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सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुंचाने पर अब हर नागरिक कर सकेगा शिकायत — सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय जिसने बदल दिया कानून की व्याख्या

सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुंचाने पर अब हर नागरिक कर सकेगा शिकायत — सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय जिसने बदल दिया कानून की व्याख्या


भूमिका : सार्वजनिक संपत्ति सिर्फ सरकारी नहीं, राष्ट्रहित की सामूहिक धरोहर

       हमारे देश में सार्वजनिक संपत्ति — सड़कें, स्कूल, अस्पताल, सार्वजनिक परिवहन, विद्युत पोल, सरकारी इमारतें, पार्क, जल प्रणालियां, ग्राम सभा भूमि — मात्र निर्माण सामग्री नहीं, यह नागरिक सभ्यता और विकास का आधार हैं। लेकिन दुर्भाग्य है कि भारत में आंदोलन, आक्रोश या आपसी विवादों की आड़ में सबसे आसान निशाना यही सार्वजनिक संपत्तियाँ बन जाती हैं। कहीं बसें जलती हैं, कहीं पंचायत भवन क्षतिग्रस्त किए जाते हैं, कहीं सरकारी जमीन पर कब्जा, कहीं सड़कों और प्रकाश व्यवस्था को तोड़ दिया जाता है।

       इन घटनाओं का सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह है कि जो संपत्ति जनहित में उपयोग होनी चाहिए, उसकी मरम्मत पर फिर जनता का पैसा खर्च होता है। इस तरह नुकसान सिर्फ भौतिक नहीं होता; उसके पीछे समाज की प्रगति और सुरक्षा प्रभावित होती है।

      ऐसे अपराधों पर शिकंजा कसने के लिए वर्ष 1984 में केंद्र सरकार ने “सार्वजनिक संपत्ति नुकसान निवारण अधिनियम” (Prevention of Damage to Public Property Act) बनाया, जिसमें तोड़फोड़ पर सजा और क्षतिपूर्ति का स्पष्ट प्रावधान है। लेकिन वर्षों से एक बड़ा प्रश्न कानून के व्यावहारिक उपयोग में बाधा बना हुआ था—

क्या सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुंचाने की शिकायत सिर्फ कोई ‘अधिकृत व्यक्ति’ ही दर्ज करा सकता है?
या जनता में से कोई भी नागरिक शिकायतकर्ता हो सकता है?

      यहीं से शुरू होता है यह ऐतिहासिक मामला और सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला जिसने इस विवाद को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया है।


मामले की पृष्ठभूमि : आजमगढ़ से सुप्रीम कोर्ट तक का सफर

       यह मामला उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले, थाना सिधारी से जुड़ा हुआ है। ग्राम प्रधान के शिकायत पर नौशाद एवं अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध आरोप लगाया गया कि उन्होंने सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाया। पुलिस ने जांच पूरी कर IPC की धारा 147 (दंगा), 323 (मारपीट), 504 (अपमान), 506 (धमकी) के साथ—

  • SC/ST Act की धारा 3(1)(R)
  • SC/ST Act की धारा 3(1)(S)
  • SC/ST Act की धारा 3(2)(va)
  • और PDPA Act 1984 की धारा 3/4

के तहत आरोप पत्र दाखिल किया।

विशेष न्यायाधीश ने संज्ञान लेते हुए अभियुक्तों को समन जारी किया।
लेकिन आरोपी पक्ष ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में कहा:

“ग्राम प्रधान शिकायत के लिए अधिकृत ही नहीं था, इसलिए पूरा मुकदमा अवैध है।”

हाई कोर्ट ने इस तर्क को स्वीकार कर समन आदेश रद्द कर दिया।


हाई कोर्ट की दलील — ग्राम प्रधान क्यों अधिकृत नहीं?

हाई कोर्ट ने यूपी रेवेन्यू कोड 2006 की धारा 67 और 136 पर निर्भर किया और कहा—

  • सार्वजनिक संपत्ति से संबंधित शिकायत भूमि प्रबंधक समिति, लेखपाल या राजस्व अधिकारी द्वारा होनी चाहिए।
  • ग्राम प्रधान को स्वतंत्र रूप से ऐसी शिकायत दर्ज कराने का अधिकार नियुक्त कानून में निर्दिष्ट नहीं है।

हाई कोर्ट के अनुसार वैधानिक प्रक्रिया उल्लंघन हुआ है, इसलिए आदेश अवैध है।

अगर यह व्याख्या कायम रहती, तो भारत में अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक संपत्ति क्षति की शिकायतें शायद ही दर्ज हो पातीं। क्योंकि हमेशा अधिकारी मौजूद नहीं होते, और कई बार अधिकारी स्वयं कार्रवाई टालते हैं।


सुप्रीम कोर्ट की ऐतिहासिक टिप्पणी — “यह जनता विरुद्ध अपराध है”

18 नवंबर को जस्टिस पंकज मित्तल और जस्टिस प्रसन्ना बी. वराले की दो सदस्यीय पीठ ने हाई कोर्ट का आदेश रद्द करते हुए कहा:

“सार्वजनिक संपत्ति नुकसान निवारण अधिनियम में शिकायतकर्ता की पात्रता को सीमित करने वाला कोई प्रावधान ही नहीं है।”

“No law restricts the right of a citizen to lodge complaint in the matter of damages to public property.”

अदालत ने स्पष्ट किया—

  • सार्वजनिक संपत्ति में हर नागरिक का हित जुड़ा है
  • इसलिए शिकायत दर्ज कराने का अधिकार केवल सरकारी अधिकारी तक सीमित नहीं किया जा सकता
  • कानून मौन है, तो अधिकार व्यापक माना जाएगा

विशेष रूप से कोर्ट ने कहा कि—

➡ यूपी रेवेन्यू एक्ट दीवानी प्रकृति का है
➡ PDPA एक्ट आपराधिक प्रकृति का
➡ दोनों की प्रक्रिया व उद्देश्य अलग

इसलिए हाई कोर्ट का तर्क कानून की गलत व्याख्या था।


सुप्रीम कोर्ट ने किन पूर्व फैसलों का हवाला दिया?

न्यायालय ने कहा—
सुप्रीम कोर्ट पहले भी कई मौकों पर कह चुका है कि—

  • अपराध की सूचना देने वाला व्यक्ति “गवाह”, “प्रत्यक्ष प्रभावित” या “सरकारी अधिकारी” होना जरूरी नहीं
  • कोई भी व्यक्ति अपराध की जानकारी देकर अभियोजन की प्रक्रिया प्रारंभ करा सकता है

यह सिद्धांत भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली का मूल है कि—
“अपराध राज्य के खिलाफ है, व्यक्तिगत नहीं।”

इसलिए शिकायत दर्ज कराने वाला कोई भी हो सकता है,
पर अपराध के खिलाफ कार्रवाई राज्य बनाम आरोपी के रूप में होती है।


इस फैसले के दूरगामी प्रभाव

आंदोलन, विरोध, हिंसा में तोड़फोड़ पर रोक लगेगी

बहुत बार आंदोलनों या रैलियों में गुस्सा सरकार से होता है—
लेकिन नुकसान सार्वजनिक संपत्ति का होता है।

अब कोई भी नागरिक शिकायत कर सकता है, और
तकनीकी आधार पर मामला खारिज करना कठिन होगा।


 ग्रामीण और पंचायत क्षेत्रों में न्याय की पहुंच मजबूत

गाँवों में:

  • तालाब पाटे जाते हैं
  • गौचर भूमि कब्जाई जाती है
  • पंचायत भवन तोड़ा जाता है
  • सड़कों और सार्वजनिक बाउंड्री को नुकसान

लेकिन अधिकारी राजनीतिक दबाव, लापरवाही, रिश्वत या प्रभाव में अक्सर कार्रवाई नहीं करते।

अब ग्राम प्रधान, स्थानीय निवासी, ग्राम सभा सदस्य — कोई भी शिकायतकर्ता बन सकता है।


 “यह सरकार की संपत्ति है” सोच को चुनौती

लोग सोचते थे—

“सरकारी है, मेरी थोड़ी है!”

लेकिन सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या स्पष्ट करती है—

सार्वजनिक संपत्ति जनता के टैक्स पर बनी है, इसलिए जनता की है।
नागरिक इसका संरक्षक भी है और अधिकारधारी भी।


कानूनी दृष्टि से यह फैसला क्यों महत्वपूर्ण?

आधार पहले की स्थिति अब की स्थिति
शिकायतकर्ता अधिकारी सीमित माना जा सकता था कोई भी नागरिक
ग्रामीण मामलों में कार्रवाई धीमी, निर्भर अधिकारी पर जनता सीधे पहल कर सकती
कानून की व्याख्या अस्पष्ट सुप्रीम कोर्ट से स्पष्ट
दुष्प्रभाव आरोपी बच निकलते जिम्मेदारी तय करना आसान

जन-जागरूकता का नया अध्याय

यह फैसला दो संदेश देता है—

 सार्वजनिक संपत्ति पर चोरी, कब्जा या क्षति केवल प्रशासनिक मामला नहीं,
यह सामाजिक और कानूनी अपराध है।

 भारत का संविधान नागरिकों को
अधिकार के साथ जिम्मेदारी भी सौंपता है।

अनुच्छेद 51A (g) कहता है—
“पर्यावरण, प्राकृतिक संसाधन और संपत्ति की रक्षा करना नागरिक का मौलिक कर्तव्य है।”

अर्थात यह फैसला संविधान की भावना के अनुरूप है।


निष्कर्ष — जनहित और कानून के संगम का निर्णय

      सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश केवल एक अपील निपटाने का निर्णय नहीं है, बल्कि कानूनी सिद्धांत की बहुप्रतीक्षित स्पष्टता है। यह निर्णय जनता और कानून में विश्वास को मजबूत करता है, यह बताता है—

  • सार्वजनिक संपत्ति राष्ट्र की संपत्ति है
  • उसकी रक्षा सरकार का ही नहीं, जनता का भी दायित्व है
  • शिकायत करने का अधिकार नागरिक का संविधान-प्रदत्त अधिकार है

अब यह सोच बदलनी होगी कि “सरकारी है, तो किसी की नहीं”
बल्कि अब यह समझ विकसित होगी—

“सरकारी है, इसलिए हमारी है — और उसकी सुरक्षा हमारा अधिकार है।”

     यह फैसला न केवल न्याय को सशक्त करता है, बल्कि नागरिक सहभागिता और कानून की उपयोगिता को भी व्यापक बनाता है। ऐसे निर्णय समाज और अदालतों के बीच विश्वास को गहराई प्रदान करते हैं, जो किसी भी लोकतंत्र की नींव होती है।