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सर्वोच्च न्यायालय ने 15 वर्षीय नाबालिग के अपहरण, बलात्कार और अप्राकृतिक यौन शोषण के दोषी की सज़ा बरकरार रखी

सर्वोच्च न्यायालय ने 15 वर्षीय नाबालिग के अपहरण, बलात्कार और अप्राकृतिक यौन शोषण के दोषी की सज़ा बरकरार रखी — “पीड़िता की सहमति विधिक रूप से अप्रासंगिक” कहा न्यायालय ने


भूमिका

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के उस फैसले को बरकरार रखा है, जिसमें एक व्यक्ति को 15 वर्षीय नाबालिग लड़की के अपहरण, बलात्कार और अप्राकृतिक यौन शोषण के लिए दोषी ठहराया गया था। न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति विपुल एम. पंचोली की खंडपीठ ने अपील को खारिज करते हुए कहा कि चूँकि पीड़िता नाबालिग थी, इसलिए उसकी तथाकथित “सहमति” का कोई कानूनी महत्व नहीं है। न्यायालय ने यह भी कहा कि उच्च न्यायालय द्वारा प्रस्तुत निष्कर्ष “साक्ष्य से निकाला जा सकने वाला एकमात्र संभव निष्कर्ष” था।

यह निर्णय न केवल भारतीय दंड संहिता (IPC) की प्रासंगिक धाराओं की व्याख्या के संदर्भ में महत्वपूर्ण है, बल्कि यह इस सिद्धांत को भी पुष्ट करता है कि नाबालिग की सहमति, यौन अपराधों के मामलों में, विधिक रूप से कोई मान्यता नहीं रखती।


मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला एफआईआर नंबर 88 दिनांक 28 फरवरी 2007 से संबंधित है, जो थाना सदर, हमीरपुर (हिमाचल प्रदेश) में दर्ज की गई थी। शिकायत पीड़िता के मामा द्वारा दर्ज कराई गई थी। प्रारंभ में अभियुक्त के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा 363 (अपहरण) और 366 (महिला को अवैध रूप से विवाह या दुष्कर्म के लिए बहकाना या अपहरण) के अंतर्गत मामला दर्ज हुआ था।

जांच के दौरान यह स्पष्ट हुआ कि अभियुक्त ने न केवल नाबालिग का अपहरण किया, बल्कि उसके साथ बलात्कार (धारा 376 IPC) और अप्राकृतिक यौन कृत्य (धारा 377 IPC) भी किया। एक सह-अभियुक्त को धारा 212 (अपराधी को शरण देना) और 368 (अपहरण की गई व्यक्ति को छिपाना) के तहत आरोपित किया गया था।


ट्रायल कोर्ट का निर्णय

जिला एवं सत्र न्यायाधीश, हमीरपुर ने 5 दिसंबर 2007 को अपना निर्णय सुनाया, जिसमें दोनों अभियुक्तों को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया गया। न्यायालय ने माना कि अभियोजन पक्ष पीड़िता की आयु तथा अभियुक्त की संलिप्तता को “संदेह से परे” सिद्ध नहीं कर पाया।


राज्य की अपील और उच्च न्यायालय का निर्णय

राज्य सरकार ने इस फैसले के विरुद्ध हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय में अपील दायर की। दिनांक 18 मार्च 2015 को उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को आंशिक रूप से पलट दिया।

  • मुख्य अभियुक्त को धारा 363, 366, 376 और 377 IPC के तहत दोषी ठहराया गया।
  • उसे 7 वर्ष के कठोर कारावास और ₹20,000 के जुर्माने की सज़ा सुनाई गई।
  • सह-अभियुक्त की बरी को बरकरार रखा गया।

उच्च न्यायालय ने माना कि ट्रायल कोर्ट ने साक्ष्य की गलत व्याख्या की थी। पीड़िता की गवाही विश्वसनीय और सुसंगत थी, जबकि मेडिकल रिपोर्ट ने भी यौन संबंध की संभावना और अप्राकृतिक यौन कृत्य की संभावना को नकारा नहीं था।


सुप्रीम कोर्ट में अपील

मुख्य अभियुक्त ने इस फैसले के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की। उसका तर्क था कि:

  1. पीड़िता उसकी मर्जी से उसके साथ गई थी, इसलिए यह “अपहरण” नहीं था।
  2. यौन संबंध सहमति से हुआ था, अतः यह “बलात्कार” नहीं कहा जा सकता।
  3. ट्रायल कोर्ट का निर्णय सही था, और उच्च न्यायालय ने साक्ष्य की गलत व्याख्या की।

सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण

सर्वोच्च न्यायालय ने सभी तर्कों का गहराई से परीक्षण किया। न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति विपुल एम. पंचोली की पीठ ने कहा कि यह मामला नाबालिग की सहमति के कानूनी मूल्य से जुड़ा है — जो कि शून्य है।

1. पीड़िता की आयु पर स्पष्ट निष्कर्ष

न्यायालय ने माना कि पीड़िता की आयु 15 वर्ष थी, जैसा कि स्कूल रिकॉर्ड और मेडिकल प्रमाणों से सिद्ध हुआ। इसलिए, उसकी किसी भी कथित सहमति को विधिक रूप से अप्रासंगिक माना गया।

2. पीड़िता की गवाही – एक “Sterling Witness”

पीड़िता की गवाही को न्यायालय ने “स्पष्ट, सुसंगत और विश्वसनीय” बताया। उसने विस्तार से यह बताया कि कैसे अभियुक्त ने उसे बहलाया-फुसलाया, अपहरण किया और फिर बलात्कार व अप्राकृतिक यौन शोषण किया।

न्यायालय ने कहा:

“पीड़िता की गवाही में कोई विरोधाभास या अतिशयोक्ति नहीं है। यह स्वतंत्र, आत्मविश्वासपूर्ण और विश्वसनीय है। वह एक sterling witness है, जिस पर संदेह नहीं किया जा सकता।”

3. चिकित्सीय साक्ष्य का समर्थन

मेडिकल रिपोर्ट ने पीड़िता के कथन की पुष्टि की। एक डॉक्टर ने स्पष्ट कहा कि यौन संबंध की संभावना है, जबकि दूसरे डॉक्टर ने कहा कि “सोडोमी (अप्राकृतिक यौन संबंध)” को नकारा नहीं जा सकता।

4. ट्रायल कोर्ट की गलती

सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि सत्र न्यायालय ने साक्ष्य का गलत आकलन किया और अभियोजन द्वारा प्रस्तुत ठोस प्रमाणों को नज़रअंदाज किया। उच्च न्यायालय ने सही निष्कर्ष निकाला और अभियुक्त को दोषी ठहराया।


कानूनी दृष्टिकोण

(क) भारतीय दंड संहिता की प्रासंगिक धाराएं

  • धारा 363 – अपहरण
  • धारा 366 – महिला को विवाह या दुष्कर्म के लिए बहकाना
  • धारा 376 – बलात्कार
  • धारा 377 – अप्राकृतिक यौन अपराध

न्यायालय ने इन सभी धाराओं के अंतर्गत अपराध सिद्ध पाया।

(ख) सहमति का कानूनी महत्व

सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि भारतीय कानून के अनुसार, 18 वर्ष से कम आयु की लड़की की सहमति विधिक रूप से कोई महत्व नहीं रखती।

“जब पीड़िता नाबालिग है, तो भले ही वह अभियुक्त के साथ अपनी इच्छा से गई हो, यह अपहरण और बलात्कार दोनों माना जाएगा। सहमति, मात्र एक भ्रम है।”

(ग) प्रमाण और गवाही का मूल्यांकन

अदालत ने कहा कि यौन अपराधों में पीड़िता की गवाही को यदि भरोसेमंद और सुसंगत पाया जाए, तो उस पर विश्वास करने के लिए किसी अतिरिक्त corroboration की आवश्यकता नहीं होती।


न्यायालय का निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उच्च न्यायालय का निर्णय “कानूनी और तथ्यात्मक दोनों रूप से सही” था।

न्यायालय ने कहा:

“हम किसी भी आधार पर हस्तक्षेप करने योग्य कारण नहीं पाते। अभियोजन ने अपने साक्ष्यों से अपराध को संदेह से परे सिद्ध किया है। पीड़िता की उम्र, गवाही और मेडिकल रिपोर्ट — सभी अभियुक्त के दोष को पुष्ट करते हैं।”

इस प्रकार, सर्वोच्च न्यायालय ने अपील को खारिज करते हुए हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा दी गई सज़ा को बरकरार रखा।


न्यायिक महत्व और सामाजिक सन्देश

यह निर्णय कई स्तरों पर महत्वपूर्ण है —

  1. कानूनी सिद्धांत की पुन: पुष्टि:
    यह निर्णय स्पष्ट करता है कि नाबालिग की सहमति कानून में कोई स्थान नहीं रखती। यह सिद्धांत भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के स्पष्टीकरण में भी निहित है।
  2. पीड़िता की गवाही का महत्व:
    सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर यह दोहराया कि यदि पीड़िता की गवाही विश्वसनीय है, तो उसे अन्य साक्ष्यों की आवश्यकता नहीं होती।
  3. ट्रायल कोर्ट के दृष्टिकोण पर आलोचना:
    ट्रायल कोर्ट द्वारा दिए गए बरी के आदेश को सर्वोच्च न्यायालय ने “त्रुटिपूर्ण” बताया। इससे यह संदेश गया कि न्यायिक अधिकारियों को यौन अपराधों में संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
  4. सामाजिक संदेश:
    यह निर्णय समाज में यह संदेश देता है कि नाबालिगों के विरुद्ध अपराध करने वालों को किसी भी परिस्थिति में दया का पात्र नहीं माना जाएगा।

निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न केवल एक व्यक्तिगत न्यायिक फैसले के रूप में, बल्कि बाल संरक्षण और यौन अपराधों के विरुद्ध न्यायिक दृष्टिकोण की स्पष्ट अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाना चाहिए।

यह फैसला यह सुनिश्चित करता है कि कानून के प्रावधानों के तहत नाबालिगों की सुरक्षा सर्वोपरि है। कोई भी व्यक्ति यदि किसी नाबालिग के साथ यौन संबंध स्थापित करता है — भले ही उसकी सहमति हो — तो वह “बलात्कार” का दोषी है।

यह निर्णय भारतीय न्यायपालिका की उस निरंतर प्रतिबद्धता का प्रतीक है, जो बालिकाओं के सम्मान, सुरक्षा और न्याय के अधिकार की रक्षा करती है।