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“सरोगेसी को अधिकार मान्यता: राज्य को दंपत्तियों की क्षमता पर सवाल उठाने का अधिकार नहीं – सर्वोच्च न्यायालय”

“राज्य को सरोगेसी को अधिकार के रूप में मान्यता देने के बाद पालन-पोषण की क्षमता पर प्रश्न नहीं उठाना चाहिए” – सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय

परिचय

भारत में सरोगेसी (Gestational Surrogacy) को लेकर कानूनी और सामाजिक दृष्टिकोण में पिछले कुछ वर्षों में महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं। पारंपरिक प्रजनन के विकल्पों के अभाव में, विशेषकर उन दंपत्तियों के लिए जो शारीरिक या मानसिक कारणों से संतानोत्पत्ति में असमर्थ हैं, सरोगेसी ने एक महत्वपूर्ण वैकल्पिक मार्ग प्रस्तुत किया है।

2022 में पारित “सरोगेसी (नियमन) अधिनियम, 2021” ने सरोगेसी को एक कानूनी अधिकार के रूप में मान्यता दी। इस अधिनियम के तहत, केवल विवाहित दंपत्तियों को, जो संतानोत्पत्ति में असमर्थ हैं, सरोगेसी की अनुमति दी गई। अधिनियम में आयु सीमा, वैवाहिक स्थिति, और अन्य शर्तें निर्धारित की गई हैं। उदाहरण के लिए, महिला के लिए न्यूनतम आयु 23 वर्ष और अधिकतम 50 वर्ष तय की गई है, जबकि पुरुष के लिए अधिकतम आयु 55 वर्ष निर्धारित की गई है।

हालांकि, हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में इस अधिनियम के कुछ प्रावधानों को चुनौती दी है, विशेष रूप से उन दंपत्तियों के लिए जिन्होंने 2022 से पहले अपने भ्रूण जमा कराए थे। इस निर्णय ने सरोगेसी को एक कानूनी अधिकार के रूप में मान्यता देने की व्याख्या को और स्पष्ट किया है और राज्य के हस्तक्षेप की सीमा तय की है।


मामले की पृष्ठभूमि

सर्वोच्च न्यायालय ने उन दंपत्तियों के पक्ष में निर्णय दिया, जिन्होंने 2022 से पहले अपने भ्रूण जमा कराए थे। इन दंपत्तियों ने सरोगेसी की प्रक्रिया शुरू की थी, लेकिन जब 2022 में सरोगेसी अधिनियम लागू हुआ और इसमें आयु सीमा निर्धारित की गई, तो केंद्र सरकार ने उन्हें प्रक्रिया जारी रखने से रोक दिया।

न्यायालय ने कहा कि जब इन दंपत्तियों ने भ्रूण जमा किए थे, तब कोई आयु सीमा लागू नहीं थी। इसलिए, अब उन्हें इस आधार पर सरोगेसी से वंचित करना अनुचित है। अदालत ने विशेष रूप से यह उल्लेख किया कि “इस मामले में, दंपत्ति की पालन-पोषण की क्षमताओं का उपयोग उनकी सरोगेसी के लिए पात्रता पर हमला करने के लिए किया जा रहा है। जब कोई प्रतिबंध नहीं था, तब सरोगेसी की प्रक्रिया शुरू करने के बाद राज्य को दंपत्ति की पालन-पोषण की क्षमता पर प्रश्न नहीं उठाना चाहिए।”

इस पृष्ठभूमि में न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि कानूनी अधिकार की स्थापना के बाद, राज्य को उसके प्रयोग में अनुचित हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है।


न्यायालय का निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार के तर्क को खारिज किया, जिसमें कहा गया था कि आयु सीमा का पूर्वव्यापी रूप से लागू होना चाहिए ताकि वृद्ध दंपत्तियों के संतानोत्पत्ति में संभावित जोखिमों को रोका जा सके। न्यायालय ने इस तर्क को असंगत माना, क्योंकि प्राकृतिक संतानोत्पत्ति और गोद लेने के लिए कोई आयु सीमा नहीं है।

न्यायालय ने यह भी कहा कि सरोगेसी को एक अधिकार के रूप में मान्यता देने के बाद, राज्य को दंपत्तियों की पालन-पोषण की क्षमता पर प्रश्न उठाने का कोई आधार नहीं है। न्यायालय ने इस बात को स्पष्ट किया कि यदि कोई व्यक्ति या दंपत्ति कानूनी रूप से पात्र है और उनकी प्रक्रिया कानून के अनुसार शुरू हो चुकी है, तो राज्य का यह प्रयास कि उनकी पालन-पोषण क्षमता पर सवाल उठाया जाए, संवैधानिक रूप से अनुचित है।

यह निर्णय विशेष रूप से उन दंपत्तियों के लिए राहतकारी है, जो सरोगेसी के माध्यम से संतानोत्पत्ति की प्रक्रिया में थे लेकिन आयु सीमा के कारण उन्हें रोक दिया गया था।


कानूनी दृष्टिकोण

1. व्यक्तिगत स्वतंत्रता और परिवार का अधिकार

भारत का संविधान, विशेष रूप से अनुच्छेद 21, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवन के अधिकार की रक्षा करता है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में यह रेखांकित किया कि परिवार बनाने का अधिकार और संतानोत्पत्ति का विकल्प व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा है।

2. अधिकार बनाम राज्य का हस्तक्षेप

जब कोई कानूनी अधिकार स्थापित होता है, तो राज्य को उस अधिकार के प्रयोग में अनुचित हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होता। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि दंपत्तियों की सरोगेसी प्रक्रिया में आयु सीमा को लागू करना और पालन-पोषण की क्षमता पर प्रश्न उठाना, कानूनी अधिकारों का उल्लंघन है।

3. न्यायसंगत और समानता का सिद्धांत

अधिनियम के तहत आयु सीमा का सख्त पालन करना, जबकि प्राकृतिक संतानोत्पत्ति और गोद लेने में कोई आयु सीमा नहीं है, न्यायसंगत नहीं है। न्यायालय ने इस भेदभाव को स्पष्ट रूप से खारिज किया।


सामाजिक दृष्टिकोण

1. सरोगेसी की स्वीकार्यता और जागरूकता

यह निर्णय समाज में सरोगेसी के प्रति जागरूकता बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। यह न केवल सरोगेसी को कानूनी मान्यता देता है, बल्कि इसे वैध और सम्मानजनक विकल्प के रूप में प्रस्तुत करता है।

2. पारंपरिक परिवार संरचना के बाहर विकल्प

कई दंपत्तियों के लिए, जो प्राकृतिक रूप से संतानोत्पत्ति में असमर्थ हैं, सरोगेसी एक जीवनदायिनी विकल्प है। न्यायालय का यह निर्णय उन्हें वैधानिक रूप से संरक्षित विकल्प प्रदान करता है और पारंपरिक सामाजिक दृष्टिकोण से बाहर विकल्प अपनाने के लिए प्रोत्साहित करता है।

3. मानसिक और भावनात्मक राहत

सरोगेसी के अधिकार को मान्यता देने का निर्णय दंपत्तियों के लिए मानसिक और भावनात्मक सुरक्षा प्रदान करता है। इससे उन्हें यह भरोसा मिलता है कि उनके कानूनी अधिकार सुरक्षित हैं और राज्य का हस्तक्षेप अनुचित नहीं होगा।


वैधानिक सुधार और भविष्य की दिशा

यह निर्णय सरोगेसी कानून के दायरे और उसकी व्याख्या के लिए महत्वपूर्ण मिसाल है। इसके तहत कुछ प्रमुख पहलुओं की भविष्य में संभावना है:

  1. पूर्वव्यापी नियमों की पुन: समीक्षा – न्यायालय ने यह संकेत दिया है कि भविष्य में कानून में संशोधन करते समय पूर्वव्यापी नियमों का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।
  2. विवाह और आयु संबंधी शर्तों का परिप्रेक्ष्य – इस निर्णय के आधार पर, कानून निर्माताओं को यह सुनिश्चित करना होगा कि कानूनी प्रावधान वास्तविक और न्यायसंगत जीवन परिस्थितियों के अनुरूप हों।
  3. सरोगेसी की कानूनी प्रक्रिया को सरल बनाना – न्यायालय ने यह भी संकेत दिया कि कानूनी प्रक्रिया को जटिल और बाधित करने से दंपत्तियों के अधिकारों का हनन हो सकता है।

निष्कर्ष

सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय सरोगेसी को एक कानूनी अधिकार के रूप में मान्यता देने की पुष्टि करता है। यह निर्णय राज्य द्वारा अनुचित हस्तक्षेप के खिलाफ एक मजबूत संदेश है।

यह निर्णय तीन दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण है:

  1. कानूनी दृष्टिकोण – अधिकारों की सुरक्षा, अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता और परिवार का अधिकार।
  2. सामाजिक दृष्टिकोण – सरोगेसी के प्रति समाज की सोच में सकारात्मक बदलाव और पारंपरिक विकल्पों के अतिरिक्त वैकल्पिक मार्ग की स्वीकृति।
  3. नैतिक और मानवीय दृष्टिकोण – दंपत्तियों को मानसिक, भावनात्मक और कानूनी सुरक्षा प्रदान करना।

इस ऐतिहासिक निर्णय ने यह सुनिश्चित किया कि जब कोई कानूनी अधिकार स्थापित होता है, तो राज्य को उसके प्रयोग में अनुचित हस्तक्षेप का अधिकार नहीं होता। इसके अलावा, यह निर्णय भविष्य में सरोगेसी और संबंधित कानूनी सुधारों के लिए मार्गदर्शन प्रदान करेगा।

इस तरह, सर्वोच्च न्यायालय ने न केवल दंपत्तियों के अधिकारों की रक्षा की, बल्कि समाज में सरोगेसी को एक सम्मानजनक और वैध विकल्प के रूप में स्थापित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह निर्णय भारतीय कानूनी परिदृश्य में सरोगेसी के क्षेत्र में एक मील का पत्थर साबित होगा।