“सावधानी में चूक नहीं बन सकती बहाना: जालंधर हाईकोर्ट ने ट्रायल के बाद ‘धोखाधड़ी’ के नए आधार पर लिखित वक्तव्य संशोधन की अर्जी की खारिज”
(Jagdish v. Harish Chander and Others, 2025 PbHr (CR-2000-2025))
भूमिका:
भारत के दीवानी प्रक्रिया संहिता (CPC) की Order 6 Rule 17 के अंतर्गत लिखित कथन (Written Statement) में संशोधन का प्रावधान है, परंतु इसका दुरुपयोग न हो, इसके लिए एक सख्त अपवादात्मक शर्त जुड़ी हुई है – कि यदि मुकदमे का ट्रायल शुरू हो चुका हो, तो केवल उन्हीं मामलों में संशोधन की अनुमति दी जाएगी, जब यह साबित हो कि पूरे परिश्रम के बावजूद पक्ष संशोधन नहीं कर सका।
प्रकरण का सार:
- मामला: Jagdish v. Harish Chander and Others
- न्यायालय: पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट
- केस नंबर: CR-2000-2025
- प्रावधान: Order 6 Rule 17 CPC
- मुद्दा: लिखित कथन में ‘धोखाधड़ी’ की नई दलील जोड़ने की अनुमति मांगी गई थी।
प्रतिवादी की याचिका:
प्रतिवादी ने दलील दी कि—
- मूल लिखित कथन (Written Statement) में धोखाधड़ी की बात अनजाने में छूट गई।
- अब वह वर्तमान आवेदन के माध्यम से धोखाधड़ी का आधार जोड़ना चाहते हैं।
अदालत का निर्णय और विश्लेषण:
- साक्ष्य पूरा हो चुका था:
- अदालत ने स्पष्ट किया कि मुकदमे में पक्षकारों के साक्ष्य की कार्यवाही पूर्ण हो चुकी है।
- Order 6 Rule 17 का प्रावधान:
- प्रोवाइज़ो (संशोधन की शर्त) के अनुसार यदि ट्रायल शुरू हो चुका है, तो संशोधन तभी संभव है जब—
“Despite due diligence, the party could not have raised the matter before the commencement of trial.”
- प्रोवाइज़ो (संशोधन की शर्त) के अनुसार यदि ट्रायल शुरू हो चुका है, तो संशोधन तभी संभव है जब—
- धोखाधड़ी की दलील पहले से उपलब्ध थी:
- अदालत ने पाया कि धोखाधड़ी का आधार प्रतिवादी के पास पहले से उपलब्ध था, जब उसने मूल लिखित कथन दाखिल किया था।
- इसका मतलब है कि “due diligence” नहीं दिखाई गई।
- नए सिरे से कार्यवाही (De novo trial):
- यदि यह संशोधन स्वीकार कर लिया जाए तो फिर से साक्ष्य और दलीलें शुरू करनी पड़ेंगी, जिससे—
मुकदमे में अनावश्यक देरी होगी और न्यायिक समय की हानि होगी।
- यदि यह संशोधन स्वीकार कर लिया जाए तो फिर से साक्ष्य और दलीलें शुरू करनी पड़ेंगी, जिससे—
- अर्जी खारिज:
- इसलिए, संशोधन की अर्जी खारिज कर दी गई।
न्यायिक सिद्धांत और महत्व:
- Order 6 Rule 17 CPC का उद्देश्य है—
“न्यायिक प्रक्रिया को लचीला रखना, लेकिन साथ ही मुकदमे की देरी को रोकना।”
- संशोधन की अनुमति तभी दी जाती है जब यह न्याय के हित में हो और समय की बर्बादी न हो।
- “सावधानी में चूक” (Inadvertence) का बहाना तब स्वीकार नहीं किया जा सकता जब—
संशोधन का उद्देश्य मुकदमे को फिर से शुरू करना हो या साक्ष्य को प्रभावित करना हो।
निष्कर्ष:
यह निर्णय स्पष्ट करता है कि—
“मुकदमे में देरी करने या नए आधार जोड़ने के लिए, ट्रायल के बाद संशोधन की अनुमति नहीं दी जा सकती, जब तक कि पूर्ण सावधानी के बावजूद यह संभव नहीं था।”
➡️ Jagdish v. Harish Chander का यह निर्णय अन्य मामलों के लिए भी महत्वपूर्ण मार्गदर्शक बनता है, जहां पार्टियां देर से “धोखाधड़ी” या अन्य नए आधार जोड़ने की कोशिश करती हैं।