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सुप्रीम कोर्ट करेगा महत्वपूर्ण परीक्षण — क्या NCLAT की दो-सदस्यीय पीठ विभाजित निर्णय आने पर मामला तीसरे सदस्य को भेज सकती है?

सुप्रीम कोर्ट करेगा महत्वपूर्ण परीक्षण — क्या NCLAT की दो-सदस्यीय पीठ विभाजित निर्णय आने पर मामला तीसरे सदस्य को भेज सकती है?

भारत का सर्वोच्च न्यायालय एक अत्यंत महत्वपूर्ण संवैधानिक और संस्थागत प्रश्न पर विचार करने जा रहा है। यह प्रश्न सीधे तौर पर देश के प्रमुख कॉरपोरेट न्यायिक मंच — राष्ट्रीय कंपनी विधि अपीलीय न्यायाधिकरण (National Company Law Appellate Tribunal – NCLAT) — की शक्तियों और कार्यप्रणाली से जुड़ा हुआ है।

सुप्रीम कोर्ट यह तय करेगा कि क्या NCLAT की दो-सदस्यीय पीठ (Two-Member Bench) जब किसी मामले में विभाजित निर्णय (Split Verdict) देती है, तो क्या उसे अधिकार है कि वह मामला किसी तीसरे सदस्य (Third Member) के पास अंतिम निर्णय के लिए भेज सके?

यह मामला न केवल कंपनी कानून (Company Law) बल्कि न्यायिक संस्थानों के आंतरिक कार्यप्रणाली के सिद्धांतों से भी संबंधित है। इस पर आने वाला सुप्रीम कोर्ट का निर्णय भविष्य में कॉरपोरेट विवादों के निपटारे की प्रक्रिया पर गहरा प्रभाव डाल सकता है।


🔹 NCLAT क्या है और इसकी भूमिका क्या है?

राष्ट्रीय कंपनी विधि अपीलीय न्यायाधिकरण (NCLAT) एक अर्ध-न्यायिक संस्था (quasi-judicial body) है जो राष्ट्रीय कंपनी विधि न्यायाधिकरण (NCLT) के आदेशों के विरुद्ध अपील सुनती है।

NCLT मुख्य रूप से कंपनी कानून, दिवाला एवं दिवालियापन संहिता (Insolvency and Bankruptcy Code – IBC), और अन्य कॉरपोरेट विवादों से संबंधित मामलों की सुनवाई करता है। जब कोई पक्ष NCLT के आदेश से असंतुष्ट होता है, तो वह NCLAT में अपील कर सकता है।

NCLAT की पीठ सामान्यतः दो या अधिक सदस्यों से मिलकर बनती है — एक न्यायिक सदस्य (Judicial Member) और एक तकनीकी सदस्य (Technical Member)। दोनों सदस्य मामले पर सुनवाई के बाद एक संयुक्त निर्णय देते हैं।


🔹 विवाद की जड़: जब निर्णय ‘विभाजित’ हो जाए

कई बार ऐसा होता है कि दो-सदस्यीय पीठ के दोनों सदस्य विभिन्न राय (Difference of Opinion) रखते हैं — अर्थात् एक सदस्य अपील को स्वीकार करता है जबकि दूसरा सदस्य उसे खारिज करने के पक्ष में होता है।

ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि निर्णय का अंतिम परिणाम क्या होगा?
क्या ऐसी स्थिति में मामला किसी तीसरे सदस्य (Third Member) को भेजा जा सकता है ताकि वह निर्णायक राय दे सके, या फिर पूरा मामला पुनः बड़ी पीठ (Larger Bench) के समक्ष जाना चाहिए?

यही वह मूल प्रश्न है जिस पर अब सुप्रीम कोर्ट ने ध्यान केंद्रित किया है।


🔹 सुप्रीम कोर्ट में मामला कैसे पहुँचा?

यह मामला एक कॉरपोरेट विवाद से उत्पन्न हुआ था, जिसमें NCLAT की दो-सदस्यीय पीठ ने सुनवाई के बाद विभाजित निर्णय दिया।
एक सदस्य कंपनी के पक्ष में था, जबकि दूसरा सदस्य उसके खिलाफ।

ऐसी स्थिति में, NCLAT ने मामला अपने चेयरपर्सन के पास भेज दिया ताकि वह किसी तीसरे सदस्य को नियुक्त करें जो अंतिम निर्णय दे सके।
लेकिन इस निर्णय को चुनौती देते हुए कहा गया कि NCLAT के नियमों या कंपनी अधिनियम, 2013 में ऐसा कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है जो दो-सदस्यीय पीठ को यह अधिकार देता हो कि वह विभाजित निर्णय की स्थिति में मामला किसी तीसरे सदस्य को भेज सके।

इस विवाद ने न्यायिक बहस को जन्म दिया, और अंततः यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गया।


🔹 सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण

सुप्रीम कोर्ट ने यह स्वीकार किया कि यह मामला केवल एक साधारण तकनीकी प्रश्न नहीं है, बल्कि यह NCLAT की संवैधानिक वैधता और संरचनात्मक अधिकार क्षेत्र से जुड़ा हुआ प्रश्न है।

मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा —

“जब एक अर्ध-न्यायिक संस्था दो सदस्यीय पीठ के माध्यम से कार्य करती है और उस पीठ के दोनों सदस्य भिन्न राय देते हैं, तो न्यायिक संतुलन बनाए रखना आवश्यक है। हमें यह देखना होगा कि क्या इस स्थिति में संस्था के पास तीसरे सदस्य को संदर्भित करने की शक्ति विधि द्वारा प्रदत्त है या नहीं।”

अदालत ने कहा कि यह प्रश्न न्यायिक अनुशासन (Judicial Discipline) और संवैधानिक सिद्धांतों के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे यह तय होगा कि न्यायिक संस्थानों में समानता और पारदर्शिता कैसे सुनिश्चित की जा सकती है।


🔹 कानूनी प्रावधानों की स्थिति

कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 410 से 424 तक के प्रावधानों में NCLT और NCLAT की स्थापना, अधिकार क्षेत्र और प्रक्रिया का वर्णन है।

हालाँकि, इनमें “विभाजित निर्णय” (Split Verdict) की स्थिति से निपटने का कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं दिया गया है।
इसलिए, NCLAT ने अपने आंतरिक नियमों और पिछले न्यायिक उदाहरणों के आधार पर “तीसरे सदस्य” की व्यवस्था अपनाई थी।

लेकिन इस व्यवस्था की वैधता पर अब प्रश्नचिह्न लग गया है — क्या यह व्यवस्था केवल न्यायिक परंपरा (Judicial Practice) है या इसके पीछे कोई वैधानिक आधार (Statutory Basis) भी है?


🔹 अन्य न्यायाधिकरणों में क्या व्यवस्था है?

भारत के अन्य कई अर्ध-न्यायिक मंचों जैसे —

  • राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT),
  • आयकर अपीलीय अधिकरण (ITAT),
  • केन्द्रीय प्रशासनिक अधिकरण (CAT)
    में स्पष्ट प्रावधान है कि यदि दो सदस्यों के मत भिन्न हों, तो मामला तीसरे सदस्य को भेजा जा सकता है।

किन्तु, कंपनी अधिनियम में ऐसा स्पष्ट प्रावधान नहीं होने के कारण, NCLAT के मामले में यह एक ग्रे एरिया (Grey Area) बन गया है।


🔹 विशेषज्ञों की राय

कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट का यह परीक्षण कॉरपोरेट न्याय प्रणाली की पारदर्शिता और दक्षता के लिए एक मील का पत्थर साबित हो सकता है।

वरिष्ठ अधिवक्ता ने कहा —

“यदि सुप्रीम कोर्ट यह कहता है कि दो-सदस्यीय पीठ को तीसरे सदस्य को संदर्भित करने का अधिकार नहीं है, तो भविष्य में हर विभाजित मामले के लिए बड़ी पीठ गठित करनी होगी, जिससे न्यायिक प्रक्रिया लंबी हो सकती है।”

दूसरी ओर, कुछ विशेषज्ञों का मत है कि —

“तीसरे सदस्य की नियुक्ति के लिए स्पष्ट वैधानिक प्रावधान आवश्यक है। अन्यथा, न्यायिक संस्थान अपनी सीमाओं से परे जाकर कार्य करने लगेंगे, जो कानून के शासन के लिए उचित नहीं है।”


🔹 संभावित प्रभाव

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का असर केवल NCLAT तक सीमित नहीं रहेगा।
यह फैसला देश के सभी अर्ध-न्यायिक मंचों (Tribunals) के कार्य प्रणाली पर मिसाल कायम करेगा।

यदि अदालत यह कहती है कि तीसरे सदस्य को मामला भेजना वैध नहीं है, तो भविष्य में NCLAT को अपने निर्णयों के लिए बड़ी पीठों (Larger Benches) की आवश्यकता पड़ेगी।
इससे मामलों के निपटारे में विलंब (Delay) की संभावना बढ़ जाएगी।

वहीं, यदि सुप्रीम कोर्ट तीसरे सदस्य के संदर्भ को वैध (Valid) ठहराता है, तो इससे न्यायिक दक्षता (Judicial Efficiency) और व्यावहारिक संतुलन दोनों को बल मिलेगा।


🔹 न्यायिक संस्थानों में संतुलन का सिद्धांत

सुप्रीम कोर्ट का यह परीक्षण इस व्यापक सिद्धांत से भी जुड़ा है कि न्यायिक संस्थानों में सामूहिक निर्णय (Collegial Decision-Making) की प्रक्रिया पारदर्शी और संतुलित रहनी चाहिए।

विभाजित निर्णय की स्थिति में, न्यायिक परंपरा कहती है कि “minority view” पर विचार करते हुए किसी तटस्थ सदस्य की राय ली जा सकती है ताकि न्यायिक संतुलन बना रहे।

लेकिन जब यह प्रक्रिया किसी कानून में स्पष्ट रूप से नहीं दी गई हो, तब अदालत का यह दायित्व बन जाता है कि वह इस संवैधानिक शून्य (Constitutional Vacuum) को भरने के लिए दिशा-निर्देश दे।


🔹 सुप्रीम कोर्ट के सामने प्रश्न

सुप्रीम कोर्ट को अब निम्नलिखित प्रमुख प्रश्नों पर निर्णय देना है—

  1. क्या NCLAT को अपने आंतरिक नियमों के आधार पर तीसरे सदस्य को मामला भेजने का अधिकार है?
  2. यदि नहीं, तो क्या कंपनी अधिनियम में संशोधन की आवश्यकता है ताकि इस व्यवस्था को वैधानिक मान्यता दी जा सके?
  3. विभाजित निर्णय की स्थिति में अंतिम निर्णय का स्वरूप क्या होगा — क्या ‘Status Quo’ बना रहेगा या नए सिरे से सुनवाई होगी?

🔹 निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह परीक्षण कॉरपोरेट न्याय प्रणाली में एक नए अध्याय की शुरुआत करेगा।
यह निर्णय तय करेगा कि न्यायिक प्रक्रिया में वैधानिक प्राधिकार और व्यावहारिक सुविधा के बीच संतुलन कैसे बनाए रखा जाए।

यदि सुप्रीम कोर्ट यह मान लेता है कि NCLAT को तीसरे सदस्य को मामला भेजने का अधिकार है, तो यह निर्णय न्यायिक संस्थानों के स्वायत्तता को मजबूत करेगा।
परंतु, यदि अदालत इसे असंवैधानिक मानती है, तो यह संदेश जाएगा कि विधायिका (Legislature) को ऐसे मुद्दों पर स्पष्ट प्रावधान करने चाहिए ताकि न्यायिक भ्रम की स्थिति न बने।


अंतिम विचार:
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न केवल एक संस्थागत प्रश्न का उत्तर देगा बल्कि यह भी तय करेगा कि न्यायपालिका की सीमाएँ और शक्तियाँ किस प्रकार से परिभाषित की जानी चाहिए।
यह मामला भारतीय न्यायिक व्यवस्था के लिए एक महत्वपूर्ण संवैधानिक मिसाल (Constitutional Precedent) बनने जा रहा है, जो आने वाले वर्षों तक कंपनी कानून और अपीलीय प्रक्रिया दोनों की दिशा तय करेगा।