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सिविल हर्जाने के दावे पर धारा 357 CrPC में दी गई क्षतिपूर्ति का प्रभाव नहीं: पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय

“सिविल हर्जाने के दावे पर धारा 357 CrPC में दी गई क्षतिपूर्ति का प्रभाव नहीं: पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय – Jaswinder Kaur & Ors. v. Avtar Singh (RSA-3412-2025, O&M)


भूमिका

27 अक्टूबर 2025 को पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने Jaswinder Kaur & Ors. v. Avtar Singh (RSA-3412-2025, O&M) में एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया, जो भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code, 1973) की धारा 357 की व्याख्या से संबंधित है। यह निर्णय उन मामलों के लिए दिशा-निर्देशक बन गया है जिनमें फौजदारी कार्यवाही के तहत अदालत ने किसी आरोपी को पीड़ित को क्षतिपूर्ति (compensation) देने का आदेश दिया हो, और बाद में वही पीड़ित सिविल अदालत में tort (नागरिक हर्जाने) के लिए अलग से दावा दायर करता है।

हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि धारा 357 CrPC के अंतर्गत दी गई क्षतिपूर्ति मात्र summary (संक्षिप्त) और अंतरिम प्रकृति की होती है, इसलिए यदि पीड़ित व्यक्ति सिविल अदालत में अलग से हर्जाने का दावा करता है, तो उसे “double jeopardy” (द्वि-दंड) नहीं माना जा सकता।


मामले की पृष्ठभूमि

इस प्रकरण की पृष्ठभूमि एक सड़क दुर्घटना से जुड़ी थी, जिसमें Avtar Singh (प्रतिवादी) ने लापरवाहीपूर्वक गाड़ी चलाते हुए Jaswinder Kaur और उनके परिवार के अन्य सदस्यों को गंभीर चोटें पहुँचाईं।
इस घटना के संबंध में पुलिस ने NDPS नहीं, बल्कि IPC की धाराओं 279, 337, और 338 के तहत अपराध दर्ज किया था।

फौजदारी मामले में ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को दोषी पाया और सजा के साथ-साथ CrPC की धारा 357(3) के तहत पीड़ितों को कुछ राशि बतौर क्षतिपूर्ति प्रदान करने का आदेश दिया।

बाद में, घायल पक्षकारों ने सिविल अदालत में “Suit for Damages” दायर किया — यह कहते हुए कि दुर्घटना से उन्हें मानसिक, शारीरिक और आर्थिक क्षति हुई है, और CrPC में दी गई मामूली क्षतिपूर्ति इस नुकसान की भरपाई नहीं करती।

प्रतिवादी ने इस दावे का विरोध किया और कहा कि पीड़ितों को पहले ही अदालत द्वारा क्षतिपूर्ति मिल चुकी है, इसलिए अब सिविल अदालत में हर्जाने की मांग “double compensation” के समान है, जो कानून की दृष्टि से निषिद्ध है।


मुख्य विधिक प्रश्न

हाईकोर्ट के समक्ष यह प्रमुख प्रश्न था —

“क्या भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 357 के अंतर्गत दी गई क्षतिपूर्ति को अंतिम माना जाएगा, जिससे सिविल अदालत में हर्जाने का दावा barred (प्रतिबंधित) हो जाएगा?”


दोनों पक्षों के तर्क

वादी पक्ष (Jaswinder Kaur & Ors.) का तर्क:

  1. CrPC की धारा 357 के तहत दी गई क्षतिपूर्ति केवल एक summary remedy है, जो आपराधिक मामले के संदर्भ में होती है।
  2. यह राशि पूर्ण मुआवजा नहीं होती, बल्कि केवल आंशिक राहत होती है।
  3. सिविल अदालत को स्वतंत्र अधिकार है कि वह law of torts के सिद्धांतों के अनुसार वास्तविक नुकसान का मूल्यांकन करे और उचित हर्जाना दे।

प्रतिवादी (Avtar Singh) का तर्क:

  1. एक ही घटना के लिए दो बार क्षतिपूर्ति देना double jeopardy और unjust enrichment है।
  2. धारा 357 के तहत दी गई राशि न्यायालय द्वारा निर्धारित और स्वीकार की जा चुकी है, अतः दूसरा दावा अनुचित है।

हाईकोर्ट का विश्लेषण

माननीय न्यायमूर्ति ने अपने विस्तृत निर्णय में कहा कि धारा 357 CrPC के तहत दी गई क्षतिपूर्ति और civil damages का स्वरूप मूल रूप से भिन्न है।

  1. धारा 357 CrPC का उद्देश्य
    यह प्रावधान आपराधिक मुकदमे के दौरान पीड़ित को तात्कालिक राहत देने के लिए है। यह क्षतिपूर्ति किसी सिविल दावे के स्थान पर नहीं दी जाती, बल्कि आपराधिक दंड के साथ एक सामाजिक सुधारात्मक उपाय (reformative measure) के रूप में जोड़ी जाती है।
  2. सिविल हर्जाना (Tort Compensation)
    सिविल अदालत का कार्य पूर्ण मुआवजा देना है — जिसमें pain, suffering, loss of income, medical expenses, loss of future prospects आदि सभी कारकों को ध्यान में रखा जाता है।
  3. Double Jeopardy का सिद्धांत लागू नहीं होता
    अदालत ने स्पष्ट किया कि double jeopardy केवल दंडात्मक मामलों में लागू होता है, जब किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार सजा दी जाती है। यहाँ आरोपी को दूसरी बार सजा नहीं दी जा रही, बल्कि civil liability निर्धारित की जा रही है।
    अतः यह अनुच्छेद 20(2) के उल्लंघन में नहीं आता।
  4. CrPC की क्षतिपूर्ति “final” नहीं है
    कोर्ट ने कहा —

    “Mere grant of compensation under Section 357 CrPC is not final and such grant is always summary in nature. While awarding compensation in a civil suit, the Court may take into account the compensation already granted, but that cannot bar the suit itself.”

  5. दोनों कार्यवाहियों की प्रकृति अलग है
    • आपराधिक कार्यवाही का उद्देश्य “punishment and deterrence” है।
    • सिविल कार्यवाही का उद्देश्य “restoration and compensation” है।
      इसलिए दोनों का उद्देश्य अलग होने के कारण वे एक-दूसरे को निषेध नहीं करते।

महत्वपूर्ण न्यायिक उद्धरण

हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के कई पूर्ववर्ती निर्णयों का हवाला दिया, जैसे —

  1. Hari Singh v. Sukhbir Singh (1988) 4 SCC 551
    जिसमें कहा गया कि धारा 357 का उद्देश्य अपराध पीड़ित को न्याय के दायरे में लाना है, लेकिन यह किसी भी स्थिति में सिविल दावे को बाधित नहीं करता।
  2. Mangilal v. State of Madhya Pradesh (2004) 2 SCC 447
    जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 357 के तहत दी गई क्षतिपूर्ति एक “summary procedure” है और इसे comprehensive compensation नहीं माना जा सकता।
  3. Karan v. State of Haryana (2020 SCC OnLine P&H 1865)
    जिसमें पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा था कि पीड़ित व्यक्ति को सिविल remedy का अधिकार हमेशा बना रहता है, भले ही आपराधिक अदालत ने पहले से कुछ राशि दिलाई हो।

न्यायालय का निर्णय (Holding)

अदालत ने अपने आदेश में कहा —

“The mere fact that compensation has been granted under Section 357 CrPC does not preclude the plaintiffs from claiming damages in a civil suit for the injuries caused by the defendant. The amount awarded under Section 357 CrPC may be adjusted, but the suit cannot be dismissed on that ground.”

अर्थात् —
सिविल अदालत पीड़ितों के दावे का स्वतंत्र रूप से मूल्यांकन करेगी और यदि वह उपयुक्त समझे तो CrPC के तहत दी गई राशि को अंतिम हर्जाने में समायोजित (adjust) कर सकती है, लेकिन उस आधार पर मामला खारिज नहीं किया जा सकता।


फैसले के व्यावहारिक प्रभाव

  1. पीड़ितों के अधिकार सशक्त हुए:
    यह फैसला अपराध के शिकार व्यक्तियों को न्याय पाने के लिए एक वैकल्पिक और मजबूत रास्ता देता है। अब वे आपराधिक मुकदमे में मिली आंशिक क्षतिपूर्ति के बाद भी सिविल अदालत में पूर्ण मुआवजे की मांग कर सकते हैं।
  2. कानूनी स्पष्टता:
    पहले कई निचली अदालतें यह मानकर सिविल दावे खारिज कर देती थीं कि 357 CrPC के तहत मुआवजा मिलने के बाद कोई और दावा संभव नहीं। अब यह भ्रम दूर हो गया है।
  3. Double Jeopardy की गलतफहमी समाप्त:
    अदालत ने स्पष्ट किया कि क्षतिपूर्ति का मामला punishment नहीं, बल्कि civil restitution का मामला है।
  4. दोनों कार्यवाहियाँ समांतर चल सकती हैं:
    कोई भी व्यक्ति एक ही घटना पर आपराधिक और सिविल दोनों अदालतों में राहत प्राप्त कर सकता है, बशर्ते कि वह “unjust enrichment” न करे।

कानूनी सिद्धांत (Doctrine of Adjustment)

अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि सिविल अदालत, हर्जाने की राशि तय करते समय पहले से दी गई CrPC compensation को ध्यान में रखे। इससे न्यायसंगत संतुलन बना रहेगा और overcompensation से बचा जा सकेगा।

“While granting compensation in tort, the Court may consider the amount awarded under Section 357 CrPC, to ensure fairness and avoid duplication.”


महत्वपूर्ण टिप्पणी

इस निर्णय से यह सिद्ध हुआ कि भारतीय विधि व्यवस्था पीड़ित व्यक्ति के अधिकारों के प्रति संवेदनशील है।
धारा 357 CrPC का उद्देश्य केवल अपराधी को दंड देना नहीं, बल्कि पीड़ित को तात्कालिक राहत देना है। लेकिन यह राहत हमेशा सीमित होती है। इसलिए यदि कोई व्यक्ति अपने शारीरिक, मानसिक, या आर्थिक नुकसान की वास्तविक भरपाई चाहता है, तो उसे सिविल अदालत में tort claim दायर करने का अधिकार है।


निष्कर्ष

Jaswinder Kaur & Ors. v. Avtar Singh (RSA-3412-2025, O&M) का निर्णय भारतीय न्यायशास्त्र में एक नया मानक स्थापित करता है।
यह फैसला स्पष्ट करता है कि CrPC की धारा 357 के अंतर्गत दी गई क्षतिपूर्ति final settlement नहीं है, बल्कि एक प्रारंभिक सहायता है।
सिविल अदालत को स्वतंत्र अधिकार है कि वह वास्तविक नुकसान के आधार पर पूर्ण हर्जाना प्रदान करे।

यह निर्णय न्यायिक संतुलन, विधिक स्पष्टता और पीड़ित-केन्द्रित न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।


न्याय का सार:

“धारा 357 CrPC के अंतर्गत दी गई क्षतिपूर्ति सिविल हर्जाने के अधिकार को समाप्त नहीं करती; यह केवल आंशिक राहत है — पूर्ण न्याय का विकल्प नहीं।”