“सीबीआई जांच के लिए राज्य की सहमति का अभाव”— संज्ञान लिए जाने के बाद यह आपत्ति स्वीकार्य नहीं सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय
प्रस्तावना
भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। भ्रष्टाचार, संगठित अपराध, गंभीर आर्थिक अपराध तथा अंतर्राज्यीय प्रभाव वाले मामलों में सीबीआई को जांच का दायित्व सौंपा जाता है। किंतु सीबीआई जांच को लेकर एक संवैधानिक प्रश्न लंबे समय से विवाद का विषय रहा है—
क्या बिना राज्य सरकार की सहमति के सीबीआई किसी मामले की जांच कर सकती है?
इसी संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए स्पष्ट किया कि—
यदि सीबीआई न्यायालय द्वारा संज्ञान (Cognizance) लिया जा चुका है,
तो उसके बाद राज्य की सहमति के अभाव का तर्क उठाया जाना स्वीकार्य नहीं है।
यह निर्णय न केवल प्रक्रिया संबंधी कानून को स्पष्ट करता है, बल्कि संघीय ढांचे, जांच एजेंसियों की शक्तियों और आपराधिक न्याय के सुचारु संचालन से जुड़े कई महत्वपूर्ण प्रश्नों का समाधान भी करता है।
सीबीआई जांच और राज्य की सहमति: कानूनी पृष्ठभूमि
1. दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 (DSPE Act)
सीबीआई की स्थापना और शक्तियाँ दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 से संचालित होती हैं।
इस अधिनियम की—
- धारा 6 के अनुसार,
किसी राज्य में सीबीआई द्वारा जांच करने के लिए
राज्य सरकार की सहमति (Consent) आवश्यक होती है।
यही प्रावधान समय-समय पर विवाद का केंद्र बनता रहा है।
2. सहमति का प्रकार
राज्य सरकारें प्रायः दो प्रकार की सहमति देती हैं—
- सामान्य सहमति (General Consent)
– जिससे सीबीआई को राज्य में स्वतः जांच करने की अनुमति मिल जाती है। - विशेष सहमति (Case-specific Consent)
– किसी विशेष मामले के लिए दी जाती है।
कई राज्यों द्वारा सामान्य सहमति वापस लिए जाने के बाद
सीबीआई जांच को लेकर संवैधानिक बहस और तेज हो गई।
विवाद का मुख्य प्रश्न
इस मामले में प्रमुख प्रश्न यह था कि—
यदि सीबीआई द्वारा जांच की जा चुकी हो,
चार्जशीट दाखिल हो चुकी हो
और सीबीआई न्यायालय द्वारा संज्ञान ले लिया गया हो,
तो क्या उस अवस्था में यह कहा जा सकता है कि
राज्य की सहमति नहीं थी, इसलिए पूरी कार्यवाही अवैध है?
सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट उत्तर
सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रश्न का नकारात्मक उत्तर देते हुए कहा कि—
सीबीआई न्यायालय द्वारा संज्ञान लिए जाने के बाद
राज्य की सहमति के अभाव की दलील
अब नहीं उठाई जा सकती।
अदालत के अनुसार—
- यह आपत्ति प्रारंभिक चरण में ही उठाई जानी चाहिए थी,
- न कि तब, जब न्यायिक प्रक्रिया काफी आगे बढ़ चुकी हो।
निर्णय का तर्क और न्यायालय की reasoning
1. संज्ञान (Cognizance) का महत्व
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि—
- संज्ञान लेना एक न्यायिक कार्य है,
- जिसके बाद मामला पूरी तरह से
न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आ जाता है।
जब एक सक्षम न्यायालय—
- आरोपों की सामग्री पर विचार कर,
- विधिवत संज्ञान ले लेता है,
तो जांच की प्रारंभिक वैधता पर
बाद में प्रश्न उठाना
न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग माना जाएगा।
2. प्रक्रिया में देरी और दुरुपयोग की रोकथाम
अदालत ने यह भी कहा कि—
- यदि इस प्रकार की आपत्तियाँ
संज्ञान के बाद स्वीकार की जाएँ,
तो—- अभियुक्त केवल तकनीकी आधार पर
मुकदमे को लटकाने का प्रयास करेंगे, - और न्याय के उद्देश्य को क्षति पहुँचेगी।
- अभियुक्त केवल तकनीकी आधार पर
न्यायालय ने दो टूक कहा—
कानून का उद्देश्य न्याय सुनिश्चित करना है,
न कि तकनीकी खामियों के आधार पर
दोषियों को बचने का अवसर देना।
3. सहमति का प्रश्न: प्रक्रिया संबंधी, न कि अधिकार क्षेत्र का
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि—
- राज्य की सहमति का प्रश्न
प्रक्रियात्मक (Procedural) है, - न कि न्यायालय के अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction) से जुड़ा हुआ।
अतः—
- एक बार जब सक्षम न्यायालय ने
संज्ञान ले लिया, - तो पूरी कार्यवाही केवल इस आधार पर
शून्य नहीं ठहराई जा सकती
कि प्रारंभ में सहमति नहीं ली गई थी।
संघीय ढांचे और इस निर्णय का संतुलन
यह निर्णय इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि—
- यह संघीय ढांचे और
न्यायिक नियंत्रण के बीच संतुलन स्थापित करता है।
एक ओर—
- राज्य सरकारों के अधिकारों को मान्यता दी गई है,
दूसरी ओर— - यह सुनिश्चित किया गया है कि
आपराधिक न्याय प्रक्रिया
तकनीकी आपत्तियों में न उलझ जाए।
सीबीआई मामलों पर इस निर्णय का प्रभाव
1. लंबित मामलों पर असर
इस निर्णय के बाद—
- ऐसे मामलों में
जहाँ सीबीआई न्यायालय संज्ञान ले चुका है, - अभियुक्त अब यह तर्क नहीं दे सकेंगे कि— राज्य की सहमति नहीं थी, इसलिए पूरी जांच अवैध है।
2. जांच एजेंसियों को स्पष्टता
यह फैसला—
- सीबीआई जैसी केंद्रीय एजेंसियों को
प्रक्रिया संबंधी स्पष्टता प्रदान करता है, - और अनावश्यक मुकदमेबाजी को कम करता है।
3. अभियुक्तों की रणनीति पर अंकुश
अब—
- अभियुक्त देर से उठाई गई तकनीकी आपत्तियों के सहारे
मुकदमे को पटरी से उतारने का प्रयास नहीं कर पाएंगे।
पूर्व के न्यायिक दृष्टांतों से सामंजस्य
सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस निर्णय में
पूर्व के कई फैसलों की भावना को दोहराया है,
जिनमें यह कहा गया था कि—
- प्रक्रियात्मक त्रुटियाँ,
यदि न्याय को प्रभावित नहीं करतीं,
तो वे पूरी कार्यवाही को शून्य नहीं बनातीं।
यह निर्णय
“Substance over Form”
अर्थात्
रूप से अधिक तत्व
के सिद्धांत को मजबूत करता है।
आलोचनात्मक दृष्टिकोण
हालाँकि कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि—
- इससे राज्यों की सहमति की संवैधानिक शक्ति कमजोर होती है,
परंतु न्यायालय का दृष्टिकोण यह है कि—
- राज्य की सहमति महत्वपूर्ण है,
- लेकिन उसका दुरुपयोग
न्याय में बाधा डालने के लिए
नहीं किया जा सकता।
संभावित भविष्य प्रभाव
भविष्य में—
- राज्य सरकारों को यदि
सीबीआई जांच पर आपत्ति है,
तो उन्हें—- प्रारंभिक चरण में ही
उचित मंच पर आपत्ति उठानी होगी।
- प्रारंभिक चरण में ही
देर से उठाई गई आपत्तियाँ—
- न्यायालयों द्वारा
गंभीरता से नहीं ली जाएँगी।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय
आपराधिक न्याय व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है।
इसने स्पष्ट कर दिया है कि—
सीबीआई न्यायालय द्वारा संज्ञान लिए जाने के बाद
राज्य की सहमति के अभाव का तर्क
न तो स्वीकार्य है
और न ही न्यायसंगत।
यह फैसला—
- न्यायिक प्रक्रिया की निरंतरता को बनाए रखता है,
- तकनीकी अड़चनों से न्याय को बचाता है,
- और संघीय ढांचे के भीतर
व्यावहारिक संतुलन स्थापित करता है।
अंततः—
कानून का उद्देश्य
केवल प्रक्रिया का पालन नहीं,
बल्कि न्याय का साकार रूप देना है।
और यह निर्णय उसी उद्देश्य को
और अधिक सुदृढ़ करता है।