शीर्षक:
“साल्वा जुडूम और मानवाधिकार हनन पर 18 वर्षों की लड़ाई का अंत: सुप्रीम कोर्ट में नंदिनी सुंदर बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामला”
भूमिका:
भारत में लोकतंत्र केवल शासन प्रणाली नहीं, बल्कि नागरिक अधिकारों, मानव गरिमा और न्याय की गारंटी भी है। नंदिनी सुंदर बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (Nandini Sundar & Ors vs. State of Chhattisgarh) मामला एक ऐसा ऐतिहासिक मुकदमा रहा, जिसने आदिवासी समुदायों, राज्य हिंसा, सशस्त्र संगठनों और मानवाधिकारों के संघर्ष को न्यायपालिका के समक्ष रखा। यह मुकदमा 2007 में शुरू हुआ और 2025 में समाप्त हुआ, यानी 18 वर्षों तक देश की न्यायिक प्रणाली में यह मामला गूंजता रहा।
मामले की पृष्ठभूमि:
साल 2005 में छत्तीसगढ़ सरकार ने नक्सलवाद से निपटने के लिए एक सशस्त्र स्वयंसेवी अभियान की शुरुआत की, जिसे ‘साल्वा जुडूम’ कहा गया। इसका उद्देश्य ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में नक्सल प्रभाव को खत्म करना था। परंतु यह आंदोलन जल्दी ही राज्य प्रायोजित हिंसा और मानवाधिकार उल्लंघन में तब्दील हो गया। गांवों को जलाया गया, निर्दोष लोगों को मारा गया, जबरन विस्थापन हुआ और कई महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार की घटनाएं सामने आईं।
सामाजिक वैज्ञानिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रो. नंदिनी सुंदर, साथ ही अन्य कार्यकर्ताओं ने 2007 में सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका (PIL) दायर की, जिसमें यह कहा गया कि साल्वा जुडूम और सुरक्षा बलों द्वारा आदिवासियों के अधिकारों का गंभीर उल्लंघन हो रहा है।
सुप्रीम कोर्ट की ऐतिहासिक टिप्पणी (2011):
सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में एक ऐतिहासिक आदेश में कहा कि—
“राज्य किसी भी परिस्थिति में असैन्य नागरिकों को हथियार नहीं दे सकता और न ही उन्हें सुरक्षा बलों के रूप में उपयोग कर सकता है।”
कोर्ट ने राज्य सरकार को साल्वा जुडूम को समाप्त करने और SPOs (विशेष पुलिस अधिकारी) की भर्ती को अवैध घोषित करने का निर्देश दिया था। साथ ही, आदिवासियों की सुरक्षा, पुनर्वास और न्याय सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी भी तय की।
2025 में अंतिम निपटान (Final Disposal):
2025 में, 18 वर्षों के लंबे संघर्ष के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने यह मामला अंतिम रूप से निपटा दिया। हालांकि अदालत ने यह माना कि कई निर्देश पहले ही निष्पादित हो चुके हैं, लेकिन उसने यह भी दोहराया कि—
- मानवाधिकार उल्लंघनों की जवाबदेही हमेशा बनी रहनी चाहिए।
- भविष्य में ऐसी कोई नीति न बने जो नागरिकों को सशस्त्र टकराव में धकेले।
कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि:
“राज्य की भूमिका अपने नागरिकों की रक्षा करना है, उन्हें हथियार थमाकर युद्ध में झोंकना नहीं।”
इस मुकदमे के प्रमुख प्रभाव:
- साल्वा जुडूम का अंत:
सुप्रीम कोर्ट के 2011 के आदेश के बाद यह आंदोलन समाप्त हो गया। - मानवाधिकार की न्यायिक सुरक्षा:
यह फैसला भारत में मानवाधिकारों की रक्षा में एक मील का पत्थर बन गया। - सिविल सोसाइटी की भूमिका:
यह मुकदमा दर्शाता है कि कैसे सामाजिक कार्यकर्ता और शोधकर्ता न्यायिक प्रणाली के ज़रिये लोकतंत्र और मानव गरिमा की रक्षा कर सकते हैं। - न्याय में देरी पर प्रश्न:
हालांकि अंत में न्याय मिला, पर यह भी दिखाता है कि कैसे ‘न्याय में देरी, न्याय से इनकार’ का रूप ले सकती है।
निष्कर्ष:
Nandini Sundar बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामला केवल एक कानूनी लड़ाई नहीं था, बल्कि यह उस संघर्ष की मिसाल है जिसमें एक अकेले नागरिक ने पूरे तंत्र को मानवाधिकारों की याद दिलाई। सुप्रीम कोर्ट का यह अंतिम निर्णय भारतीय लोकतंत्र, न्यायपालिका और सामाजिक चेतना की विजय है। यह फैसला आने वाली पीढ़ियों को यह सिखाता है कि संविधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए लड़ाई लंबी हो सकती है, लेकिन व्यर्थ नहीं।