“सार पर रूप का प्रभुत्व नहीं: सेवानिवृत्त लोक सेवक की सजा बरकरार — दशरथ बनाम महाराष्ट्र राज्य, सुप्रीम कोर्ट का फैसला”

लेख शीर्षक:
“सार पर रूप का प्रभुत्व नहीं: सेवानिवृत्त लोक सेवक की सजा बरकरार — दशरथ बनाम महाराष्ट्र राज्य, सुप्रीम कोर्ट का फैसला”

लेख:
सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने दशरथ बनाम महाराष्ट्र राज्य (Dashrath vs. The State of Maharashtra) मामले में एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाते हुए एक सेवानिवृत्त लोक सेवक की सजा को बरकरार रखा, जिन्होंने स्वीकृति आदेश (Sanction Order) में कथित अनियमितताओं के आधार पर बरी किए जाने की माँग की थी।

याचिकाकर्ता ने तर्क दिया था कि भ्रष्टाचार के मामले में अभियोजन चलाने के लिए जो पूर्व स्वीकृति दी गई थी, उसमें रूपात्मक त्रुटियाँ या संपादन थे, और इसलिए उसे अमान्य माना जाना चाहिए। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस दलील को अस्वीकार करते हुए स्पष्ट किया कि—

“स्वीकृति आदेश में किए गए मामूली संपादन केवल दस्तावेज़ के स्वरूप को उसकी वास्तविक सामग्री के अनुरूप बनाने के लिए किए गए थे। इससे आदेश के अर्थ, उद्देश्य या वैधानिक प्रभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ।”

मुख्य बिंदु:

  • रूप (form) में परिवर्तन, जब तक वह सार (substance) को प्रभावित नहीं करता, स्वीकृति आदेश को अमान्य नहीं बनाता।
  • अभियोजन की स्वीकृति एक प्रक्रियात्मक आवश्यकता है, लेकिन इसका मूल्यांकन व्यावहारिक दृष्टिकोण से किया जाना चाहिए, न कि अत्यधिक तकनीकी आधारों पर।
  • लोक सेवकों को संरक्षण देने का उद्देश्य न्याय को विफल करना नहीं होना चाहिए, बल्कि ईमानदार प्रशासनिक निर्णयों और दुरुपयोग के बीच संतुलन स्थापित करना चाहिए।

न्यायालय का निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी रेखांकित किया कि यदि अभियोजन की स्वीकृति में कथित त्रुटियाँ केवल सतही या प्रक्रियात्मक प्रकृति की हैं, तो वह अभियोजन को शून्य या गैर-कानूनी नहीं बनाती। इस प्रकार, दोषी करार दिए गए लोक सेवक की सजा को वैध माना गया।

निष्कर्ष:
दशरथ बनाम महाराष्ट्र राज्य में सुप्रीम कोर्ट ने यह संदेश दिया है कि न्याय का उद्देश्य रूपात्मक बाधाओं में उलझना नहीं है, बल्कि वास्तविकता और प्रमाणिकता पर आधारित निर्णय लेना है। यदि स्वीकृति आदेश की वास्तविक सामग्री सही और विधिसम्मत है, तो छोटे-मोटे संपादन या भाषा में बदलाव से उस आदेश की वैधता पर कोई असर नहीं पड़ता।