“सहमति से बने संबंध का टूटना बलात्कार नहीं: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट का अहम निर्णय – धारा 376 के दुरुपयोग पर न्यायिक चेतावनी”

शीर्षक:
“सहमति से बने संबंध का टूटना बलात्कार नहीं: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट का अहम निर्णय – धारा 376 के दुरुपयोग पर न्यायिक चेतावनी”

विस्तृत लेख:

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण और दूरगामी प्रभाव डालने वाले फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि कोई संबंध दो वयस्कों की सहमति से स्थापित होता है, और वह संबंध बाद में किसी कारणवश टूट जाता है या उसमें मनमुटाव हो जाता है, तो ऐसी स्थिति में भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 376 (बलात्कार) के तहत आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जा सकता

यह ऐतिहासिक निर्णय माननीय मुख्य न्यायाधीश श्री रमेश सिन्हा की एकलपीठ ने पारित किया, जो न केवल दंड प्रक्रिया की वैधानिक व्याख्या करता है, बल्कि कानून के दुरुपयोग की प्रवृत्ति को भी रोकने की दिशा में एक ठोस कदम है।


मामला संक्षेप में:

इस प्रकरण में, एक महिला द्वारा एक पुरुष के विरुद्ध धारा 376 के तहत प्राथमिकी दर्ज कराई गई थी। महिला का आरोप था कि पुरुष ने उसके साथ संबंध बनाते समय शादी का वादा किया था, लेकिन बाद में वह उससे दूर हो गया और शादी नहीं की।

मगर न्यायालय में प्रस्तुत तथ्यों और सबूतों से यह स्पष्ट हुआ कि:

  • दोनों पक्षों के बीच संबंध स्पष्ट सहमति से बने थे।
  • महिला सामान्य वयस्क थी और उसने स्वतंत्र रूप से निर्णय लिया था।
  • संबंध बाद में टूट गए या मनमुटाव हो गया, जिससे महिला आहत हुई और उसने शिकायत दर्ज कराई।

हाईकोर्ट का विश्लेषण:

मुख्य न्यायाधीश श्री रमेश सिन्हा ने अपने फैसले में कहा:

  1. IPC की धारा 376 का उद्देश्य महिलाओं को बलपूर्वक या धोखाधड़ी से बने शारीरिक संबंधों से संरक्षण देना है, न कि विवाह में विफलता के कारण उत्पन्न भावनात्मक प्रतिक्रिया से।
  2. यदि महिला और पुरुष के बीच संबंध स्वतंत्र और परिपक्व सहमति से बना है, तो उसे बाद में बलात्कार का जामा पहनाना न्यायोचित नहीं है।
  3. यदि प्रत्येक असफल संबंध को IPC की धारा 376 के तहत अभियोजन योग्य माना जाए, तो यह कानून का दुरुपयोग होगा और वास्तविक पीड़िताओं के लिए न्याय प्रक्रिया को जटिल बना देगा।

न्यायिक चेतावनी:

न्यायालय ने इस प्रकार के मामलों में पुलिस और अधीनस्थ न्यायालयों को सतर्कता बरतने की सलाह दी, ताकि कानून का अनुचित इस्तेमाल न हो।

इस प्रकार के निर्णय उन मामलों में स्पष्ट सीमा रेखा खींचते हैं, जहाँ संवेदनाओं और भावनाओं के आधार पर दंडात्मक कार्रवाई की मांग की जाती है, जबकि कानूनी दृष्टि से वह अनावश्यक होती है।


निर्णय का महत्व:

  • यह फैसला स्पष्ट करता है कि कानून और व्यक्तिगत भावनाएं दो अलग-अलग विषय हैं।
  • न्यायालय ने यह भी माना कि “असहमति और धोखा” के बीच कानूनी अंतर को समझना आवश्यक है।
  • यह महिलाओं और पुरुषों दोनों के कानूनी अधिकारों की संतुलित व्याख्या करता है।

निष्कर्ष:

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट का यह निर्णय भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए एक दिशा-सूचक है, जो यह स्पष्ट करता है कि सहमति से बने संबंधों को, केवल उनके टूटने के आधार पर बलात्कार का नाम देना न्याय की अवधारणा को क्षति पहुंचा सकता है।

यह फैसला एक ओर जहाँ महिला अधिकारों की रक्षा करता है, वहीं दूसरी ओर यह कानून के दुरुपयोग से पुरुषों की रक्षा करने वाला भी है। ऐसे मामलों में न्यायालय की यह संतुलित भूमिका समाज में न्याय और नैतिकता की नई परिभाषा गढ़ने में सहायक होगी।