⚖️ “सहानुभूति नियुक्ति में देरी को लेकर ओडिशा उच्च न्यायालय का मानवीय दृष्टिकोण: मृत्यु प्रमाणपत्र की औपचारिकता न्याय में बाधा नहीं बन सकती”
(Case Analysis on Orissa High Court Direction on Compassionate Appointment, 2025)
प्रस्तावना
भारतीय न्याय व्यवस्था का एक प्रमुख उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि प्रशासनिक प्रक्रियाएँ न्याय के उद्देश्य को बाधित न करें। हाल ही में ओडिशा उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए यह स्पष्ट किया कि मृत्यु प्रमाणपत्र जैसे औपचारिक दस्तावेज़ों की देरी के कारण किसी कर्मचारी के परिवार को सहानुभूति नियुक्ति (Compassionate Appointment) से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।
यह निर्णय न केवल प्रशासनिक दक्षता और मानवीय संवेदना के संतुलन को रेखांकित करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि न्यायपालिका संवेदनशील मामलों में औपचारिकताओं से अधिक वास्तविक परिस्थितियों को महत्व देती है।
मामले की पृष्ठभूमि
मामला एक ऐसे सरकारी कर्मचारी से संबंधित था जो सेवा के दौरान निधन हो गया। उनकी मृत्यु के बाद परिवार ने सहानुभूति नियुक्ति के लिए आवेदन किया, परंतु यह आवेदन निर्धारित समय सीमा (limitation period) के बाद प्रस्तुत किया गया था।
सरकारी अधिकारियों ने आवेदन यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि निर्धारित अवधि बीत चुकी है, जबकि परिवार ने यह तर्क दिया कि मृत्यु प्रमाणपत्र, विधिक उत्तराधिकारी प्रमाणपत्र (Legal Heir Certificate) और दुर्बलता प्रमाणपत्र (Distress Certificate) प्राप्त करने में काफी समय लग गया, जिससे आवेदन में देरी हुई।
मुख्य मुद्दा
यह मामला दो महत्वपूर्ण प्रश्नों पर केंद्रित था:
- क्या मृत्यु प्रमाणपत्र या अन्य दस्तावेजों को प्राप्त करने में लगी देरी को सहानुभूति नियुक्ति के लिए आवेदन की समय सीमा से बाहर रखा जा सकता है?
- क्या राज्य सरकार को ऐसे मामलों में अधिक उदार और मानवीय दृष्टिकोण अपनाना चाहिए?
न्यायालय का अवलोकन
1. मृत्यु प्रमाणपत्र ‘पूर्वानुमान’ में नहीं बन सकता:
न्यायमूर्ति ने यह स्पष्ट किया कि कोई भी व्यक्ति “anticipation of death” (मृत्यु की संभावना) में मृत्यु प्रमाणपत्र प्राप्त नहीं कर सकता। यह दस्तावेज़ केवल मृत्यु के बाद ही जारी किया जा सकता है, और इसके लिए नगर निगम या ग्राम पंचायत जैसी संस्थाओं की औपचारिक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।
इसलिए, यदि परिवार को प्रमाणपत्र प्राप्त करने में विलंब होता है, तो इसे उनकी गलती नहीं माना जा सकता।
2. प्रशासन को मानवीय दृष्टिकोण अपनाना चाहिए:
अदालत ने कहा कि प्रशासन को इस प्रकार के मामलों में “liberal and humanitarian approach” अपनाना चाहिए। सहानुभूति नियुक्ति का उद्देश्य परिवार को तत्काल राहत प्रदान करना है, न कि तकनीकी कारणों से उन्हें और अधिक परेशान करना।
न्यायालय ने कहा —
“Compassionate appointment is not a bounty but a measure of social justice intended to provide immediate financial relief to the bereaved family of the deceased employee.”
3. समय सीमा की गणना में छूट का निर्देश:
न्यायालय ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह ऐसे मामलों में मृत्यु प्रमाणपत्र, विधिक उत्तराधिकारी प्रमाणपत्र और अन्य आवश्यक दस्तावेज़ प्राप्त करने में लगा समय सीमा अवधि (limitation period) से बाहर रखे।
इसका अर्थ यह है कि यदि परिवार ने दस्तावेज़ प्राप्त करने के लिए आवेदन किया और उसमें प्रशासनिक विलंब हुआ, तो उस अवधि को “delay period” नहीं माना जाएगा।
कानूनी प्रावधानों का संदर्भ
(i) Compassionate Appointment Policy:
सहानुभूति नियुक्ति की नीति का उद्देश्य मृतक कर्मचारी के परिवार को आर्थिक संकट से उबारना है। यह नीति सामाजिक न्याय के सिद्धांतों पर आधारित है।
(ii) Administrative Law Perspective:
प्रशासनिक कानून यह कहता है कि जहां विवेकाधिकार (discretion) दिया गया है, वहाँ अधिकारी को निष्पक्षता और संवेदना के साथ निर्णय लेना चाहिए।
(iii) Constitutional Mandate:
अनुच्छेद 14 और 21 के तहत न्यायालय ने बार-बार कहा है कि प्रशासनिक निर्णय मानव गरिमा और समानता के सिद्धांतों के अनुरूप होने चाहिए।
न्यायालय के अवलोकन का मानवीय दृष्टिकोण
न्यायमूर्ति ने यह भी कहा कि जब कोई परिवार अपने सदस्य की मृत्यु से मानसिक आघात झेल रहा हो, तब उनसे अपेक्षा करना कि वे तुरंत सभी औपचारिकताएँ पूरी करें, व्यवहारिक और नैतिक दृष्टि से अनुचित है।
अक्सर ऐसे परिवार ग्रामीण क्षेत्रों से होते हैं, जहाँ सरकारी कार्यालयों तक पहुँच, दस्तावेज़ों की प्रक्रिया, और कानूनी जानकारी का अभाव होता है। ऐसे में “देरी” को तकनीकी दोष मानना न्याय के उद्देश्य को कमजोर करता है।
महत्वपूर्ण उद्धरण
अदालत ने अपने निर्णय में यह कहा —
“Delay caused in obtaining necessary documents such as death certificate, legal heir certificate, or distress certificate should not operate as a bar to the legitimate claim for compassionate appointment.”
“The process of obtaining these documents is neither within the control of the applicant nor can be anticipated in advance; therefore, a lenient and realistic view must be taken.”
न्यायिक दृष्टांत और पूर्ववर्ती निर्णय
इस निर्णय से पहले भी विभिन्न उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे ही मानवीय दृष्टिकोण अपनाए हैं, जैसे —
- Balbir Kaur v. Steel Authority of India Ltd. (2000) 6 SCC 493:
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सहानुभूति नियुक्ति का उद्देश्य मृतक कर्मचारी के परिवार को तत्काल राहत देना है। - Canara Bank v. M. Mahesh Kumar (2015) 7 SCC 412:
अदालत ने कहा कि नीति के शब्दों की संकीर्ण व्याख्या न करके उसके उद्देश्य को समझना चाहिए। - State of Odisha v. Prasanta Kumar Nayak (2022):
इसी राज्य में पहले भी अदालत ने प्रशासन को निर्देश दिया था कि वह Compassionate Appointment के मामलों में “practical approach” अपनाए।
ओडिशा उच्च न्यायालय का यह नवीनतम निर्णय इन्हीं सिद्धांतों का विस्तार है।
प्रशासनिक जवाबदेही और न्यायिक निर्देश
न्यायालय ने राज्य सरकार को यह भी निर्देश दिया कि वह स्पष्ट दिशा-निर्देश (guidelines) तैयार करे जिससे भविष्य में इस प्रकार की देरी को लेकर भ्रम या असंगति न रहे।
इन दिशानिर्देशों में यह प्रावधान शामिल किया जा सकता है कि —
- यदि परिवार ने समय पर आवेदन कर दिया परंतु दस्तावेज़ बाद में प्राप्त हुए, तो आवेदन को वैध माना जाए।
- यदि दस्तावेज़ प्राप्त करने में देरी प्रशासनिक कारणों से हुई, तो आवेदक को दोषी न ठहराया जाए।
- Compassionate Appointment सेल या विभाग को मानवतावादी दृष्टिकोण से मामलों का मूल्यांकन करना चाहिए।
सामाजिक न्याय की दिशा में एक कदम
यह निर्णय प्रशासनिक कानून के उस सिद्धांत को सुदृढ़ करता है कि “कानून का उद्देश्य न्याय है, न कि औपचारिकता।”
सहानुभूति नियुक्ति का उद्देश्य तकनीकी प्रक्रिया नहीं, बल्कि संकटग्रस्त परिवार की सहायता है। इस निर्णय से यह संदेश गया है कि राज्य अपने कर्मचारियों और उनके परिवारों के प्रति संवेदनशील है।
न्यायालय की टिप्पणी का गहरा संदेश
न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि —
“The government machinery must remember that compassionate appointment is an instrument of social welfare, not a bureaucratic formality.”
यह वाक्य भारतीय प्रशासनिक ढांचे के लिए एक गहन चेतावनी है कि वे प्रक्रियात्मक देरी के कारण वास्तविक जरूरतमंद परिवारों को न्याय से वंचित न करें।
न्यायिक दृष्टिकोण का विश्लेषण
यह निर्णय तीन प्रमुख बिंदुओं पर आधारित है:
- मानवीय संवेदना का महत्व: प्रशासनिक निर्णयों में संवेदना का स्थान तकनीकीता से ऊपर होना चाहिए।
- न्यायिक व्याख्या का उद्देश्य: नीति की व्याख्या इस प्रकार की जानी चाहिए कि उसका सामाजिक उद्देश्य पूरा हो।
- कानूनी प्रक्रिया में व्यावहारिकता: कानून का पालन करते समय परिस्थितियों की वास्तविकता को समझना आवश्यक है।
निष्कर्ष
ओडिशा उच्च न्यायालय का यह निर्णय न केवल Compassionate Appointment के क्षेत्र में एक मानक स्थापित करता है, बल्कि यह भी सिखाता है कि न्याय केवल कानून के अक्षरों में नहीं, बल्कि संवेदना के भावों में भी निहित है।
जहाँ एक ओर सरकारों को प्रशासनिक प्रक्रिया का पालन सुनिश्चित करना चाहिए, वहीं दूसरी ओर यह भी ध्यान रखना चाहिए कि “न्याय में देरी, अन्याय के समान है।”
लेखक की टिप्पणी
यह निर्णय भविष्य में आने वाले Compassionate Appointment मामलों के लिए एक मिसाल बनेगा। यह संदेश देता है कि सरकारी तंत्र को नागरिकों के प्रति संवेदनशील बनना होगा। न्यायालय ने यह साबित किया कि कानून का उद्देश्य केवल नियम बनाना नहीं, बल्कि मानवता की रक्षा करना है।