“सहानुभूति नियुक्ति के बाद ज़िम्मेदारियों से मुक्ति नहीं: राजस्थान हाईकोर्ट का दामाद-बहू संबंधों पर ऐतिहासिक निर्णय”
परिचय
राजस्थान हाईकोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए यह स्पष्ट कर दिया कि किसी पुत्रवधू (Daughter-in-law) को अपने दिवंगत पति के माता-पिता की देखभाल और भरण-पोषण से मुक्ति नहीं मिल सकती, यदि उसने सहानुभूति नियुक्ति (Compassionate Appointment) स्वीकार की है। यह फैसला न केवल संवेदनशील सामाजिक संबंधों पर न्यायिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, बल्कि यह भी निर्धारित करता है कि सहानुभूति नियुक्ति के पीछे का उद्देश्य केवल रोजगार नहीं, बल्कि मृतक कर्मचारी के परिवार के समग्र कल्याण की रक्षा है।
यह मामला राजस्थान हाईकोर्ट में अजमेर विद्युत वितरण निगम लिमिटेड (Ajmer Vidhut Vitran Nigam Limited) से संबंधित था, जहाँ एक वृद्ध पिता ने यह याचिका दायर की कि उनके पुत्र की मृत्यु के बाद बहू को सहानुभूति के आधार पर नियुक्ति दी गई, परंतु उसने अपने ससुराल पक्ष की जिम्मेदारियों को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता एक वृद्ध व्यक्ति थे जिनके पुत्र की आकस्मिक मृत्यु हो गई थी। पुत्र अजमेर विद्युत वितरण निगम लिमिटेड में कार्यरत था। पुत्र की मृत्यु के बाद, नियमों के अनुसार, सहानुभूति नियुक्ति के तहत उसके परिजनों में से किसी एक को नौकरी दी जा सकती थी ताकि परिवार को आर्थिक संकट से उबारा जा सके।
इस परिप्रेक्ष्य में, मृतक की पत्नी — यानी याचिकाकर्ता की बहू — को सहानुभूति के आधार पर निगम में नौकरी दी गई। परंतु, कुछ समय पश्चात, याचिकाकर्ता ने यह आरोप लगाया कि बहू ने नौकरी प्राप्त करने के बाद उनसे सभी संबंध तोड़ लिए और न तो उनका भरण-पोषण किया और न ही उनके प्रति कोई जिम्मेदारी निभाई।
याचिकाकर्ता ने अदालत से यह निवेदन किया कि निगम अधिकारियों को निर्देश दिया जाए कि वे सुनिश्चित करें कि बहू अपने दिवंगत पति के माता-पिता का ध्यान रखे और सहानुभूति नियुक्ति का वास्तविक उद्देश्य पूरा हो।
याचिकाकर्ता के तर्क
याचिकाकर्ता ने अपने तर्क में कहा कि—
- सहानुभूति नियुक्ति का उद्देश्य मृतक कर्मचारी के पूरे परिवार का आर्थिक और सामाजिक संरक्षण है, न कि केवल किसी एक सदस्य को लाभ देना।
- मृतक कर्मचारी के माता-पिता भी “परिवार” की परिभाषा में आते हैं, अतः बहू को उनके प्रति कानूनी और नैतिक दायित्व निभाने होंगे।
- जब बहू ने नौकरी स्वीकार की थी, तो उसने अप्रत्यक्ष रूप से यह भी स्वीकार किया था कि वह परिवार की देखभाल करेगी, और अब उस जिम्मेदारी से मुक्ति नहीं पाई जा सकती।
- निगम को यह अधिकार है कि वह यह सुनिश्चित करे कि नियुक्त व्यक्ति अपने दायित्वों का पालन कर रहा है, अन्यथा सहानुभूति नियुक्ति के उद्देश्य की विफलता मानी जाएगी।
प्रतिवादी (बहू) के तर्क
प्रतिवादी (मृतक की पत्नी) की ओर से यह कहा गया कि—
- उसे नौकरी उसकी कानूनी हैसियत के आधार पर दी गई थी, क्योंकि वह मृतक की विधवा है।
- नौकरी पाने के बाद वह स्वतंत्र व्यक्ति है, और अपने निर्णय स्वयं लेने की हकदार है।
- कानून उसे ससुराल पक्ष के प्रति किसी अनिवार्य सेवा या देखभाल की जिम्मेदारी नहीं देता।
- यह मामला व्यक्तिगत और पारिवारिक विवाद का है, जिसमें निगम का हस्तक्षेप उचित नहीं है।
मुख्य प्रश्न
अदालत के समक्ष मूल प्रश्न यह था कि —
“क्या कोई विधवा बहू, जिसने अपने मृतक पति की मृत्यु के बाद सहानुभूति नियुक्ति स्वीकार की है, उस नियुक्ति के पश्चात अपने ससुराल पक्ष, विशेषकर मृतक के माता-पिता की देखभाल की जिम्मेदारी से मुक्त हो सकती है?”
राजस्थान हाईकोर्ट का निर्णय
न्यायमूर्ति [एकलपीठ या खंडपीठ का नाम उल्लेख करें, जैसे: न्यायमूर्ति पुष्पेन्द्र सिंह भाटी] ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया कि—
- सहानुभूति नियुक्ति का मूल उद्देश्य मृतक कर्मचारी के पूरे परिवार की आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित करना है। यह किसी व्यक्तिगत लाभ का माध्यम नहीं है।
- जब किसी विधवा को नौकरी दी जाती है, तो यह मान लिया जाता है कि वह अपने पति के परिवार के कल्याण के लिए उस लाभ को स्वीकार कर रही है।
- यदि वह अपने ससुराल पक्ष को छोड़कर अलग रह रही है और उनकी देखभाल नहीं कर रही है, तो यह नैतिक और कानूनी रूप से अनुचित है।
- सहानुभूति नियुक्ति सार्वजनिक नीति पर आधारित है, इसलिए नियुक्त व्यक्ति को सार्वजनिक दायित्वों का पालन करना चाहिए।
अदालत ने यह भी कहा कि निगम जैसे सार्वजनिक उपक्रम को यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी है कि नियुक्ति का उद्देश्य पूरा हो। यदि यह पाया जाता है कि लाभार्थी व्यक्ति परिवार की भलाई के प्रति उदासीन है, तो निगम आवश्यक कार्रवाई कर सकता है।
अदालत की टिप्पणी
न्यायालय ने अपने आदेश में कहा —
“जब किसी कर्मचारी की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी को सहानुभूति के आधार पर नौकरी दी जाती है, तो यह केवल उसके पति की मृत्यु पर दया का परिणाम नहीं है, बल्कि यह उस परिवार की संपूर्ण आर्थिक रक्षा का माध्यम है। इसलिए, यह अपेक्षित है कि नियुक्त व्यक्ति उस परिवार के सभी सदस्यों, विशेषकर मृतक के माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को निभाए।”
अदालत ने यह भी जोड़ा कि—
“ऐसे मामलों में, अगर पत्नी नौकरी पाकर अपने ससुराल से अलग हो जाए और वृद्ध माता-पिता को बेसहारा छोड़ दे, तो यह सहानुभूति नियुक्ति की भावना के विपरीत है।”
कानूनी दृष्टिकोण
यह निर्णय भारतीय दंड संहिता या दीवानी संहिता के किसी विशेष प्रावधान पर आधारित नहीं था, बल्कि सामाजिक न्याय और नैतिक दायित्वों की व्याख्या पर आधारित था।
हालाँकि, अदालत ने Maintenance and Welfare of Parents and Senior Citizens Act, 2007 का भी उल्लेख किया, जिसके तहत माता-पिता अपने बच्चों या परिवार के सदस्यों से भरण-पोषण का अधिकार रखते हैं।
इसी प्रकार, Hindu Adoptions and Maintenance Act, 1956 की धारा 19 में यह कहा गया है कि “विधवा पुत्रवधू” अपने सास-ससुर का भरण-पोषण करने के लिए बाध्य हो सकती है, यदि वे स्वयं असमर्थ हों और पुत्रवधू के पास पर्याप्त साधन हों।
राजस्थान हाईकोर्ट ने इन्हीं प्रावधानों को संदर्भित करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि विधवा बहू के पास नौकरी (साधन) है, इसलिए उसके ऊपर दायित्व है कि वह अपने ससुराल पक्ष का भरण-पोषण करे।
सहानुभूति नियुक्ति का उद्देश्य
सहानुभूति नियुक्ति का मूल उद्देश्य केवल “रोजगार देना” नहीं है। इसका मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि—
- मृतक कर्मचारी का परिवार आर्थिक रूप से स्थिर रहे,
- उसके माता-पिता, पत्नी और बच्चों को संरक्षण मिले,
- परिवार की गरिमा और सामाजिक स्थिति बनी रहे।
यदि नियुक्त व्यक्ति इन दायित्वों की अनदेखी करता है, तो यह योजना की आत्मा के विरुद्ध है।
न्यायिक मिसालें
राजस्थान हाईकोर्ट का यह फैसला कई पूर्ववर्ती निर्णयों की पुनर्पुष्टि करता है, जैसे—
- Umesh Kumar Nagpal v. State of Haryana (1994) – जहाँ सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सहानुभूति नियुक्ति “सहानुभूति के रूप में दिया गया अस्थायी उपाय” है, न कि नियमित रोजगार का अधिकार।
- Canara Bank v. M. Mahesh Kumar (2015) – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सहानुभूति नियुक्ति का उद्देश्य मृतक कर्मचारी के परिवार को तत्काल राहत देना है।
- State of Chhattisgarh v. Dhirjo Kumar Sengar (2009) – जिसमें अदालत ने कहा कि परिवार के सभी आश्रितों की भलाई इस योजना का केंद्र बिंदु है।
इन मामलों के आलोक में राजस्थान हाईकोर्ट ने यह कहा कि जब विधवा बहू सहानुभूति नियुक्ति के माध्यम से लाभ प्राप्त करती है, तो वह परिवार के सभी सदस्यों की हितधारक बन जाती है।
अंतिम आदेश
राजस्थान हाईकोर्ट ने अजमेर विद्युत वितरण निगम लिमिटेड को निर्देश दिया कि वह—
- यह सुनिश्चित करे कि बहू अपनी जिम्मेदारी निभा रही है;
- यदि वह मृतक कर्मचारी के माता-पिता के भरण-पोषण में विफल रहती है, तो निगम उचित कार्रवाई करे;
- आवश्यकता पड़ने पर, उसके वेतन से एक निश्चित अंश वृद्ध माता-पिता को मासिक रूप से प्रदान किया जा सकता है।
सामाजिक प्रभाव
यह फैसला केवल एक परिवार के विवाद तक सीमित नहीं है। यह समाज में एक व्यापक संदेश देता है कि—
- पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि कानूनी दायित्व भी हो सकती हैं;
- सहानुभूति नियुक्ति का लाभ पाने वाला व्यक्ति समाज और परिवार के प्रति जवाबदेह है;
- बुजुर्ग माता-पिता की उपेक्षा “कानूनी रूप से अनुचित” और “नैतिक रूप से निंदनीय” है।
यह निर्णय आने वाले समय में उन अनेक मामलों का मार्गदर्शन करेगा जहाँ बहू या अन्य परिवारजन सहानुभूति नियुक्ति के बाद अपने दायित्वों से पीछे हटने की कोशिश करते हैं।
निष्कर्ष
राजस्थान हाईकोर्ट का यह फैसला भारतीय न्यायव्यवस्था में नैतिकता, पारिवारिक उत्तरदायित्व और सामाजिक न्याय के संतुलन का उत्कृष्ट उदाहरण है।
इस निर्णय से यह स्पष्ट हो गया कि—
- सहानुभूति नियुक्ति “दया” नहीं, बल्कि “विश्वास” का प्रतीक है;
- नियुक्त व्यक्ति का कर्तव्य केवल कार्यालय तक सीमित नहीं, बल्कि परिवार तक विस्तारित है;
- विधवा बहू अपने ससुराल पक्ष से कानूनी रूप से भी जुड़ी रहती है, विशेषकर जब वह सहानुभूति लाभ प्राप्त करती है।
यह फैसला न्याय के साथ-साथ भारतीय पारिवारिक मूल्यों की भी रक्षा करता है। यह हमें याद दिलाता है कि “परिवार की जिम्मेदारी” कोई विकल्प नहीं, बल्कि एक स्थायी वचन है — जिसे कानून और न्यायालय दोनों समान रूप से सम्मान देते हैं।