सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय: सह-प्रतिवादी के विरुद्ध काउंटर-क्लेम दायर नहीं किया जा सकता — Rajul Manoj Shah बनाम Kiranbhai Shakrabhai Patel (2025)
(A Landmark Judgment on the Scope of Counter-Claim under Order VIII Rule 6-A of CPC)
परिचय (Introduction)
भारतीय सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Civil Procedure Code – CPC) में मुकदमों के संचालन की प्रक्रिया का विस्तार से उल्लेख है। इसमें Order VIII Rule 6-A एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रावधान है, जो प्रतिवादी (Defendant) को यह अधिकार देता है कि वह वादी (Plaintiff) के विरुद्ध एक Counter-Claim (प्रतिदावा) दायर कर सके।
परंतु वर्षों से एक प्रश्न न्यायपालिका के समक्ष आता रहा है — क्या कोई प्रतिवादी किसी सह-प्रतिवादी (Co-Defendant) के विरुद्ध भी Counter-Claim दायर कर सकता है?
इस जटिल और महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 2025 में Rajul Manoj Shah @ Rajeshwari Rasiklal Sheth बनाम Kiranbhai Shakrabhai Patel एवं अन्य मामले में दिया। यह निर्णय न केवल सिविल प्रक्रिया की व्याख्या को स्पष्ट करता है, बल्कि न्यायिक संतुलन की दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
मामले की पृष्ठभूमि (Background of the Case)
यह मामला गुजरात राज्य से संबंधित था, जहाँ दो प्रतिवादी एक ही मुकदमे में पक्षकार थे।
वादी ने दोनों प्रतिवादियों के विरुद्ध संपत्ति से संबंधित विवाद में सिविल सूट दायर किया था। मुकदमे के दौरान एक प्रतिवादी ने दूसरे प्रतिवादी के विरुद्ध एक Counter-Claim (प्रतिदावा) दाखिल किया।
गुजरात उच्च न्यायालय (Gujarat High Court) ने इसे स्वीकार करते हुए कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) में ऐसा कोई स्पष्ट निषेध नहीं है कि एक प्रतिवादी किसी सह-प्रतिवादी के विरुद्ध काउंटर-क्लेम नहीं कर सकता।
परंतु इस आदेश को चुनौती देते हुए मामला सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया में लाया गया। न्यायालय को यह तय करना था कि —
“क्या Order VIII Rule 6-A CPC के अंतर्गत काउंटर-क्लेम केवल वादी के विरुद्ध ही किया जा सकता है, या फिर किसी सह-प्रतिवादी के विरुद्ध भी संभव है?”
विधिक प्रश्न (Legal Issue)
मामले में उठाया गया प्रमुख प्रश्न था —
क्या Order VIII Rule 6-A CPC के अंतर्गत काउंटर-क्लेम केवल Plaintiff के विरुद्ध किया जा सकता है, या फिर Co-Defendant के विरुद्ध भी?
यह प्रश्न सिविल मुकदमों की प्रकृति और प्रतिवादी के अधिकारों की सीमाओं से जुड़ा हुआ था।
संबंधित विधिक प्रावधान (Relevant Legal Provision)
Order VIII Rule 6-A, CPC कहता है —
“A defendant in a suit may, in addition to his right of pleading a set-off, set up by way of counter-claim against the plaintiff any right or claim…”
इससे यह स्पष्ट होता है कि “Counter-Claim” का अधिकार केवल “Plaintiff” के विरुद्ध दिया गया है, न कि किसी अन्य Defendant के विरुद्ध।
हालांकि, कुछ मामलों में निचली अदालतों ने इसे व्यापक अर्थ में लिया था, जिसके कारण न्यायिक व्याख्या की आवश्यकता उत्पन्न हुई।
सुप्रीम कोर्ट में पक्षकारों के तर्क (Arguments Before the Supreme Court)
वादी (Appellant) – Rajul Manoj Shah की ओर से यह तर्क दिया गया कि —
- Order VIII Rule 6-A CPC की भाषा स्पष्ट है — इसमें “against the plaintiff” शब्द का प्रयोग किया गया है।
- इसका अर्थ यह है कि Counter-Claim केवल Plaintiff के विरुद्ध दायर किया जा सकता है, किसी Co-Defendant के विरुद्ध नहीं।
- यदि Co-Defendant के विरुद्ध दावा करना है, तो अलग Suit दायर किया जाना चाहिए।
प्रत्युत्तर में (Respondent) —
Kiranbhai Shakrabhai Patel की ओर से यह दलील दी गई कि —
- CPC का उद्देश्य विवादों का संपूर्ण और शीघ्र निपटारा करना है।
- यदि एक ही मुकदमे में सभी पक्षों के बीच विवाद हल हो जाएँ, तो न्यायिक संसाधनों की बचत होगी।
- इसलिए, यदि दो प्रतिवादियों के बीच विवाद का विषय समान है, तो Counter-Claim स्वीकार किया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय (Judgment of the Supreme Court)
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने (जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस संजय करोल की बेंच ने) अपने निर्णय में स्पष्ट कहा कि —
“Order VIII Rule 6-A CPC के अंतर्गत काउंटर-क्लेम केवल Plaintiff के विरुद्ध ही किया जा सकता है, न कि किसी Co-Defendant के विरुद्ध।”
न्यायालय ने यह भी कहा कि यह प्रावधान “Plain and Unambiguous” है — इसका सीधा और स्पष्ट अर्थ यही है कि Defendant केवल वादी के खिलाफ ही प्रतिदावा कर सकता है।
इस प्रकार, गुजरात उच्च न्यायालय का आदेश रद्द (Set Aside) कर दिया गया।
न्यायालय की मुख्य टिप्पणियाँ (Key Observations of the Court)
- Counter-Claim का उद्देश्य
न्यायालय ने कहा कि Counter-Claim का उद्देश्य वादी द्वारा दायर दावे का उत्तर देना और संबंधित विवादों को एक साथ सुलझाना है।
यह तंत्र “Plaintiff vs. Defendant” के बीच की प्रक्रिया के लिए बनाया गया है, न कि “Defendant vs. Defendant” के लिए। - न्यायिक प्रक्रिया की सीमा
यदि किसी Defendant को अपने Co-Defendant के विरुद्ध दावा करना है, तो उसे स्वतंत्र Suit दायर करना होगा।
अन्यथा, यह न्यायिक प्रक्रिया के सिद्धांतों का उल्लंघन होगा। - Statutory Interpretation (वैधानिक व्याख्या)
कोर्ट ने कहा कि जहाँ कानून की भाषा स्पष्ट हो, वहाँ न्यायालय को उसके अर्थ में कोई विस्तार नहीं करना चाहिए।
CPC की यह धारा बिल्कुल स्पष्ट है और इसमें किसी विस्तारित व्याख्या की आवश्यकता नहीं है। - Judicial Economy का तर्क अस्वीकार
न्यायालय ने यह माना कि यद्यपि न्यायिक अर्थव्यवस्था (Judicial Economy) का सिद्धांत महत्त्वपूर्ण है, परंतु यह विधि के स्पष्ट प्रावधानों की अवहेलना नहीं कर सकता।
न्यायालय ने कहा —“Efficiency cannot override explicit statutory limitation.”
न्यायालय द्वारा उद्धृत पूर्ववर्ती निर्णय (Precedents Referred)
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कई पुराने मामलों का उल्लेख किया —
- Rohit Singh vs. State of Bihar (2006) 12 SCC 734
जिसमें कहा गया था कि काउंटर-क्लेम केवल वादी के विरुद्ध ही संभव है। - Kailash Chandra vs. Vinod Kumar (2012) — जहाँ कोर्ट ने यह कहा था कि Counter-Claim एक “Cross-Suit” की तरह कार्य करता है, परंतु उसका दायरा सीमित है।
- Mahendra Kumar vs. State of M.P. (1987) 3 SCC 265 — जिसमें Counter-Claim की प्रक्रिया पर स्पष्ट मार्गदर्शन दिया गया था।
इन सभी निर्णयों का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वर्तमान निर्णय इन्हीं न्यायिक सिद्धांतों की निरंतरता है।
कानूनी प्रभाव (Legal Implications of the Judgment)
- स्पष्टता स्थापित
अब यह स्पष्ट हो गया है कि Counter-Claim केवल Plaintiff के विरुद्ध ही दायर किया जा सकता है।
किसी Co-Defendant के विरुद्ध कोई प्रतिदावा अवैध और अमान्य माना जाएगा। - सिविल मुकदमों की प्रक्रिया में स्पष्ट सीमा
यह निर्णय सिविल मुकदमों में Defendants के बीच विवादों की सीमा तय करता है।
अब Defendants को अलग से Suit दायर करना होगा। - निचली अदालतों के लिए मार्गदर्शन
यह फैसला Lower Courts के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में कार्य करेगा, जिससे वे Counter-Claim के दायरे को गलत तरीके से विस्तारित न करें। - विधिक शिक्षा और प्रैक्टिस में महत्व
कानून के छात्रों और अधिवक्ताओं के लिए यह निर्णय CPC की व्याख्या का एक महत्वपूर्ण उदाहरण बन गया है।
न्यायिक सिद्धांत का विश्लेषण (Doctrinal Analysis)
यह निर्णय विधिक सिद्धांत के उस मूलभूत सिद्धांत को पुनः पुष्ट करता है कि —
“Where the language of the statute is clear, there is no scope for interpretation.”
अर्थात, जहाँ कानून का शब्द स्पष्ट है, वहाँ न्यायालय को उसके परे जाकर अर्थ निकालने का अधिकार नहीं है।
इस सिद्धांत का पालन करते हुए कोर्ट ने न्यायिक सीमाओं का सम्मान किया।
निष्कर्ष (Conclusion)
Rajul Manoj Shah @ Rajeshwari Rasiklal Sheth बनाम Kiranbhai Shakrabhai Patel (2025) निर्णय भारतीय सिविल प्रक्रिया कानून में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है।
इससे स्पष्ट हो गया है कि —
- Counter-Claim का अधिकार केवल वादी के विरुद्ध है।
- सह-प्रतिवादियों के बीच के विवादों को स्वतंत्र Suit के माध्यम से सुलझाया जाना चाहिए।
- न्यायिक दक्षता के नाम पर विधिक प्रावधानों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता।
यह निर्णय भविष्य में सिविल मुकदमों के संचालन को अधिक संगठित और विधिसम्मत बनाएगा।
इसने न केवल न्यायिक प्रक्रिया की स्पष्टता बढ़ाई है, बल्कि “Rule of Law” के सिद्धांत को भी सुदृढ़ किया है।