“सीपीसी आदेश 7 नियम 11 के तहत वाद पत्र की अस्वीकृति: केवल वादपत्र की सामग्री के आधार पर निर्णय, सीमावधि पर निष्कर्ष पूर्व सुनवाई से पहले नहीं लिया जा सकता – इलाहाबाद हाईकोर्ट”

“सीपीसी आदेश 7 नियम 11 के तहत वाद पत्र की अस्वीकृति: केवल वादपत्र की सामग्री के आधार पर निर्णय, सीमावधि पर निष्कर्ष पूर्व सुनवाई से पहले नहीं लिया जा सकता – इलाहाबाद हाईकोर्ट”


भूमिका:

भारतीय सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश 7 नियम 11 के तहत वाद पत्र (plaint) की अस्वीकृति एक संवेदनशील प्रक्रिया है, जिसे केवल सीमित कानूनी आधारों पर ही अपनाया जा सकता है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया है कि यह जांचते समय कि क्या कोई वाद किसी कानून द्वारा वर्जित (barred) है, अदालत को केवल वादी द्वारा वादपत्र में किए गए कथनों पर निर्भर रहना होगा — न कि प्रतिवादी द्वारा दायर लिखित बयान या अन्य बाह्य साक्ष्यों पर।


मुख्य कानूनी प्रावधान:

  • Order 7 Rule 11 CPC – वादपत्र की अस्वीकृति के आधार
  • Limitation Act, 1963 – वादों की सीमावधि से संबंधित कानून

A. सीमावधि से वर्जित वाद – केवल वादपत्र के आधार पर निर्णय:

  • यदि कोई पक्ष यह दावा करता है कि वादी का वाद किसी कानून द्वारा वर्जित (जैसे कि सीमावधि द्वारा), है तो उस पर निर्णय लेते समय केवल वादपत्र में उल्लिखित तथ्य ही विचारणीय होंगे।
  • अदालत इस अवस्था में लिखित बयान या अन्य बाह्य साक्ष्य का संज्ञान नहीं ले सकती।
  • यह एक प्रारंभिक तकनीकी जांच है, न कि गहन परीक्षण।

महत्वपूर्ण निष्कर्ष:
वाद की अस्वीकृति तभी संभव है जब वादपत्र की सामग्री से स्पष्ट हो जाए कि वाद स्पष्ट रूप से सीमावधि या किसी अन्य वैधानिक निषेध के अधीन है।


B. सीमावधि का प्रश्न – तथ्य और कानून का मिश्रित मुद्दा:

  • सीमावधि का प्रश्न केवल कानून का विषय नहीं, बल्कि तथ्य और कानून का मिश्रित विषय है।
  • इसका निर्धारण केवल वादी के कथनों से नहीं किया जा सकता; इसके लिए दोनों पक्षों के तर्क, साक्ष्य और बहस आवश्यक होते हैं।
  • अतः बिना पक्षों को सुने या उचित परीक्षण के पूर्व सीमावधि पर निर्णय लेना अनुचित है।

महत्वपूर्ण निष्कर्ष:
सीमावधि का निर्धारण केवल उचित बहस, मुद्दे के गठन और साक्ष्य के विश्लेषण के बाद ही किया जा सकता है।


अदालत का निर्णय:

  • चूंकि वादी के वादपत्र में ऐसा कोई स्पष्ट तथ्य नहीं था जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि वाद सीमावधि से वर्जित है, और चूंकि सीमावधि का प्रश्न तथ्यों से जुड़ा हुआ है —
    ➡️ वादपत्र की अस्वीकृति की याचिका को खारिज कर दिया गया।

न्यायिक सिद्धांत की पुष्टि:

  1. वादपत्र की अस्वीकृति एक असाधारण उपाय है और इसे केवल स्पष्ट, निर्विवाद स्थितियों में अपनाया जाना चाहिए।
  2. वादी को अपना पक्ष रखने का पूरा अवसर मिलना चाहिए, विशेष रूप से जहां विवाद सीमावधि से जुड़ा हो।
  3. न्यायिक प्रक्रिया का मूलभूत सिद्धांत है कि न्याय सभी पक्षों को सुनकर किया जाए।

निष्कर्ष:

इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह निर्णय यह सुनिश्चित करता है कि वादपत्र की अस्वीकृति की प्रक्रिया न्यायसंगत, सीमित और केवल कानून द्वारा अनुमत आधारों पर ही की जाए। सीमावधि जैसे जटिल प्रश्नों पर जल्दबाज़ी में निर्णय लेना न केवल न्यायिक प्रक्रिया को बाधित करता है, बल्कि वादी के अधिकारों का भी हनन करता है।

यह निर्णय न्यायिक विवेक, निष्पक्षता, और न्याय तक समान पहुंच के सिद्धांतों की पुष्टि करता है।