, कहा – ‘उसे अपनी मर्जी से जीने का अधिकार है’


🔷 भूमिका:

भारत में बाल विवाह आज भी सामाजिक सच्चाई बना हुआ है, विशेषकर ग्रामीण और पारंपरिक समुदायों में। यह समस्या तब और गंभीर हो जाती है जब किसी नाबालिग लड़की को जबरन एक वयस्क व्यक्ति से विवाह के लिए मजबूर किया जाए, और उसकी आवाज दबा दी जाए।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक और संवेदनशील मामले में हस्तक्षेप करते हुए, 33 वर्षीय व्यक्ति से जबरन विवाह करने वाली नाबालिग लड़की को न केवल सुरक्षा देने का आदेश दिया, बल्कि उसके जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को प्राथमिकता दी।


🔷 मामले की पृष्ठभूमि:

  • पीड़िता एक 17 वर्षीय नाबालिग लड़की है।
  • उसके परिजनों ने उसका विवाह 33 वर्षीय एक पुरुष से जबरदस्ती करवा दिया, जो उम्र में उससे लगभग दोगुना बड़ा था।
  • लड़की इस विवाह से खुश नहीं थी और अपने पति के पास रहने से इंकार कर चुकी थी।
  • वह खुद को असुरक्षित महसूस कर रही थी और न्याय की गुहार लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंची।

🔷 याचिका और मांग:

  • लड़की ने सुप्रीम कोर्ट में रिट याचिका दाखिल की।
  • उसने दावा किया कि उसका विवाह जबरन करवाया गया और वह अब उस व्यक्ति के साथ नहीं रहना चाहती।
  • साथ ही, उसने पारिवारिक दबाव और सामाजिक उत्पीड़न से बचाव के लिए सुरक्षा की मांग की।
  • उसने यह भी कहा कि उसे अपनी पढ़ाई जारी रखनी है और स्वतंत्र जीवन जीना है।

🔷 सुप्रीम कोर्ट का फैसला:

🏛️ मुख्य निर्देश:

  1. लड़की को तत्काल सुरक्षा प्रदान की जाए – संबंधित राज्य सरकार को निर्देश दिए गए कि लड़की की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए।
  2. स्वतंत्रता का अधिकार सर्वोपरि – कोर्ट ने कहा कि “हर व्यक्ति को अपनी मर्जी से जीवन जीने का अधिकार है, और यह अधिकार नाबालिगों को भी उतना ही प्राप्त है।”
  3. नाबालिग के मत की मान्यता – कोर्ट ने माना कि भले ही वह विवाह कानून की दृष्टि से नाबालिग हो, परंतु उसकी इच्छा और असहमति को नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
  4. विवाह की वैधता जांच के अधीन – अदालत ने यह भी संकेत दिया कि इस प्रकार का विवाह भारतीय बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 के तहत अवैध और रद्द किया जा सकता है।

🔷 कानूनी पहलू:

1. बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 (Prohibition of Child Marriage Act):

  • भारत में लड़कियों के लिए न्यूनतम विवाह आयु 18 वर्ष निर्धारित है।
  • इससे कम उम्र में किया गया विवाह अवैध, शून्यकरणीय और आपराधिक कृत्य है।
  • माता-पिता या संरक्षक यदि जानबूझकर इस विवाह को करवाते हैं, तो उन्हें सजा का प्रावधान है।

2. भारतीय दंड संहिता (IPC):

  • यदि कोई वयस्क व्यक्ति किसी नाबालिग से विवाह करता है या शारीरिक संबंध बनाता है, तो वह यौन अपराधों से बच्चों की सुरक्षा (POCSO) अधिनियम के तहत अपराध माना जाता है।

3. संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन:

  • जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार – किसी को भी उसकी इच्छा के विरुद्ध विवाह, संबंध या जीवनशैली थोपना मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।

🔷 इस फैसले का व्यापक महत्व:

  1. 🔸 नाबालिगों की इच्छा का सम्मान:
    यह फैसला बताता है कि अदालतें अब केवल उम्र के आंकड़ों पर नहीं, व्यक्ति की मानसिक स्वतंत्रता और भावना को भी महत्व देती हैं।
  2. 🔸 बाल विवाह की सामाजिक चुनौती पर करारा प्रहार:
    यह फैसला सामाजिक प्रथा की आड़ में हो रहे बाल शोषण पर सीधा प्रहार करता है।
  3. 🔸 महिला अधिकारों की सशक्त सुरक्षा:
    सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि स्त्री, चाहे वह बालिग हो या नाबालिग, उसकी सहमति सर्वोपरि है।
  4. 🔸 राज्य की जिम्मेदारी तय:
    राज्य को स्पष्ट रूप से कहा गया कि वह लड़की की सुरक्षा, पुनर्वास और शिक्षा सुनिश्चित करे।

🔷 निष्कर्ष:

यह निर्णय एक बार फिर से यह सिद्ध करता है कि भारतीय संविधान और सर्वोच्च न्यायालय, कमजोर वर्गों — विशेषकर लड़कियों — की गरिमा और अधिकारों की रक्षा के लिए कटिबद्ध हैं। जब कोई लड़की कहती है कि वह “अपनी मर्जी से जीना चाहती है”, तो यह केवल शब्द नहीं, बल्कि एक क्रांतिकारी सामाजिक बदलाव की पुकार होती है।

सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश न केवल न्याय की जीत है, बल्कि लाखों बेटियों के लिए एक संदेश है — कि संविधान उनके साथ है।