साक्षी का परीक्षण-प्रतिपरीक्षण (Cross-Examination) और दस्तावेज़ प्रस्तुत करने का अधिकार: धारा 144 साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत BSA को गवाह के रूप में न बुलाए जाने पर प्रतिपरीक्षण का प्रश्न
(Punjab & Haryana High Court का महत्वपूर्ण निर्णय — गहन विश्लेषण)
भूमिका
भारतीय दण्ड प्रक्रिया एवं साक्ष्य विधि में साक्षी का प्रतिपरीक्षण (Cross-Examination) निष्पक्ष न्याय का एक मूलभूत तत्व है। प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत “Audi Alteram Partem” यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी पक्ष को अपनी बात रखने और गवाहों का प्रतिपरीक्षण करने का पूरा अवसर मिले।
हाल ही में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया कि:
सिर्फ दस्तावेज़ प्रस्तुत किए जाने मात्र से प्रस्तुतकर्ता को प्रतिपरीक्षण के लिए उपलब्ध नहीं माना जा सकता, जब तक उसे औपचारिक रूप से गवाह के रूप में तलब न किया जाए।
विशेष रूप से यह मुद्दा तब उठा जब BSA (Block Statistical Assistant) को Indian Evidence Act, 1872 की धारा 144 के तहत समन किया गया, परंतु उसे औपचारिक गवाह घोषित किए बिना उसके द्वारा प्रस्तुत किए दस्तावेज़ों को चुनौती देने हेतु प्रतिपरीक्षण का अवसर माँगा गया।
इस निर्णय ने एक बार फिर यह स्थापित किया कि दस्तावेज़ तभी साक्ष्य बनते हैं जब उनके प्रस्तुतकर्ता का परीक्षण-प्रतिपरीक्षण का अवसर मिले, अन्यथा वे मात्र रिकॉर्ड की सामग्री रह जाते हैं।
मामले की पृष्ठभूमि
वाद में एक पक्ष ने BSA को समन जारी करने की मांग की ताकि वह कुछ सरकारी रिकॉर्ड प्रस्तुत कर सके। अदालत ने उसे धारा 144 साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत समन किया, जिसके अनुसार:
अदालत किसी भी दस्तावेज़ या रिकॉर्ड को अपने समक्ष बुला सकती है, बिना प्रस्तुतकर्ता को गवाह बनाए।
BSA ने रिकॉर्ड प्रस्तुत कर दिया, परंतु वादी-प्रतिवादी पक्ष ने उसे जिरह हेतु उपलब्ध कराने का अवसर माँगा। ट्रायल कोर्ट ने प्रतिपरीक्षण की अनुमति नहीं दी क्योंकि:
BSA को गवाह के रूप में नहीं बुलाया गया था, बल्कि केवल दस्तावेज़ उत्पादन हेतु समन किया गया था।
इस आदेश को चुनौती पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में दी गई।
मुख्य विधिक प्रश्न
मूल प्रश्न था—
✅ क्या वह व्यक्ति जो केवल दस्तावेज़ प्रस्तुत करने हेतु समन किया गया हो, बिना शपथ लिए साक्षी बने प्रतिपरीक्षण के लिए बाध्य हो सकता है?
उच्च न्यायालय का उत्तर — नहीं।
संबंधित विधिक प्रावधान
1. भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872
| प्रावधान | विषय |
|---|---|
| धारा 144 | दस्तावेज़ बुलाने की शक्ति |
| धारा 137–138 | परीक्षण, प्रतिपरीक्षण और पुनर्परीक्षा |
| धारा 61–65 | दस्तावेज़ प्रमाणन से सम्बंधित प्रावधान |
| धारा 118–119 | साक्षियों की पात्रता |
धारा 137: साक्षी का Examination-in-Chief, Cross-Examination, Re-Examination
धारा 138: Cross-Examination का अधिकार अनिवार्य
स्पष्ट है कि Cross-Examination तभी सम्भव है जब व्यक्ति साक्षी के रूप में बुलाया गया हो।
न्यायालय की निष्पत्ति (Judgment)
Punjab & Haryana High Court ने कहा—
दस्तावेज़ प्रस्तुत करने मात्र से प्रस्तुतकर्ता साक्षी नहीं बन जाता। प्रतिपरीक्षण का अधिकार तभी लागू होता है जब व्यक्ति गवाह के रूप में उपस्थित हो।
धारा 144 के समन का उद्देश्य दस्तावेज़ प्रस्तुत कराना है, गवाही देना नहीं।
इस प्रकार अदालत ने ट्रायल कोर्ट के आदेश को सही ठहराया।
न्यायालय की तर्कणा (Reasoning)
- Cross-Examination साक्षी पर लागू होता है
- केवल गवाह को प्रतिपरीक्षित किया जा सकता है।
- दस्तावेज़-प्रस्तुतकर्ता = Witness नहीं।
- धारा 144 दस्तावेज़ बुलाने का विशेष अधिकार देती है
- कई बार सरकारी अधिकारी रिकॉर्ड लाते हैं पर अपने ज्ञान से गवाही नहीं देते।
- वे केवल custodian of records होते हैं।
- स्वाभाविक न्याय के सिद्धांत का पालन
- यदि दस्तावेज़ को substantive evidence मानना हो तो प्रस्तुतकर्ता को साक्षी बनाना होगा।
- परंतु प्रतिपक्ष यह अधिकार तभी माँग सकता है जब अदालत व्यक्ति को गवाह बुलाए।
न्यायिक दृष्टांत (Case References)
निम्न निर्णयों पर न्यायालय ने भरोसा किया:
| केस नाम | सिद्धांत |
|---|---|
| State of Bihar v. Radha Krishna Singh | दस्तावेज़ प्रमाणित तभी होते हैं जब प्रस्तुतकर्ता पर जिरह हो |
| Hiralal v. Pirtasha (SC) | दस्तावेज़ की विश्वसनीयता परीक्षण के बिना स्वीकार नहीं |
| Roman Catholic Mission v. State of Madras | Official documents require proof unless admitted |
यह न्यायिक पंक्ति स्थापित करती है कि:
Documentary evidence cannot bypass cross-examination rights unless witness is present.
क्रॉस-एक्ज़ामिनेशन की भूमिका
प्रतिपरीक्षण का उद्देश्य है—
- सत्य का उद्घाटन
- झूठ पकड़ना
- साक्षी की विश्वसनीयता की जाँच
- दस्तावेज़ की प्रामाणिकता परखना
बिना प्रतिपरीक्षण न्याय अधूरा है।
लेकिन यह अधिकार तभी मिले जब—
- सामने वाला व्यक्ति गवाह हो
- रिकॉर्ड लाने वाला साक्ष्य देने को बाध्य हो
धारा 144 में यह बाध्यता नहीं है।
दस्तावेज़ और साक्षी का अंतर
| प्रकार | विवरण |
|---|---|
| दस्तावेज़ साक्ष्य (Documentary Evidence) | लिखित रिकॉर्ड, रिपोर्ट, नोटिंग आदि |
| मौखिक साक्ष्य (Oral Evidence) | साक्षी का बयान |
| दस्तावेज़-वाहक (Record Custodian) | केवल रिकॉर्ड जमा करता है |
| गवाह (Witness) | तथ्य का प्रत्यक्ष ज्ञान रखता है |
Record-custodian ≠ Witness
ट्रायल कोर्ट में व्यवहारिक प्रभाव
यह निर्णय अदालतों को स्पष्ट मार्गदर्शन देता है:
✅ दस्तावेज़ लाने वाला अधिकारी स्वत: गवाह नहीं
✅ उसे गवाह बनाना हो तो अलग आवेदन देकर समन करें
✅ जिरह करने का अधिकार तभी जब वह शपथ लेकर गवाही दे
वादी-प्रतिवादी के लिए शिक्षाएं
यदि पक्ष किसी अधिकारी से जिरह चाहता है:
1️⃣ धारा 144 का समन न माँगे
2️⃣ उसे गवाह के रूप में बुलाने का आग्रह करें
3️⃣ दस्तावेज़ पेश होने के बाद आवेदन देकर कहें:
“The officer should be summoned as a witness for proving the document and for cross-examination.”
यह रणनीति ट्रायल में बहुत मायने रखती है।
न्यायिक सिद्धांत
इस निर्णय ने यह सिद्धांत मजबूत किया:
दस्तावेज़ की प्रमाणिकता = प्रस्तुतकर्ता के प्रतिपरीक्षण पर निर्भर है
बिना प्रतिपरीक्षण दस्तावेज़ को पूर्ण साक्ष्य नहीं माना जा सकता
परंतु रिकॉर्ड प्रस्तुत करने वाला स्वत: गवाह नहीं — यह बारिकी विशेष है।
निष्कर्ष
यह निर्णय भारतीय साक्ष्य कानून में एक महत्वपूर्ण स्पष्टीकरण है। इससे यह स्थापित होता है कि:
- धारा 144 केवल रिकॉर्ड बुलाती है
- प्रस्तुतकर्ता अपनी मर्ज़ी से गवाह नहीं बन जाता
- प्रतिपरीक्षण का अधिकार साक्षी पर ही लागू
- दस्तावेज़ को साक्ष्य मानना हो तो गवाह के रूप में बुलाना आवश्यक
अतः इस निर्णय से यह सिद्धांत पुनः सुदृढ़ होता है:
न्याय तभी संभव है जब दस्तावेज़ और गवाह दोनों परीक्षण के दायरे में आएं।
इस निर्णय का महत्व विशेष रूप से राजस्व, भूमि, सरकारी दस्तावेज़, पुलिस रिकॉर्ड और प्रशासनिक मामलों में अत्यधिक है, जहाँ दस्तावेज़ प्रायः सरकारी विभागों से आते हैं।
लेखक टिप्पणी
यह निर्णय वकीलों और न्यायाधीशों दोनों के लिए मार्गदर्शक है।
यह दिखाता है कि:
- तकनीकी प्रक्रियाओं का सही पालन आवश्यक है
- न्यायिक प्रक्रिया दस्तावेज़ों और गवाहों की संतुलित जाँच पर आधारित है
यह केस प्राकृतिक न्याय, साक्ष्य सिद्धांत और क्रॉस-एक्ज़ामिनेशन की संवैधानिक महत्ता को पुन: स्थापित करता है।