1. ‘तथ्य’ और ‘सुसंगत तथ्य’ की परिभाषा दीजिए।
तथ्य (Fact): भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 3 के अनुसार, “तथ्य” उन चीजों को कहते हैं जो किसी व्यक्ति की चेतना के विषय होते हैं, जैसे—
- किसी चीज़ का अस्तित्व,
- किसी चीज़ की गैर-मौजूदगी,
- किसी घटना की घटित होने या न होने की स्थिति।
सुसंगत तथ्य (Relevant Fact): सुसंगत तथ्य वे तथ्य होते हैं जो किसी मुकदमे में मुख्य विवाद से जुड़े होते हैं और जिनका प्रमाण न्यायालय में दिया जा सकता है। ये भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 5 से 55 के अंतर्गत आते हैं।
2. साक्ष्य की परिभाषा दीजिए और इसके विभिन्न प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
साक्ष्य (Evidence): भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 3 के अनुसार, “साक्ष्य” वह चीज़ है जिससे किसी तथ्य की सच्चाई या असत्यता को सिद्ध किया जाता है।
साक्ष्य के प्रकार:
- मौखिक साक्ष्य (Oral Evidence) – गवाह द्वारा दिया गया बयान।
- दस्तावेजी साक्ष्य (Documentary Evidence) – लिखित दस्तावेज़ जो अदालत में पेश किए जाते हैं।
- प्रत्यक्ष साक्ष्य (Direct Evidence) – जो स्वयं घटना से जुड़ा होता है।
- परिस्थितिजन्य साक्ष्य (Circumstantial Evidence) – जो अप्रत्यक्ष रूप से किसी तथ्य को प्रमाणित करता है।
3. परिस्थितिजन्य साक्ष्य क्या है?
परिस्थितिजन्य साक्ष्य वे साक्ष्य होते हैं जो किसी घटना को प्रत्यक्ष रूप से नहीं बल्कि परिस्थितियों के आधार पर प्रमाणित करते हैं। इनका उपयोग तब किया जाता है जब कोई प्रत्यक्ष गवाह उपलब्ध नहीं होता।
उदाहरण: किसी व्यक्ति को अंतिम बार मृतक के साथ देखा गया और बाद में मृतक की हत्या हो गई, तो यह परिस्थितिजन्य साक्ष्य होगा।
4. निश्चायक सबूत से क्या तात्पर्य है?
निश्चायक सबूत (Conclusive Proof) वह साक्ष्य होता है जिसे अदालत बिना किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता के सच मानती है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 4 के अनुसार, जब किसी तथ्य को कानून द्वारा निश्चित रूप से प्रमाणित मान लिया जाता है, तो उसे निश्चायक सबूत कहते हैं।
उदाहरण: जन्म प्रमाणपत्र किसी व्यक्ति की जन्म तिथि का निश्चायक सबूत होता है।
5. साबित नहीं हुआ से क्या तात्पर्य है?
“साबित नहीं हुआ” (Not Proved) का अर्थ है कि किसी तथ्य को प्रमाणित करने या खंडन करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं। भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 के अनुसार, जब किसी तथ्य के पक्ष या विपक्ष में पर्याप्त साक्ष्य नहीं होते, तो उसे “साबित नहीं हुआ” कहा जाता है।
6. ‘विवाद्यक तथ्य’ को परिभाषित कीजिए।
विवाद्यक तथ्य (Fact in Issue): भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 3 के अनुसार, वे तथ्य जो किसी मामले में प्रत्यक्ष रूप से विवाद का विषय होते हैं और जिन पर न्यायालय को निर्णय देना होता है, उन्हें विवाद्यक तथ्य कहते हैं।
उदाहरण: हत्या के मुकदमे में यह तथ्य कि अभियुक्त ने पीड़ित की हत्या की या नहीं, एक विवाद्यक तथ्य होगा।
7. बाल साक्षी की सक्षमता के बारे में बतलाइये।
बाल साक्षी (Child Witness) वह गवाह होता है जो आयु में अल्पवयस्क होता है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में कोई न्यूनतम आयु सीमा निर्धारित नहीं की गई है, लेकिन न्यायालय यह सुनिश्चित करता है कि बाल साक्षी को सत्य और असत्य में भेद करने की समझ हो।
महत्वपूर्ण निर्णय:
- नानक चंद्र बनाम राज्य (1957): यदि बच्चा समझदार है और सत्य बोलने में सक्षम है, तो उसकी गवाही को स्वीकार किया जा सकता है।
8. पंचनामा क्या है?
पंचनामा (Panchnama) एक कानूनी दस्तावेज़ होता है, जिसमें पुलिस या सक्षम अधिकारी द्वारा किसी घटना स्थल की स्थिति या किसी बरामद वस्तु का विवरण गवाहों की उपस्थिति में दर्ज किया जाता है।
उदाहरण: अपराध स्थल का निरीक्षण पंचनामा, बरामदगी पंचनामा आदि।
9. सुसंगत तथ्य तथा विवाद्यक तथ्य में अन्तर कीजिए।
सुसंगत तथ्य और विवाद्यक तथ्य में अंतर:
सुसंगत तथ्य वे तथ्य होते हैं जो किसी मुकदमे से संबंधित होते हैं और जिनका उल्लेख भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 5 से 55 के अंतर्गत किया गया है। ये वे तथ्य होते हैं जो मुख्य विवाद को प्रमाणित करने या खंडन करने में सहायक होते हैं, लेकिन वे स्वयं मुख्य विवाद का हिस्सा नहीं होते। उदाहरण के लिए, यदि किसी हत्या के मामले में अभियुक्त के पास हथियार मिलने का तथ्य अदालत में प्रस्तुत किया जाता है, तो यह एक सुसंगत तथ्य होगा क्योंकि यह अपराध को प्रमाणित करने में मदद कर सकता है।
विवाद्यक तथ्य वे तथ्य होते हैं जो सीधे मुकदमे के मुख्य विवाद से जुड़े होते हैं और जिन पर न्यायालय को निर्णय देना होता है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 के अनुसार, विवाद्यक तथ्य वे तथ्य होते हैं जिनकी सत्यता या असत्यता अदालत के निर्णय पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिए, किसी हत्या के मुकदमे में यह प्रश्न कि “क्या अभियुक्त ने वास्तव में हत्या की?” एक विवाद्यक तथ्य होगा, क्योंकि मुकदमे का पूरा निर्णय इसी पर आधारित होगा।
संक्षेप में, सुसंगत तथ्य वे होते हैं जो किसी विवाद्यक तथ्य को प्रमाणित या खंडित करने में सहायक होते हैं, जबकि विवाद्यक तथ्य वे होते हैं जिन पर मुकदमे का मुख्य निर्णय निर्भर करता है।
10. सुसंगतता एवं ग्राह्यता में अन्तर कीजिए।
सुसंगतता (Relevancy) और ग्राह्यता (Admissibility) में अंतर:
सुसंगतता का अर्थ है कि कोई तथ्य किसी मुकदमे से तार्किक रूप से संबंधित है या नहीं। यदि कोई तथ्य मामले से जुड़ा हुआ है और किसी महत्वपूर्ण मुद्दे को स्पष्ट करता है, तो वह सुसंगत माना जाता है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 5 से 55 के अंतर्गत सुसंगत तथ्यों का उल्लेख किया गया है।
दूसरी ओर, ग्राह्यता का अर्थ यह है कि कोई सुसंगत तथ्य अदालत में स्वीकार किया जा सकता है या नहीं। यह न्यायालय के नियमों और कानूनी प्रक्रियाओं पर निर्भर करता है। सभी सुसंगत तथ्य ग्राह्य नहीं हो सकते, यदि वे अवैध रूप से प्राप्त किए गए हों या साक्ष्य अधिनियम के नियमों के अनुसार प्रस्तुत करने योग्य न हों।
उदाहरण के रूप में, किसी अभियुक्त का अपराध स्वीकार करना सुसंगत हो सकता है, लेकिन यदि वह जबरदस्ती लिया गया हो, तो वह ग्राह्य नहीं होगा। इस प्रकार, सुसंगतता तार्किक जुड़ाव से संबंधित है, जबकि ग्राह्यता कानूनी मानकों और प्रक्रियाओं पर निर्भर करती है।
11. ‘साबित’ से आप क्या समझते हैं?
“साबित” (Proved) का अर्थ है कि किसी तथ्य की सत्यता को पर्याप्त साक्ष्यों के आधार पर प्रमाणित कर दिया गया हो।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 3 के अनुसार, जब कोई न्यायालय किसी तथ्य को साक्ष्य के आधार पर सत्य मान लेता है, तो वह “साबित” कहलाता है।
उदाहरण: जब किसी व्यक्ति के डीएनए टेस्ट से यह साबित हो जाए कि वह किसी अपराध स्थल पर मौजूद था, तो यह “साबित” माना जाएगा।
प्रश्न 12 से 19 तक लॉन्ग आंसर
12. (क) ‘उपधारणा कर सकेगा’ और ‘उपधारणा करेगा’ की व्याख्या
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में दो प्रकार की उपधारणाओं (Presumptions) का उल्लेख किया गया है:
- ‘उपधारणा कर सकेगा’ (May Presume) – धारा 4
जब कोई तथ्य न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तो न्यायालय उसे सही मानने या न मानने के लिए स्वतंत्र होता है। इसे न्यायालय की विवेकाधीन उपधारणा (Discretionary Presumption) कहा जाता है। यदि कोई तथ्य प्रस्तुत किया जाता है, तो न्यायालय उसे प्रमाणित मान सकता है, लेकिन आवश्यक नहीं कि वह ऐसा करे।उदाहरण: यदि कोई दस्तावेज़ प्राचीन (30 वर्ष से अधिक पुराना) है, तो न्यायालय यह मान सकता है कि यह सही है, लेकिन वह इसे अनदेखा भी कर सकता है। - ‘उपधारणा करेगा’ (Shall Presume) – धारा 4
इसमें न्यायालय बाध्य होता है कि वह किसी विशेष तथ्य को प्रमाणित माने, जब तक कि विपरीत प्रमाण न दिया जाए। इसे विधिक उपधारणा (Legal Presumption) कहा जाता है।उदाहरण: यदि कोई पत्र सरकारी रिकॉर्ड से प्राप्त हुआ है, तो न्यायालय इसे प्रमाणित मानकर चलेगा, जब तक कि इसके विपरीत कोई प्रमाण न हो।
संक्षेप में, “May Presume” में न्यायालय के पास विवेकाधिकार होता है, जबकि “Shall Presume” में न्यायालय बाध्य होता है कि वह किसी तथ्य को तब तक सही माने, जब तक विपरीत प्रमाण न आ जाए।
(ख) ‘रेस जेस्टे’ सिद्धान्त का संक्षेप में वर्णन
Res Gestae एक लैटिन शब्द है, जिसका अर्थ है “घटना से संबंधित चीजें”। यह सिद्धांत भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 6 में निहित है। इस सिद्धांत के अनुसार, यदि कोई तथ्य किसी घटना का अविभाज्य हिस्सा है, तो उसे साक्ष्य के रूप में ग्राह्य माना जा सकता है, भले ही वह प्रत्यक्षदर्शी गवाही न हो।
महत्व:
- यह सिद्धांत साक्ष्य को अधिक विश्वसनीय बनाता है।
- यह उन तथ्यों को स्वीकार करने की अनुमति देता है जो किसी अपराध या घटना के तुरंत पहले, दौरान, या तुरंत बाद घटित हुए हों।
उदाहरण:
- यदि किसी हत्या के तुरंत बाद एक व्यक्ति “अरे! उसे मार दिया गया!” चिल्लाता है, तो यह बयान Res Gestae के अंतर्गत आएगा क्योंकि यह घटना के तुरंत बाद की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है।
- किसी लूट के दौरान पीड़ित का मदद के लिए चिल्लाना भी इस सिद्धांत के अंतर्गत स्वीकार्य साक्ष्य होगा।
न्यायिक दृष्टिकोण:
- Ratten v. The Queen (1972) केस में, एक महिला ने पुलिस को कॉल करके बताया कि उसके पति उसे मारने वाला है, और कुछ ही क्षणों में उसकी हत्या हो गई। इसे Res Gestae के तहत स्वीकार किया गया।
संक्षेप में, Res Gestae सिद्धांत घटना से जुड़े तत्कालीन तथ्यों को स्वीकार्य बनाता है, जिससे न्यायालय को वास्तविक स्थिति को समझने में मदद मिलती है।
13. स्वीकृति (Admission) का अर्थ
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 17 के अनुसार, स्वीकृति (Admission) का अर्थ है—
“कोई मौखिक या लिखित कथन, अथवा किसी व्यक्ति द्वारा किया गया ऐसा कार्य जिससे यह निष्कर्ष निकले कि वह किसी तथ्य की सत्यता को स्वीकार कर रहा है।”
सरल शब्दों में, जब कोई व्यक्ति किसी विवादित तथ्य को स्वीकार कर लेता है, तो उसे स्वीकृति कहते हैं।
उदाहरण:
- यदि कोई अभियुक्त कहता है, “मैंने अपने पड़ोसी के साथ झगड़ा किया था,” तो यह एक स्वीकृति होगी।
- यदि किसी व्यक्ति के हस्ताक्षर वाला उधार का दस्तावेज़ पेश किया जाता है और वह इसे स्वीकार कर लेता है, तो यह भी स्वीकृति मानी जाएगी।
स्वीकृति कौन कर सकता है?
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 18 से 20 के अनुसार, निम्नलिखित व्यक्ति स्वीकृति कर सकते हैं—
- पक्षकार (Parties to the suit):
- कोई भी व्यक्ति जो मुकदमे में पक्षकार हो, वह स्वीकृति कर सकता है।
- पक्षकार के प्रतिनिधि (Authorized Representatives):
- कोई एजेंट, वकील, या कानूनी प्रतिनिधि जो पक्षकार की ओर से अधिकृत हो।
- संपत्ति का हितधारी व्यक्ति (Person with Proprietary Interest):
- वह व्यक्ति जिसके पास मुकदमे से संबंधित संपत्ति या अधिकार हो।
- व्यक्ति जिनसे पक्षकार अपना हक प्राप्त करता है (Persons from whom the parties derive their interest):
- उदाहरण के लिए, किसी संपत्ति के पूर्व मालिक द्वारा किया गया कोई कथन, नया मालिक भी स्वीकार कर सकता है।
- कानूनी उत्तराधिकारी (Legal Representatives):
- किसी मृत व्यक्ति के उत्तराधिकारी या संपत्ति का उत्तराधिकारी स्वीकृति कर सकता है।
- प्राधिकृत सरकारी अधिकारी (Authorized Public Officials):
- यदि कोई सरकारी अधिकारी अपने पद के अधिकार से कोई स्वीकृति देता है, तो वह भी ग्राह्य हो सकती है।
महत्व:
स्वीकृति को महत्वपूर्ण साक्ष्य माना जाता है, लेकिन इसे पूर्ण प्रमाण नहीं माना जाता। न्यायालय को इसे अन्य साक्ष्यों के साथ परखना होता है।
14. संस्वीकृति (Confession) का अर्थ
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में “संस्वीकृति” (Confession) की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं दी गई है, लेकिन यह स्वीकृति (Admission) का एक विशेष प्रकार है। संस्वीकृति वह कथन है जिसमें कोई व्यक्ति अपने अपराध को स्वीकार करता है।
परिभाषा (Judicial Definition):
- Pakala Narayan Swamy v. Emperor (1939) के अनुसार, “संस्वीकृति” का अर्थ है कि अभियुक्त द्वारा दिया गया वह कथन जिसमें वह स्वीकार करता है कि उसने अपराध किया है।
उदाहरण:
- यदि कोई व्यक्ति पुलिस को यह कहता है, “मैंने उस व्यक्ति की हत्या कर दी,” तो यह संस्वीकृति कहलाएगी।
- यदि कोई आरोपी न्यायालय में कहता है, “मुझे अपने किए पर पछतावा है, मैंने चोरी की थी,” तो यह भी संस्वीकृति होगी।
न्यायिकेत्तर संस्वीकृति (Extra-Judicial Confession) का अर्थ
न्यायिकेत्तर संस्वीकृति वह संस्वीकृति होती है जो न्यायालय या मजिस्ट्रेट के समक्ष नहीं दी जाती, बल्कि किसी अन्य व्यक्ति के सामने की जाती है।
महत्वपूर्ण बिंदु:
- यह पुलिस, किसी मित्र, रिश्तेदार, पुजारी, डॉक्टर, या अन्य किसी तीसरे पक्ष के समक्ष दी जा सकती है।
- इसे अदालत में स्वीकार करने के लिए स्वतंत्र और स्वेच्छा से दिया जाना आवश्यक है।
- यदि संस्वीकृति जबरदस्ती, धोखे या धमकी से ली गई हो, तो यह ग्राह्य नहीं होगी।
उदाहरण:
- यदि कोई अभियुक्त अपने मित्र से कहता है, “मैंने ही उस व्यक्ति को मारा था,” तो यह न्यायिकेत्तर संस्वीकृति होगी।
- यदि कोई आरोपी पुजारी से अपने अपराध को स्वीकार करता है, तो इसे भी न्यायिकेत्तर संस्वीकृति माना जाएगा।
महत्व:
- न्यायिकेत्तर संस्वीकृति एक मजबूत साक्ष्य हो सकती है, लेकिन इसे हमेशा अन्य प्रमाणों के साथ जांचा जाता है।
- यह केवल तभी ग्राह्य होती है जब यह स्वेच्छा से और संदेह से परे हो।
15. स्वीकृति (Admission) और संस्वीकृति (Confession) में अंतर:
- स्वीकृति एक व्यापक शब्द है, जिसमें कोई व्यक्ति किसी तथ्य या परिस्थिति को स्वीकार करता है, चाहे वह उसके पक्ष में हो या विरोध में। यह केवल दीवानी और आपराधिक मामलों में किसी तथ्य की स्वीकृति हो सकती है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति यह स्वीकार करता है कि वह घटना स्थल पर मौजूद था, तो यह स्वीकृति कहलाएगी।
संस्वीकृति, स्वीकृति का एक विशेष प्रकार है, जो केवल आपराधिक मामलों में होती है। यह तब होती है जब कोई व्यक्ति स्वयं अपने अपराध को स्वीकार करता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई अभियुक्त यह कहता है कि उसने अपराध किया है, तो यह संस्वीकृति होगी।
स्वीकृति किसी भी प्रकार के मामले में हो सकती है, जबकि संस्वीकृति केवल आपराधिक मामलों से संबंधित होती है। स्वीकृति में व्यक्ति अपने पक्ष या विपक्ष में कोई तथ्य स्वीकार कर सकता है, लेकिन संस्वीकृति में आरोपी केवल अपने अपराध को स्वीकार करता है। इसके अलावा, स्वीकृति न्यायालय और अन्य व्यक्तियों के समक्ष की जा सकती है, जबकि संस्वीकृति को न्यायिक और न्यायिकेत्तर दो भागों में बांटा जाता है। संस्वीकृति को अदालत में साक्ष्य के रूप में अधिक महत्व दिया जाता है, जबकि स्वीकृति केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्य के रूप में उपयोग की जा सकती है।
16. प्रत्याहारी संस्वीकृति (Retracted Confession) का अर्थ
प्रत्याहारी संस्वीकृति का अर्थ है वापस ली गई संस्वीकृति। जब कोई अभियुक्त पहले अपना अपराध स्वीकार करता है (संस्वीकृति देता है) और बाद में उसे वापस ले लेता है या यह दावा करता है कि उसने दबाव, डर, या जोर-जबरदस्ती के कारण स्वीकारोक्ति की थी, तो इसे प्रत्याहारी संस्वीकृति कहा जाता है।
न्यायिक दृष्टिकोण:
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम में इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है, लेकिन न्यायालयों ने कई मामलों में इसे मान्यता दी है।
- Pakala Narayan Swamy v. Emperor (1939) केस में कहा गया कि संस्वीकृति तभी स्वीकार्य होती है जब वह स्वेच्छा से दी गई हो।
- यदि संस्वीकृति जबरदस्ती या प्रताड़ना से ली गई हो और अभियुक्त उसे अदालत में वापस ले ले, तो उसे संदेह की दृष्टि से देखा जाता है।
प्रत्याहारी संस्वीकृति का प्रमाणिकता पर प्रभाव:
- केवल संस्वीकृति के आधार पर दोषसिद्धि नहीं हो सकती – यदि कोई व्यक्ति अपनी संस्वीकृति को वापस लेता है, तो न्यायालय को अन्य स्वतंत्र प्रमाणों की सहायता से सत्यापन करना होगा।
- न्यायालय का विवेकाधिकार – यदि न्यायालय को लगता है कि संस्वीकृति स्वेच्छा से दी गई थी और बाद में अभियुक्त ने इसे रणनीति के तहत वापस लिया, तो इसे साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।
- पुलिस के समक्ष की गई संस्वीकृति – यदि कोई संस्वीकृति पुलिस हिरासत में दी गई और बाद में उसे वापस ले लिया गया, तो यह धारा 25 और 26 के तहत ग्राह्य नहीं होती।
उदाहरण:
- किसी आरोपी ने मजिस्ट्रेट के समक्ष स्वीकार किया कि उसने चोरी की, लेकिन बाद में अदालत में कहता है कि उसने यह बयान दबाव में दिया था। यह प्रत्याहारी संस्वीकृति होगी।
संक्षेप में, प्रत्याहारी संस्वीकृति न्यायालय द्वारा संदेह की दृष्टि से देखी जाती है और केवल स्वतंत्र व विश्वसनीय साक्ष्यों के साथ ही इसे स्वीकार किया जा सकता है।
17. स्वीकृतियाँ निश्चायक सबूत नहीं हैं, किन्तु विबन्ध कर सकती हैं – स्पष्टीकरण
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 31 के अनुसार, स्वीकृतियाँ (Admissions) निश्चायक प्रमाण (Conclusive Proof) नहीं होतीं, लेकिन वे उस व्यक्ति को बाध्य (Estop) कर सकती हैं जिसने स्वीकृति दी है।
1. स्वीकृतियाँ निश्चायक सबूत क्यों नहीं हैं?
स्वीकृतियाँ केवल प्रमाण के एक रूप के रूप में कार्य करती हैं, लेकिन वे अंतिम और निश्चायक सबूत नहीं होतीं। न्यायालय को अन्य स्वतंत्र साक्ष्यों के साथ इनका मूल्यांकन करना होता है।
- स्वीकृति वापस ली जा सकती है – यदि कोई व्यक्ति यह साबित कर दे कि उसने स्वीकृति दबाव, भय या गलती से दी थी, तो उसे अस्वीकार किया जा सकता है।
- पूर्ण साक्ष्य नहीं होती – एक स्वीकृति केवल एक पक्ष द्वारा दी गई होती है, जबकि न्यायालय को अन्य पक्षों से भी साक्ष्य प्राप्त करने होते हैं।
- अन्य प्रमाणों की आवश्यकता होती है – केवल स्वीकृति के आधार पर मुकदमे का निपटारा नहीं किया जाता, बल्कि अन्य स्वतंत्र साक्ष्यों के साथ इसकी पुष्टि आवश्यक होती है।
2. स्वीकृति विबन्ध (Estop) कैसे कर सकती है?
“Estoppel” का अर्थ है कि यदि कोई व्यक्ति किसी तथ्य को स्वीकार कर लेता है, तो बाद में वह उससे इनकार नहीं कर सकता।
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 115 के तहत, यदि कोई व्यक्ति किसी तथ्य को स्वीकार करता है और उसके आधार पर दूसरा पक्ष कार्य करता है, तो वह व्यक्ति बाद में अपने कथन से पीछे नहीं हट सकता।
- उदाहरण: यदि कोई मकान मालिक किरायेदार से कहता है कि वह किराया नहीं लेगा, और किरायेदार इस पर भरोसा करके भुगतान नहीं करता, तो बाद में मकान मालिक किराया मांगने से रोक दिया जाएगा।
निष्कर्ष:
स्वीकृतियाँ पूर्ण प्रमाण नहीं होतीं क्योंकि इन्हें अन्य साक्ष्यों के साथ परखा जाता है, लेकिन वे विबन्ध (Estop) कर सकती हैं, जिसका अर्थ है कि जिसने एक बार स्वीकृति दी, वह बाद में उससे इनकार नहीं कर सकता, यदि दूसरा पक्ष उस पर भरोसा करके कोई कार्य कर चुका हो।
18. दीवानी मामले में स्वीकृतियाँ कब सुसंगत होती हैं?
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 17 के अनुसार, दीवानी मामलों में स्वीकृतियाँ (Admissions) तब सुसंगत होती हैं जब वे किसी विवादित तथ्य को प्रमाणित करने के लिए प्रस्तुत की जाती हैं और वह तथ्य मामले से सीधे तौर पर संबंधित हो। स्वीकृति तब सुसंगत होती है जब वह किसी व्यक्ति द्वारा दी जाती है और वह तथ्य उसके पक्ष या विपक्ष में हो सकता है, या जो मामले के संदर्भ में महत्वपूर्ण हो।
स्वीकृतियाँ सुसंगत क्यों होती हैं?
- विवादित तथ्य का स्वीकार – स्वीकृति तब सुसंगत होती है जब कोई व्यक्ति किसी तथ्यों को स्वीकार करता है, जो दीवानी मामले में उसके खिलाफ हो। यह मान लिया जाता है कि यदि कोई व्यक्ति अपने प्रतिकूल तथ्य को स्वीकार करता है, तो वह प्रमाण के रूप में उपयोगी हो सकता है।उदाहरण:
- अगर कोई व्यक्ति कहता है कि “मुझे उस उधारी को चुकाने में कठिनाई हो रही है”, तो यह स्वीकृति दीवानी मामले में सुसंगत होगी यदि यह उधारी की स्वीकृति है।
- स्वीकार्य तथ्य – स्वीकृति उस तथ्य को प्रमाणित करने के लिए सहायक होती है जो मामले की प्रासंगिकता से संबंधित हो।उदाहरण:
- यदि किसी व्यक्ति ने यह स्वीकार किया है कि उसने निश्चित तारीख पर अनुबंध पर हस्ताक्षर किए थे, तो यह स्वीकृति उस तारीख की सहीता को प्रमाणित करने में सुसंगत होगी।
- एक पक्ष द्वारा दी गई स्वीकृति – स्वीकृति दोनों पक्षों की सहमति से दी जा सकती है, लेकिन एक पक्ष की स्वीकृति भी दूसरे पक्ष के पक्ष में प्रमाण के रूप में स्वीकार की जा सकती है।
दीवानी मामलों में स्वीकृतियाँ सुसंगत कब होती हैं?
- स्वीकृति संबंधित विवाद से – दीवानी मामलों में स्वीकृतियाँ तब सुसंगत होती हैं जब वे किसी विवादित तथ्य से संबंधित होती हैं। यदि कोई व्यक्ति किसी तथ्य को स्वीकार करता है जो मामले के संबंध में महत्वपूर्ण हो, तो वह सुसंगत माना जाता है।उदाहरण:
- यदि किसी संपत्ति के मालिक ने यह स्वीकार किया कि उसने एक निश्चित राशि पर बिक्री की थी, तो यह स्वीकृति उस बिक्री के साक्ष्य के रूप में सुसंगत होगी।
- विवादित पहलुओं पर स्वीकृति – जब कोई व्यक्ति किसी विवादित बिंदु को स्वीकार करता है, तो यह स्वीकृति उस मुद्दे को सुलझाने के लिए सुसंगत हो सकती है।उदाहरण:
- यदि कोई व्यक्ति स्वीकार करता है कि वह किसी अनुबंध के अनुसार भुगतान करने में विफल रहा, तो यह स्वीकृति दीवानी मामले में सुसंगत होगी।
- साक्ष्य के रूप में प्रासंगिकता – स्वीकृति तब सुसंगत होती है जब वह सीधे तौर पर किसी तथ्य या आरोप से संबंधित होती है और उसकी सत्यता को प्रमाणित करने में मदद करती है।
निष्कर्ष:
दीवानी मामलों में स्वीकृतियाँ तब सुसंगत होती हैं जब वे मुकदमे के विवादित तथ्य से संबंधित होती हैं और यह किसी व्यक्ति के पक्ष या विपक्ष में दी जाती हैं। वे साक्ष्य के रूप में उपयोगी हो सकती हैं, यदि वे मामले के समाधान के लिए महत्वपूर्ण तथ्यों को स्वीकार करती हैं।
19. क्या एक पुलिस अधिकारी के समक्ष की गई संस्वीकृति अभियुक्त के विरुद्ध साबित की जा सकती है?
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 25 के तहत, पुलिस अधिकारी के समक्ष की गई संस्वीकृति को अभियुक्त के खिलाफ साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। इसका मुख्य कारण यह है कि पुलिस अधिकारी के सामने की गई संस्वीकृति पर भय, दबाव या विवशता हो सकती है, जो न्यायिक दृष्टि से स्वेच्छा से दी गई संस्वीकृति के रूप में मान्य नहीं होती।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 का विवरण:
धारा 25 के अनुसार, “पुलिस अधिकारी के समक्ष दी गई संस्वीकृति को अभियुक्त के खिलाफ साबित नहीं किया जा सकता”। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि किसी अभियुक्त से कोई जबरन या दबाव डालकर बयान नहीं लिया जाए। पुलिस अधिकारी के समक्ष दी गई संस्वीकृति में यह संभावना रहती है कि अभियुक्त पर मानसिक दबाव हो सकता है, जिससे वह बिना स्वेच्छा के अपराध स्वीकार कर ले।
धारा 26 के अनुसार संस्वीकृति:
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 26 में कहा गया है कि यदि कोई संस्वीकृति पुलिस हिरासत में मजिस्ट्रेट के समक्ष दी जाती है, तो वह स्वीकार्य हो सकती है, लेकिन केवल जब यह स्वेच्छा से और बिना दबाव के दी गई हो।
संक्षेप में:
- पुलिस अधिकारी के समक्ष की गई संस्वीकृति केवल तभी स्वीकार्य नहीं होती जब यह पुलिस हिरासत में ली जाती है, क्योंकि यह आरोपित व्यक्ति के स्वतंत्रता के उल्लंघन और भय के कारण दी जा सकती है।
- पुलिस अधिकारी के समक्ष संस्वीकृति का कोई प्रमाणिक प्रभाव नहीं होता, और इसे अभियुक्त के खिलाफ प्रमाण के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता।
- हालांकि, मजिस्ट्रेट के समक्ष दी गई संस्वीकृति को कानून द्वारा प्रमाण के रूप में माना जा सकता है, यदि यह स्वेच्छा से दी गई हो।
20. अभियुक्त से प्राप्त सूचना का कितना अंश सिद्ध किया जा सकता है?
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के अनुसार, अभियुक्त से प्राप्त सूचना का वह अंश सिद्ध किया जा सकता है, जो उस सूचना के आधार पर पुलिस द्वारा बरामद की गई वस्तु से संबंधित हो। यदि अभियुक्त ने कोई जानकारी दी है और उसके आधार पर पुलिस ने कोई वस्तु बरामद की, तो उस सूचना के संबंधित भाग को ही साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। इस जानकारी का अन्य भाग स्वीकार्य नहीं होता, यदि वह अपराध के बारे में अपराधी के पक्ष में है।
21. लोकलक्षी निर्णय से आप क्या समझते हैं? उनके साक्ष्यिक महत्व का वर्णन कीजिए।
लोकलक्षी निर्णय (Judgment in Rem) वह निर्णय होता है जो विशेष वस्तु या व्यक्ति के अधिकारों से संबंधित होता है, न कि किसी व्यक्तिगत विवाद से। यह सामान्य रूप से सार्वजनिक मामलों या अधिकारों के बारे में होता है, जैसे संपत्ति के स्वामित्व या अन्य सार्वजनिक दावों के बारे में निर्णय।
साक्ष्यिक महत्व:
- लोकलक्षी निर्णय को प्रेसक्रिप्टिव प्रमाण (presumptive evidence) के रूप में माना जाता है।
- यह पार्टी या व्यक्तियों के खिलाफ साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है, जो उसके अंतर्गत आते हैं।
- उदाहरण के लिए, यदि कोई अदालत किसी संपत्ति के स्वामित्व का निर्णय देती है, तो वह निर्णय किसी अन्य व्यक्ति के दावे के खिलाफ प्रमाण हो सकता है।
- यह सार्वजनिक रिकॉर्ड का हिस्सा माना जाता है, और इसका प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि यह पहले से प्रमाणित होता है।
22. अनुश्रुत साक्ष्य ग्राह्य नहीं होता। इस सामान्य नियम के क्या अपवाद हैं?
अनुश्रुत साक्ष्य (Hearsay Evidence) वह साक्ष्य होता है जो सीधे या प्रत्यक्ष रूप से किसी व्यक्ति से नहीं लिया जाता, बल्कि वह किसी तीसरे व्यक्ति द्वारा बयान किया गया होता है। इसे सामान्यत: साक्ष्य के रूप में ग्राह्य नहीं माना जाता, क्योंकि यह बिना सत्यता के पेश किया जाता है और इसे जाँचने का कोई तरीका नहीं होता।
अपवाद (Exceptions):
- व्यक्तिगत ज्ञान (Personal Knowledge): अगर कोई व्यक्ति यह बयान देता है कि उसने किसी घटना को खुद देखा या सुना है, तो यह अनुश्रुत साक्ष्य नहीं माना जाएगा।
- प्रसिद्ध तथ्य (Public Facts): जो तथ्य सार्वजनिक रूप से ज्ञात हैं, उनका बयान अनुश्रुत साक्ष्य नहीं होगा।
- स्वीकृतियाँ (Admissions): अभियुक्त या अन्य व्यक्ति द्वारा की गई स्वीकृतियाँ अनुश्रुत साक्ष्य नहीं होतीं, क्योंकि इन्हें प्रमाणिक माना जाता है।
- द्वितीयक साक्ष्य (Secondary Evidence): यदि दस्तावेज़ खो जाने पर उसका बयान किया जाता है, तो वह अनुश्रुत नहीं माना जाएगा।
- स्वास्थ्य या मृत्यु से संबंधित बयान (Statements relating to health or death): जब कोई व्यक्ति अपनी मृत्यु से पहले कुछ बयान करता है, तो उसे अनुश्रुत साक्ष्य से बाहर माना जाता है।
23. “साक्ष्य तौली जाती है, गिनी नहीं जाती।” विवेचना कीजिए।
इसका अर्थ है कि साक्ष्य की गुणवत्ता अधिक महत्वपूर्ण है, संख्या नहीं। अदालत को केवल साक्ष्यों की संख्या नहीं, बल्कि उनकी विश्वसनीयता और प्रासंगिकता पर विचार करना चाहिए। अधिक साक्ष्य होने से निर्णय बदल नहीं सकता, यदि वे विश्वसनीय और प्रमाणिक नहीं हैं।
उदाहरण:
- यदि किसी मामले में एक विश्वसनीय गवाह है जो प्रमाणित करता है कि आरोपी ने अपराध किया, तो उस गवाह का एक बयान कई अन्य गवाहों के कम विश्वसनीय बयान से अधिक महत्वपूर्ण होगा।
24. प्रत्यक्ष साक्ष्य से आप क्या समझते हैं?
प्रत्यक्ष साक्ष्य (Direct Evidence) वह साक्ष्य होता है जो किसी तथ्य को सीधे प्रमाणित करता है। यह निश्चित रूप से घटनाओं या परिस्थितियों को स्पष्ट करता है।
उदाहरण:
- अगर कोई गवाह यह कहता है कि उसने अपराध होते हुए देखा, तो यह प्रत्यक्ष साक्ष्य होगा।
25. प्राथमिक साक्ष्य एवं द्वितीयक साक्ष्य में अन्तर स्पष्ट करें।
- प्राथमिक साक्ष्य (Primary Evidence): यह मूल दस्तावेज़ होता है जो किसी घटना या तथ्य का प्रमाण होता है।
उदाहरण: हस्ताक्षरित अनुबंध, मूल जन्म प्रमाण पत्र। - द्वितीयक साक्ष्य (Secondary Evidence): यह प्राथमिक साक्ष्य की प्रतिलिपि होती है, जो मूल दस्तावेज़ के उपलब्ध न होने पर पेश की जाती है।
उदाहरण: दस्तावेज़ की फोटोकॉपी, प्रमाणित प्रमाण पत्र।
26. किन परिस्थितियों में दस्तावेज की द्वितीयक साक्ष्य दी जा सकती है?
द्वितीयक साक्ष्य केवल तब दी जा सकती है जब मूल दस्तावेज़ नष्ट हो गया हो, खो गया हो, या उपलब्ध नहीं हो।
उदाहरण:
- यदि किसी दस्तावेज़ का मूल खो जाए, तो उसकी प्रमाणित प्रति या अन्य साक्ष्य प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
27. लोक दस्तावेज तथा निजी दस्तावेज में अंतर स्पष्ट कीजिए।
- लोक दस्तावेज़ (Public Documents): ये दस्तावेज़ सरकार या सार्वजनिक प्राधिकरण द्वारा तैयार किए जाते हैं, जैसे सरकारी आदेश, प्रमाण पत्र, शपथ पत्र।
- निजी दस्तावेज़ (Private Documents): ये दस्तावेज़ व्यक्तिगत व्यक्तियों के बीच होते हैं, जैसे व्यक्तिगत अनुबंध, शादियों के प्रमाण पत्र।
28. प्रत्यक्ष साक्ष्य एवं अनुश्रुत साक्ष्य में अन्तर स्पष्ट करें।
- प्रत्यक्ष साक्ष्य (Direct Evidence): यह साक्ष्य घटना को सीधे प्रमाणित करता है, जैसे गवाह द्वारा घटना को देखना या सुनना।
- अनुश्रुत साक्ष्य (Hearsay Evidence): यह साक्ष्य तीसरे व्यक्ति द्वारा किसी घटना के बारे में कहा गया बयान होता है, जिसे गवाह ने स्वयं नहीं देखा या सुना।
उदाहरण:
- प्रत्यक्ष साक्ष्य: गवाह ने कहा, “मैंने आरोपी को चोरी करते हुए देखा।”
- अनुश्रुत साक्ष्य: गवाह ने कहा, “मुझे बताया गया कि आरोपी ने चोरी की।”
29. किसी व्यक्ति का हस्तलेख कितने प्रकार से सिद्ध किया जा सकता है?
हस्तलेख (Handwriting) को निम्नलिखित प्रकार से सिद्ध किया जा सकता है:
- स्वीकृत पत्र (Admitted Writing): यदि कोई व्यक्ति अपना हस्तलेख स्वीकार करता है या किसी दस्तावेज़ पर उसके हस्ताक्षर या लिखावट के बारे में कोई विवाद नहीं है, तो यह प्रमाण के रूप में सिद्ध किया जा सकता है।
- तुलनात्मक हस्तलेख (Comparison of Handwriting): किसी दस्तावेज़ पर लिखे गए हस्तलेख को उस व्यक्ति के अन्य हस्तलेखों से मिलाकर सिद्ध किया जा सकता है। यह दस्तावेज़ और अन्य लिखावटों की तुलना के आधार पर किया जाता है।
- विशेषज्ञ द्वारा प्रमाणित (Expert Opinion): यदि हस्तलेख पर संदेह है, तो विशेषज्ञ (जिसे दस्तावेज़ विश्लेषक कहा जाता है) हस्तलेख की सच्चाई और प्रामाणिकता का मूल्यांकन कर सकता है।
30. (A) आपराधिक वादों में चरित्र के विषय में साक्ष्य कहाँ तक सुसंगत हैं?
अपराधी के चरित्र को अपराधिक मामलों में सामान्यत: साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है, क्योंकि इसका उद्देश्य किसी अपराधी के पिछले व्यवहार को दिखाकर वर्तमान अपराध को साबित करना होता है।
धारा 53 के अनुसार, अभियुक्त के चरित्र को तब साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है जब वह स्वयं अपने चरित्र को प्रमाणित करने का प्रयास करता है। चरित्र की साक्ष्यता अपराध के प्रकार और परिस्थिति पर निर्भर करती है, लेकिन साक्ष्य का महत्व तब होता है जब यह अपराध से संबंधित हो।
30. (B) विशेषज्ञ कौन है? कब विशेषज्ञ की राय सुसंगत होती है?
विशेषज्ञ (Expert) वह व्यक्ति होता है जिसके पास किसी विशिष्ट क्षेत्र में विशेष ज्ञान या कौशल होता है, जैसे विज्ञान, चिकित्सा, हस्तलेख, इंजीनियरिंग, आदि।
विशेषज्ञ की राय तब सुसंगत होती है जब वह किसी विशेषज्ञता के क्षेत्र में साक्ष्य देने के लिए अनुभव और शिक्षा के आधार पर विवेचना करता है।
उदाहरण के लिए, चिकित्सा विशेषज्ञ मेडिकल रिपोर्ट पर आधारित राय दे सकता है कि किसी व्यक्ति की चोट किस कारण से हुई।
31. (A) उन तथ्यों की विवेचना कीजिए जिनका साबित किया जाना आवश्यक नहीं है।
कुछ तथ्यों को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि वे स्वयं प्रमाणित होते हैं या सार्वजनिक ज्ञान में होते हैं।
उदाहरण:
- सार्वजनिक तथ्य जैसे सरकार द्वारा निर्धारित सार्वजनिक छुट्टियाँ।
- सभी न्यायालयों द्वारा माना गया तथ्य, जैसे राज्य की मुख्य भाषा।
- स्वीकार किए गए तथ्य: जैसे कि दस्तावेज़ की मूल प्रमाणिकता के बारे में स्वीकृति दी गई हो।
31. (B) दीवानी मामलों में चरित्र किस सीमा तक सुसंगत है?
दीवानी मामलों में चरित्र केवल प्रत्यक्ष रूप से प्रासंगिक होने पर ही सुसंगत हो सकता है। आम तौर पर चरित्र का साक्ष्य दीवानी मामलों में स्वीकृत नहीं होता, लेकिन यदि किसी व्यक्ति के चरित्र का साक्ष्य अनुबंध, संपत्ति विवाद, या अन्य अधिकार से संबंधित हो, तो इसे सुसंगत माना जा सकता है।
32. अनुश्रुत साक्ष्य को ग्राह्य न करने के क्या कारण हैं?
अनुश्रुत साक्ष्य (Hearsay Evidence) ग्राह्य नहीं होता क्योंकि यह किसी तीसरे पक्ष द्वारा दी गई जानकारी होती है, न कि साक्षी द्वारा प्रत्यक्ष रूप से देखी या सुनी गई।
मुख्य कारण:
- विश्वसनीयता की कमी: चूंकि यह किसी अन्य व्यक्ति के शब्दों पर आधारित होता है, इसलिए इसकी सत्यता की जांच नहीं की जा सकती।
- क्रॉस-एग्जामिनेशन का अभाव: साक्षी सीधे उपस्थित नहीं होता और इस कारण उस पर क्रॉस-एग्जामिनेशन नहीं किया जा सकता।
अपवाद: कुछ स्थितियों में अनुश्रुत साक्ष्य ग्राह्य हो सकता है, जैसे स्वीकृतियाँ, स्वास्थ्य संबंधी बयान, और मृत्यु से पहले के बयान।
33. ‘न्यायिक अवेक्षा’ से आप क्या समझते हैं?
न्यायिक अवेक्षा (Judicial Notice) वह प्रक्रिया है जिसमें न्यायालय किसी तथ्य को स्वतः ही अपनी न्यायिक सत्ताधिकार से स्वीकार करता है, बिना इसके लिए किसी साक्ष्य के।
यह आमतौर पर उन तथ्यों के लिए होता है जो सार्वजनिक रूप से ज्ञात होते हैं, जैसे न्यायालय द्वारा अंग्रेजी भाषा का प्रयोग या किसी विशेष दिन की तारीख़ की पहचान।
34. प्राथमिक और द्वितीयक साक्ष्य किसे कहते हैं?
- प्राथमिक साक्ष्य (Primary Evidence) वह होता है जो मूल दस्तावेज या वस्तु के रूप में पेश किया जाता है, जैसे कि हस्ताक्षरित अनुबंध।
- द्वितीयक साक्ष्य (Secondary Evidence) वह होता है जो मूल दस्तावेज के प्रतिलिपि के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जैसे फोटोकॉपी या साक्ष्य प्रमाण पत्र।
35. “मौखिक साक्ष्य प्रत्येक दशा में प्रत्यक्ष होना चाहिए”। विवेचना कीजिए।
मौखिक साक्ष्य वह साक्ष्य होता है जो किसी गवाह द्वारा सीधे अदालत में कहा जाता है। इसे प्रत्यक्ष साक्ष्य कहा जाता है, क्योंकि यह सीधे उस गवाह द्वारा दृश्य या श्रव्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
आलोचना:
- मौखिक साक्ष्य की विश्वसनीयता पर अधिक ध्यान दिया जाता है क्योंकि यह गवाह द्वारा दिया गया प्रत्यक्ष बयान होता है।
- लेकिन इसे अनुश्रुत साक्ष्य से अलग किया जाता है क्योंकि यह तृतीय पक्ष से नहीं आता।
36. इलेक्ट्रॉनिक अभिलेखों की ग्राह्यता को व्याख्यायित कोजिए।
इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख (Electronic Records) को धारा 65B के तहत भारतीय साक्ष्य अधिनियम में ग्राह्य किया गया है।
इन्हें साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, बशर्ते कि:
- सत्यापन के लिए इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेज़ पर उचित प्रमाण पत्र हो।
- अभिलेख स्वयं प्रामाणिक हो और संपत्ति की स्थिति को ठीक से रिकॉर्ड करता हो।
37. प्रकट संदिग्धता की व्याख्या कीजिए।
प्रकट संदिग्धता (Patent Ambiguity) वह स्थिति होती है जब किसी दस्तावेज़ या बयान में कोई स्पष्ट और साधारण भ्रम हो, जो जल्दी से समझ में आता है, जैसे कि नाम या तारीख का गलत उल्लेख।
38. ‘सह अपराधी’ कौन होता है? क्या वह सक्षम साक्षी है?
सह अपराधी (Accomplice) वह व्यक्ति होता है जो किसी अपराध में आरोपी के साथ शामिल होता है, और अपराध के घटित होने में मदद करता है।
साक्षी होने की स्थिति:
- सह अपराधी साक्षी हो सकता है, लेकिन उसके बयान को सहज विश्वास पर नहीं लिया जा सकता है, उसे अदालत में क्रॉस-एग्जामिनेशन का सामना करना पड़ता है।
- आमतौर पर, सह अपराधी का बयान तब स्वीकार किया जा सकता है जब उसे स्वीकृति दी जाए या विश्वसनीयता के प्रमाण हों।
39. एक तीस साल पुराना दस्तावेज कैसे सिद्ध किया जा सकता है?
तीस साल पुराना दस्तावेज प्राथमिक साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है यदि वह दस्तावेज़ अवधि के अनुसार सुरक्षित और स्वीकृत किया गया हो। इसके अतिरिक्त, द्वितीयक साक्ष्य भी प्रस्तुत किया जा सकता है, जैसे कि दस्तावेज की प्रमाणित प्रति।
इसके सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित तरीके हो सकते हैं:
- दस्तावेज की मौलिकता को प्रमाणित करना।
- स्वीकृति: यदि दस्तावेज़ को पहले से ही किसी कोर्ट या अन्य प्राधिकृत संस्था द्वारा स्वीकार किया गया हो।
- स्वीकृत गवाह: यदि कोई गवाह उस दस्तावेज को जानता है और उसे पहचानता है।
- अदालत द्वारा उसका अस्तित्व: कुछ दस्तावेज़ों का प्रमाण पूर्व में भी अदालत में लिया जा चुका हो।
40. “स्वामित्व” के बारे में सबूत के भार के विषय में क्या नियम है?
स्वामित्व (Ownership) का भार (Burden of Proof) तब होता है जब किसी व्यक्ति द्वारा अपनी स्वामित्व का दावा किया जाता है।
नियम:
- स्वामित्व का दावा करने वाला व्यक्ति यह साबित करने के लिए जिम्मेदार होता है कि वह उस संपत्ति का स्वामी है।
- उसे यह प्रमाणित करना होता है कि उसके पास उस संपत्ति का कानूनी अधिकार है।
- विपक्षी पक्ष को केवल यह चुनौती देने का अधिकार होता है कि स्वामित्व का दावा गलत है, न कि यह साबित करने की जिम्मेदारी कि वे संपत्ति के स्वामी हैं।
- उचित दस्तावेज़ या गवाहों द्वारा स्वामित्व साबित किया जा सकता है।
41. दहेज मृत्यु के विषय में क्या अवधारणा है?
दहेज मृत्यु (Dowry Death) के संबंध में धारा 304B भारतीय दंड संहिता (IPC) में यह अवधारणा दी गई है कि यदि किसी महिला की मृत्यु दहेज के कारण हुई हो, और मृत्यु के तीन साल के भीतर उसे उत्पीड़न या शोषण किया गया हो, तो यह दहेज हत्या मानी जा सकती है।
इस अवधारणा के अंतर्गत:
- मृत्यु से पहले उत्पीड़न या शोषण का प्रमाण आवश्यक होता है।
- दहेज के लिए हत्या के आरोप पर प्रसंग आधारित कानूनी निष्कर्ष निकाले जाते हैं।
- अन्य प्रमाणों के साथ यह साबित करना होता है कि महिला की मृत्यु दहेज उत्पीड़न के कारण हुई।
42. (क) विबन्धन का सिद्धान्त किस व्यक्ति पर लागू होता है?
विबन्धन (Estoppel) का सिद्धांत उस व्यक्ति पर लागू होता है जो किसी निश्चित तथ्य या स्थिति को मान्यता देता है और उससे संबंधित अपनी स्थिति को बदलने का प्रयास नहीं कर सकता।
विबन्धन के सिद्धांत के अनुसार:
- वह व्यक्ति जो किसी तथ्य को स्वीकार करता है, उससे मुकर नहीं सकता।
- यह किसी व्यक्ति द्वारा बयान या कार्य के आधार पर लागू होता है, जिससे दूसरे पक्ष को भरोसा हुआ हो।
42. (ख) विबन्धन तथा उपधारणा में अन्तर कीजिए।
विबन्धन (Estoppel) और उपधारणा (Presumption) में अंतर निम्नलिखित है:
- विबन्धन: यह एक कानूनी सिद्धांत है जो किसी व्यक्ति को अपने पिछले बयान या व्यवहार के आधार पर कुछ करने से रोकता है, यदि दूसरे पक्ष ने उस पर भरोसा किया हो। यह साक्ष्य के रूप में काम करता है।
- उपधारणा: यह एक कानूनी अनुमान है, जो कानून द्वारा निर्धारित होता है, जैसे किसी विशेष स्थिति में यह माना जाता है कि कुछ विशेष हुआ है, जब तक इसके विपरीत कोई साबित न करे। उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति की उपस्थिति को मृत घोषित कर देना अगर उसे लंबे समय तक देखा न जाए।
43. ‘मुख्य परीक्षा’ से आप क्या समझते हैं?
मुख्य परीक्षा (Examination-in-Chief) वह प्रक्रिया है जिसमें गवाह को अपने पक्ष में प्रमुख पक्ष द्वारा साक्ष्य देने के लिए सवाल पूछे जाते हैं। इस प्रक्रिया में:
- गवाह को साक्ष्य प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाती है।
- यह साक्षी के पक्ष द्वारा किया जाता है और इसमें सूक्ष्म और नेतृत्व प्रश्न (leading questions) नहीं पूछे जाते हैं।
44. पक्षद्रोही साक्षी के साक्ष्यिक महत्व का वर्णन कीजिए।
पक्षद्रोही साक्षी (Hostile Witness) वह व्यक्ति होता है जो अपने बयान से मुकरता है या जो अपने पक्ष के खिलाफ साक्ष्य देता है।
साक्ष्य का महत्व:
- क्रॉस-एग्जामिनेशन में पक्षद्रोही साक्षी को पूरी स्वतंत्रता मिलती है, जिससे दूसरे पक्ष को उस व्यक्ति से सच्चाई उजागर करने का अवसर मिलता है।
- अदालत उसे मान्यता दे सकती है, यदि साक्षी अपने पूर्व बयान से विरोध करता है और इसे चुनौती दी जाती है।
45. सूचक प्रश्न से आप क्या समझते हैं? सूचक प्रश्न कब पूछे जा सकते हैं?
सूचक प्रश्न (Leading Question) वह प्रश्न होते हैं जो गवाह से सही उत्तर का अनुमान लगाते हैं, जैसे “क्या आप यह कहते हैं कि आप उसे जानते हैं?”।
सूचक प्रश्न आमतौर पर मुख्य परीक्षा में नहीं पूछे जाते, लेकिन:
- क्रॉस-एग्जामिनेशन के दौरान सूचक प्रश्न पूछे जा सकते हैं।
- साक्षी को सही उत्तर की दिशा में प्रेरित किया जा सकता है।
46. साक्षी को प्रश्नों के लिखित उत्तर देने की अनुमति कब दी जा सकती है?
साक्षी को प्रश्नों के लिखित उत्तर देने की अनुमति तब दी जा सकती है, जब:
- साक्षी असमर्थ हो या किसी कारण से अपने उत्तर को बोलने में असमर्थ हो।
- न्यायालय ने लिखित उत्तर प्राप्त करने की अनुमति दी हो।
47. एक पत्नी ने यह विवरण दिया कि उसने अभियुक्त (अपने पति) को हत्या के दिन प्रातः काल से पूर्व जबकि कुछ अंधेरा था अपने घर की छत से उतरते देखा। वह भूसा की कोठरी तक गया फिर वापस आ गया और नहा-धोकर फिर वही धोती पहन ली। क्या पत्नी का यह कथन ग्राह्य है?
यह कथन (Statement) ग्राह्य नहीं हो सकता, क्योंकि यह पत्नी द्वारा किया गया बयान है, जो अपने पति के खिलाफ है।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(2) के तहत, एक पत्नी का बयान आमतौर पर अपने पति के खिलाफ ग्राह्य नहीं होता, क्योंकि यह अन्यथा की स्थिति में स्वीकृत नहीं किया जाता।
48. स्मृति ताजा करने से क्या तात्पर्य है?
स्मृति ताजा करना (Refreshing the memory) का तात्पर्य है उस गवाह से साक्ष्य प्रदान करने के दौरान उसकी स्मृति को पुनः जागृत करना, यदि उसे किसी घटना या स्थिति के बारे में पूरी जानकारी याद नहीं आ रही है। यह तब होता है जब गवाह द्वारा कागजात या दस्तावेज (जिनमें उसने पहले बयान दिए हैं या किसी स्थिति का उल्लेख किया है) का उपयोग किया जाता है ताकि वह अपनी स्मृति को पुनः सक्रिय कर सके और अपने बयान को सत्य और सटीक रूप में प्रस्तुत कर सके।
स्मृति ताजा करने के उदाहरण:
- गवाह को साक्षात्कार में एक दस्तावेज या नोट दिखाया जाता है जिससे वह अपने बयान को याद कर सके।
- गवाह अपनी पिछली गवाही का संदर्भ देता है।
49. साक्ष्य अधिनियम के अन्तर्गत बलात्संग के मामलों में न्यायालय क्या उपधारणा करेगा?
बलात्संग (Rape) के मामलों में साक्ष्य अधिनियम के अनुसार न्यायालय कुछ उपधारणाएँ करेगा, जैसे:
- धारा 114A के तहत न्यायालय यह उपधारणा कर सकता है कि यदि किसी महिला ने बलात्संग का आरोप किया है और उसके बाद उसने विलंब से रिपोर्ट की है, तो वह स्वतंत्र इच्छाशक्ति से बलात्कार का विरोध करती रही होगी।
- न्यायालय यह उपधारणा कर सकता है कि महिला का आरोप सत्य है, यदि बलात्संग के मामले में कोई अन्य साक्ष्य है जो उसके दावे को प्रमाणित करता है।
- यदि कोई महिला बलात्संग की घटना के बाद चुप रहती है, तो भी न्यायालय उसकी चुप्पी को साक्ष्य के रूप में मान सकता है, बशर्ते कि मांग के आधार पर कोई अपवाद न हो।
50. साक्षी की विश्वसनीयता पर अधिक्षेप।
साक्षी की विश्वसनीयता पर अधिक्षेप (Impeaching the credit of a witness) का तात्पर्य है कि साक्षी के बयान को संदेहास्पद और अविश्वसनीय बनाने के लिए कुछ तर्क और साक्ष्य प्रस्तुत करना। इसका उद्देश्य साक्षी के सत्यता और विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न लगाना है।
साक्षी की विश्वसनीयता खंडित करने के उपाय:
- साक्षी के पूर्व बयानों का विरोध: यदि साक्षी ने पहले किसी अन्य बयान में भिन्न रूप से जानकारी दी हो, तो उसे खंडित किया जा सकता है।
- साक्षी की विरोधाभासी गवाही: अगर साक्षी अपनी गवाही में विरोधाभासी बयान देता है, तो यह उसकी विश्वसनीयता को खंडित कर सकता है।
- साक्षी का व्यक्तिगत चरित्र: साक्षी के चरित्र पर सवाल उठाना भी उसकी विश्वसनीयता को प्रभावित कर सकता है, जैसे यदि उसे दूसरे मामलों में झूठ बोलने का इतिहास हो।
- स्वार्थपूर्ण उद्देश्य: यदि साक्षी का कोई स्वार्थपूर्ण उद्देश्य हो, जैसे किसी पक्ष के साथ मिलकर झूठ बोलना, तो उसकी गवाही पर सवाल उठाया जा सकता है।
- किसी कुकृत्य का सबूत: साक्षी के कुकृत्य (अपराध) का प्रमाण अगर मिलता है, तो उसकी गवाही को नकारा जा सकता है।
51. ‘अ’, ‘ब’ की हत्या के तुरन्त बाद पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया जाता है। वह पुलिस अधिकारी को बयान देता है कि उसने ‘ब’ की हत्या की, हत्या का हथियार (चाकू) गड्ढे में फेंक दिया। इसके इशारे पर चाकू गड्ढे से बरामद कर लिया जाता है। किस सीमा तक ‘अ’ का कथन साक्ष्य में ग्राह्य है? कारण सहित लिखिए।
‘अ’ का कथन साक्ष्य में ग्राह्य है, लेकिन साक्ष्य के विभिन्न पहलुओं के अनुसार इसे सीमित रूप से स्वीकार किया जा सकता है:
- स्वीकृत बयान: ‘अ’ का बयान कि उसने हत्या की और हत्या के हथियार (चाकू) को गड्ढे में फेंक दिया, एक स्वीकृत बयान माना जा सकता है क्योंकि यह पुलिस अधिकारी के समक्ष दिया गया बयान है। हालांकि, यह पुलिस अधिकारी के सामने दिया गया बयान एक स्वीकृत बयान हो सकता है और इसे साक्ष्य में लाया जा सकता है।
- धारा 27, भारतीय साक्ष्य अधिनियम: ‘अ’ का कथन जिसमें चाकू का स्थान उल्लेख किया गया, पुलिस द्वारा चाकू की बरामदगी की पुष्टि करने के बाद यह प्रासंगिक हो सकता है। क्योंकि धारा 27 के तहत पुलिस द्वारा बरामद हथियार (चाकू) का स्थान बताने वाला बयान ग्राह्य साक्ष्य हो सकता है।
- अन्य साक्ष्य: यह बयान महत्वपूर्ण होता है यदि चाकू की बरामदगी से हत्या का अस्तित्व और हथियार का प्रयोग प्रमाणित किया जाता है।
(क) न्यायिक कार्यवाहियों से आप क्या समझते हैं? भारतीय साक्ष्य अधिनियम कुछ कार्यवाहियों पर लागू नहीं होता। स्पष्ट करें।
न्यायिक कार्यवाहियाँ (Judicial Proceedings):
न्यायिक कार्यवाहियाँ वे कार्यवाहियाँ हैं जो न्यायालय द्वारा की जाती हैं और जिनमें न्यायिक अधिकार का प्रयोग होता है। यह कार्यवाहियाँ न्यायालयों के समक्ष कानूनी विवादों या मामलों की सुनवाई, विचारण, और निर्णय से संबंधित होती हैं। न्यायिक कार्यवाहियों में साक्ष्य का संग्रहण, गवाहों की गवाही, अभियुक्तों की सजा या आरोप आदि शामिल होते हैं। इन कार्यवाहियों में न्यायाधीश, वकील, अभियुक्त, गवाह, और अन्य पक्षकार मिलकर न्यायिक प्रक्रिया का पालन करते हैं।
न्यायिक कार्यवाहियों में शामिल होने वाले कुछ उदाहरण हैं:
- अपराध मामले (Criminal Cases)
- दीवानी मामले (Civil Cases)
- साक्षात्कार (Examination of witnesses)
- आदेशों और फैसलों की सुनवाई (Hearing of Orders and Judgments)
- अधिकारों की विवादित समझौता प्रक्रिया (Disputed Settlement of Rights)
भारतीय साक्ष्य अधिनियम का कुछ कार्यवाहियों पर लागू न होना:
भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Indian Evidence Act) उन न्यायिक कार्यवाहियों में लागू नहीं होता, जो न्यायालय से बाहर या विशेष प्रकार की कार्यवाहियों से संबंधित होती हैं। साक्ष्य अधिनियम का उद्देश्य न्यायिक प्रक्रिया में साक्ष्य की उपयोगिता और स्वीकार्यता को निर्धारित करना है, लेकिन यह कुछ विशेष कार्यवाहियों में लागू नहीं होता। आइए जानते हैं उन कार्यवाहियों के बारे में जहाँ यह अधिनियम लागू नहीं होता:
- सैन्य न्यायालयों (Military Courts): भारतीय साक्ष्य अधिनियम सैन्य न्यायालयों में लागू नहीं होता। इन न्यायालयों में सैन्य अनुशासन और प्रक्रिया के अनुसार साक्ष्य का मूल्यांकन किया जाता है, और वहां पर विशेष कानून लागू होते हैं।
- विधायी कार्यवाहियाँ (Legislative Proceedings): विधायी कार्यवाहियों में भारतीय साक्ष्य अधिनियम का पालन नहीं किया जाता। यह कार्यवाहियाँ संसद, राज्य विधानमंडल और अन्य विधायी निकायों में होती हैं, जहाँ साक्ष्य को अलग तरीके से माना जाता है। उदाहरण के तौर पर, संसद में एक सदस्य का बयान या भाषण सामान्य साक्ष्य के रूप में नहीं लिया जाता।
- सार्वजनिक अधिकारियों की कार्यवाही (Public Authorities Proceedings): कुछ विशेष प्रकार की सरकारी कार्यवाहियाँ, जैसे कि लोक सेवक के निर्णय या आदेश, साक्ष्य अधिनियम के तहत नहीं आतीं। यहां पर प्रशासनिक या शासकीय नियम लागू होते हैं।
- न्यायिक अधिकार क्षेत्र से बाहर के मामले (Non-Judicial Proceedings): भारतीय साक्ष्य अधिनियम न्यायिक कार्यवाहियों के बजाय न्यायिक अधिकार क्षेत्र से बाहर की कार्यवाहियों पर लागू नहीं होता, जैसे कि सामान्य समझौते, संपत्ति के लेन-देन के मामले आदि।
- पारिवारिक मामलों में (Family Matters): भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत कुछ पारिवारिक मामलों में साक्ष्य को स्वीकार नहीं किया जाता, विशेष रूप से जब मामला धार्मिक या सांस्कृतिक नियमों से जुड़ा हो।
निष्कर्ष:
भारतीय साक्ष्य अधिनियम मुख्य रूप से न्यायिक कार्यवाहियों में लागू होता है, लेकिन यह सभी प्रकार की कार्यवाहियों पर लागू नहीं होता, जैसे कि सैन्य न्यायालयों, विधायी कार्यवाहियों, और प्रशासनिक प्रक्रियाओं पर। इन कार्यवाहियों में साक्ष्य की स्वीकृति और मूल्यांकन अलग तरीके से किया जाता है और विशेष कानूनी मानदंड होते हैं।
(ख) ‘साक्ष्य’ शब्द की परिभाषा दीजिए। भारतीय साक्ष्य अधिनियम अन्तर्गत वर्णित विभिन्न साक्ष्यों को बतलाइये।
‘साक्ष्य’ (Evidence) की परिभाषा:
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के धारा 3 के अनुसार, साक्ष्य वह सभी तथ्य होते हैं, जो किसी विवादित मामले में, किसी व्यक्ति के कथन, दस्तावेज, या अन्य साधनों के माध्यम से, सत्यता या असत्यता सिद्ध करने के लिए न्यायालय में प्रस्तुत किए जाते हैं। इसे प्रत्यायन, गवाही, दस्तावेज़ या किसी अन्य तरीके से प्रस्तुत किया जा सकता है।
साक्ष्य शब्द का मुख्य उद्देश्य विवादित तथ्य को सिद्ध करना है, ताकि न्यायालय किसी विशेष मामले में निर्णय ले सके। साक्ष्य उन तथ्यों के रूप में होता है जिनसे यह निर्णय लिया जाता है कि संबंधित घटना, अपराध या घटना सच है या नहीं।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अन्तर्गत वर्णित विभिन्न साक्ष्य:
भारतीय साक्ष्य अधिनियम में विभिन्न प्रकार के साक्ष्यों का उल्लेख किया गया है, जिनका उपयोग किसी मामले में सत्यता या असत्यता को सिद्ध करने के लिए किया जा सकता है। ये प्रकार निम्नलिखित हैं:
- मुख्य साक्ष्य (Primary Evidence):
- मुख्य साक्ष्य वह साक्ष्य है, जिसमें कोई प्रामाणिक दस्तावेज़ या वस्तु प्रस्तुत की जाती है, जो खुद उस घटना का प्रमाण हो। उदाहरण के लिए, किसी दस्तावेज़ का असली रूप या वस्तु जैसे हथियार, सामान आदि।
- उदाहरण: अगर किसी समझौते का दस्तावेज़ विवादित है, तो वह दस्तावेज़ मुख्य साक्ष्य होगा।
- द्वितीयक साक्ष्य (Secondary Evidence):
- द्वितीयक साक्ष्य वह होता है जो मुख्य साक्ष्य के अभाव में प्रस्तुत किया जाता है, जैसे कि दस्तावेज़ की प्रतिलिपि या साक्षी का बयान।
- उदाहरण: यदि मुख्य दस्तावेज़ खो गया है, तो उसकी नकल या फोटो द्वितीयक साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत की जा सकती है।
- मौखिक साक्ष्य (Oral Evidence):
- मौखिक साक्ष्य वह साक्ष्य होता है, जिसमें व्यक्ति द्वारा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में बयान दिया जाता है। यह गवाही के रूप में होता है और किसी व्यक्ति के कहे गए शब्द को सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया जाता है।
- उदाहरण: गवाहों द्वारा मामले में उनके अनुभव या जानकारी पर आधारित बयान।
- लिखित साक्ष्य (Documentary Evidence):
- लिखित साक्ष्य वह दस्तावेज़ होते हैं जो किसी बात या घटना को प्रमाणित करते हैं। इसमें पत्र, समझौते, अनुबंध, चिठ्ठियाँ, प्रमाण पत्र आदि आते हैं।
- उदाहरण: एक विक्रय समझौता या कानूनी दस्तावेज़ जो किसी घटना के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
- संदेहात्मक साक्ष्य (Circumstantial Evidence):
- संदेहात्मक साक्ष्य वह साक्ष्य होते हैं, जो प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में नहीं होते, लेकिन उनसे किसी घटना के घटित होने की संभावना को व्यक्त किया जा सकता है। इसे परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी कहा जाता है।
- उदाहरण: अभियुक्त का हत्या स्थल के पास पाया जाना, जहां हत्या हुई हो।
- विशेषज्ञ साक्ष्य (Expert Evidence):
- विशेषज्ञ साक्ष्य वह साक्ष्य है, जिसे विशेषज्ञ व्यक्ति (जो किसी विशेष क्षेत्र में प्रशिक्षित होते हैं) अपने ज्ञान, अनुभव और कौशल के आधार पर प्रस्तुत करते हैं।
- उदाहरण: किसी डॉक्टर का बयान कि किस प्रकार किसी चोट का कारण मृत्यु हो सकता है, या एक फोरेंसिक विशेषज्ञ का बयान।
- स्वीकृति (Admission):
- स्वीकृति वह कथन होता है, जो पार्टी द्वारा अपनी दोषी स्थिति को स्वीकारने के रूप में दिया जाता है। इसे साक्ष्य के रूप में अदालत में प्रस्तुत किया जा सकता है।
- उदाहरण: अभियुक्त का यह स्वीकार करना कि उसने अपराध किया है।
- संस्वीकृति (Confession):
- संस्वीकृति वह बयान होता है, जिसमें अभियुक्त अपनी अपराधी स्थिति को पूर्ण रूप से स्वीकार करता है। इसे विशेष रूप से गवाहों या पुलिस द्वारा रिकार्ड किया जा सकता है।
- उदाहरण: अभियुक्त द्वारा पुलिस के सामने यह स्वीकार करना कि उसने अपराध किया है।
- अनुश्रुत साक्ष्य (Hearsay Evidence):
- अनुश्रुत साक्ष्य वह होता है, जो सीधे रूप से किसी घटना का गवाह नहीं होता, बल्कि किसी और के बयान या जानकारी के आधार पर होता है। इसे सामान्य रूप से स्वीकृत नहीं किया जाता।
- उदाहरण: अगर किसी गवाह ने केवल यह सुना है कि किसी ने अपराध किया, तो वह अनुश्रुत साक्ष्य होगा।
निष्कर्ष:
भारतीय साक्ष्य अधिनियम में विभिन्न प्रकार के साक्ष्य हैं, जिनका उपयोग किसी भी विवादित मामले में सत्यता या असत्यता को सिद्ध करने के लिए किया जाता है। ये साक्ष्य मुख्य, द्वितीयक, मौखिक, लिखित, संदेहात्मक, विशेषज्ञ, स्वीकृति, संस्वीकृति और अनुश्रुत साक्ष्य आदि के रूप में हो सकते हैं। इन साक्ष्यों का महत्व यह है कि वे न्यायालय में मामले के परिणाम को प्रभावित करने के लिए तथ्य और सबूत प्रदान करते हैं।