सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय वैवाहिक विवादों में बिना ठोस सबूत पति के रिश्तेदारों को अभियोजन में शामिल करना अनुचित : सुप्रीम कोर्ट

सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय वैवाहिक विवादों में बिना ठोस सबूत पति के रिश्तेदारों को अभियोजन में शामिल करना अनुचित : सुप्रीम कोर्ट


प्रस्तावना

भारतीय समाज में वैवाहिक विवाद (Matrimonial Disputes) एक जटिल विषय है। विवाह एक सामाजिक संस्था है, जिसमें मतभेद और विवाद होना असामान्य नहीं है। लेकिन जब ये विवाद गंभीर रूप धारण कर लेते हैं और आपराधिक मामलों का रूप ले लेते हैं, तो न केवल परिवार प्रभावित होता है, बल्कि समाज की शांति और स्थिरता भी प्रभावित होती है।

विशेष रूप से, भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए (क्रूरता के मामलों) के अंतर्गत पति और उसके परिवार के विरुद्ध बड़ी संख्या में मामले दर्ज किए जाते हैं। समय-समय पर अदालतों ने यह पाया है कि कई बार पति के दूर के रिश्तेदारों को भी बिना पर्याप्त सबूत के इन मामलों में घसीटा जाता है, जिससे अनावश्यक उत्पीड़न होता है।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने हालिया निर्णय में इस विषय पर महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ कीं और यह स्पष्ट किया कि अदालतों को बिना Prima Facie Evidence (प्रारंभिक सबूत) के पति के रिश्तेदारों को स्वतः अभियोजन में शामिल करने से बचना चाहिए।


तथ्य (Facts of the Case)

  • यह अपील तीन अपीलकर्ताओं द्वारा दायर की गई थी, जो उच्च न्यायालय और केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ के 01/08/2024 के आदेश के विरुद्ध थी।
  • उच्च न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 19(2)(b) के तहत अपील को स्वीकार किया था और निर्देश दिया था कि आरोपपत्र को रद्द कर एफआईआर दोबारा दर्ज की जाए।
  • मामला वैवाहिक विवाद और धारा 498-ए, 406, 323, 506 आईपीसी से संबंधित था।
  • अपीलकर्ताओं का कहना था कि उन्हें अनावश्यक रूप से अभियोजन में घसीटा जा रहा है, जबकि उनके खिलाफ कोई ठोस आरोप या सबूत मौजूद नहीं हैं।

मुद्दा (Issue Before the Court)

  • मुख्य प्रश्न यह था कि —
    क्या संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट अपनी शक्तियों का उपयोग करके आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर सकता है, जब पक्षों के बीच समझौता हो चुका हो और आरोप स्पष्ट न हों?

अपीलकर्ताओं के तर्क (Petitioners’ Arguments)

  1. अनुच्छेद 142 का प्रयोग – सुप्रीम कोर्ट के पास पूर्ण न्याय करने की शक्ति है।
  2. व्यक्तिगत विवाद का स्वरूप – यह मामला पूर्णतः व्यक्तिगत विवाद है, इसे लंबे समय तक खींचने से केवल पक्षकारों के बीच कटुता बढ़ेगी।
  3. अनावश्यक अभियोजन – कई रिश्तेदारों को केवल उत्पीड़न के उद्देश्य से मामले में घसीटा गया है, जिनका वास्तविक विवाद से कोई लेना-देना नहीं।
  4. न्याय का उद्देश्य – आपराधिक अभियोजन का उद्देश्य केवल सज़ा नहीं है, बल्कि शांति और समझौते को बढ़ावा देना भी है।

प्रतिवादी के तर्क (Respondent’s Arguments)

  1. समझौते के बाद कार्यवाही रद्द नहीं हो सकती – सिर्फ इसलिए कि पक्षकारों के बीच समझौता हो गया, इसका अर्थ यह नहीं कि उच्च न्यायालय कार्यवाही को स्वतः रद्द कर सकता है।
  2. कानून का पालन आवश्यक – आपराधिक कानून में अभियोजन का महत्व है, और अपराध करने वालों को उनके कृत्य के लिए उत्तरदायी ठहराना आवश्यक है।
  3. न्याय से भागना नहीं – अभियुक्त न्याय से भाग नहीं रहे हैं, इसलिए कार्यवाही को केवल समझौते के आधार पर समाप्त करना उचित नहीं होगा।

संबंधित कानून (Relevant Provisions)

  1. भारतीय दंड संहिता (IPC) की धाराएँ
    • धारा 323 – स्वेच्छा से चोट पहुँचाना
    • धारा 406 – आपराधिक न्यासभंग
    • धारा 498-ए – पत्नी के साथ क्रूरता
    • धारा 506 – आपराधिक धमकी
  2. दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC)
    • धारा 19(2)(b) – अपील की अनुमति का प्रावधान
    • धारा 482 – न्यायालय की निहित शक्तियाँ, कार्यवाही रद्द करने हेतु
  3. संविधान का अनुच्छेद 142
    • सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी मामले में “पूर्ण न्याय” करने हेतु आवश्यक आदेश पारित करने की शक्ति देता है।

न्यायालय का विश्लेषण (Court’s Analysis)

  • सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वैवाहिक विवादों में कई बार देखा गया है कि पति के दूर के रिश्तेदारों को भी आरोपपत्र में शामिल कर दिया जाता है, जबकि उनके खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं होते।
  • ऐसा करने से केवल अनावश्यक उत्पीड़न होता है और असली विवाद से ध्यान हट जाता है।
  • अदालत ने यह स्पष्ट किया कि –
    • आपराधिक कानून का उद्देश्य बदला लेना नहीं है, बल्कि व्यक्तिगत विवादों में शांति और स्थिरता लाना है।
    • यदि पक्षों के बीच समझौता हो चुका है और यह मामला व्यक्तिगत/पारिवारिक विवाद से जुड़ा है, तो अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट को कार्यवाही समाप्त करने का अधिकार है।
    • बिना Prima Facie Evidence (प्रारंभिक सबूत) के केवल रिश्तेदार होने के कारण किसी को अभियोजन में शामिल करना न्यायसंगत नहीं है।

न्यायालय का निर्णय (Court’s Judgment)

  • सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि :
    1. यह मामला व्यक्तिगत विवाद का है, और पक्षकारों के बीच समझौता हो चुका है।
    2. आरोपपत्र (07/11/2019) और उस पर आधारित एफआईआर टिकाऊ नहीं है।
    3. पति के रिश्तेदारों को केवल रिश्तेदारी के आधार पर अभियोजन में शामिल करना अनुचित है।
  • इसलिए, अदालत ने –
    • आईपीसी की धाराओं 323, 406, 498-ए और 506 के तहत दर्ज एफआईआर
    • 07/11/2019 का आरोपपत्र
    • और उन पर आधारित सभी आपराधिक कार्यवाहियों को रद्द कर दिया।

महत्व (Significance of the Judgment)

  1. कानूनी सुरक्षा – यह निर्णय उन निर्दोष रिश्तेदारों के लिए बड़ी राहत है जिन्हें झूठे मामलों में फँसा दिया जाता है।
  2. न्यायिक दृष्टिकोण – सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि न्यायालयों को केवल औपचारिक रूप से (Mechanically) लोगों को मामले में शामिल नहीं करना चाहिए।
  3. अनुच्छेद 142 का प्रयोग – यह फैसला अनुच्छेद 142 की व्याख्या को और स्पष्ट करता है कि सुप्रीम कोर्ट पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने हेतु आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर सकता है।
  4. परिवारिक शांति का संरक्षण – यह निर्णय बताता है कि अदालत का उद्देश्य केवल सज़ा देना नहीं है, बल्कि पारिवारिक विवादों में शांति और स्थिरता लाना भी है।
  5. भविष्य की मिसाल – यह फैसला आगे आने वाले matrimonial disputes मामलों में एक मिसाल बनेगा।

निष्कर्ष (Conclusion)

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय वैवाहिक विवादों में झूठे अभियोगों से बचाव की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। अदालत ने साफ कहा कि यदि कोई प्रारंभिक सबूत (Prima Facie Evidence) नहीं है, तो केवल रिश्तेदार होने के कारण उन्हें आपराधिक कार्यवाही में घसीटना न्यायसंगत नहीं है।

अनुच्छेद 142 का प्रयोग करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया कि न्याय केवल सज़ा देने तक सीमित नहीं, बल्कि पूर्ण न्याय, शांति और समाज में संतुलन स्थापित करने का माध्यम है।

यह निर्णय भारतीय न्यायिक प्रणाली में न्यायिक विवेक, संवेदनशीलता और पारिवारिक मूल्यों को संरक्षित करने का प्रतीक है।