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“सम्मानपूर्वक मृत्यु का संवैधानिक प्रश्न : वेजिटेटिव अवस्था में पड़े व्यक्ति की पैसिव यूथेनेशिया याचिका पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा सेकेंडरी मेडिकल बोर्ड का गठन”

“सम्मानपूर्वक मृत्यु का संवैधानिक प्रश्न : वेजिटेटिव अवस्था में पड़े व्यक्ति की पैसिव यूथेनेशिया याचिका पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा सेकेंडरी मेडिकल बोर्ड का गठन”


भूमिका

        चिकित्सा विज्ञान ने जहाँ एक ओर जीवन को बचाने और लंबा करने की अभूतपूर्व क्षमता विकसित की है, वहीं दूसरी ओर इसने एक गहन नैतिक और संवैधानिक प्रश्न को भी जन्म दिया है—क्या असहनीय पीड़ा और पूर्ण चेतनाहीन अवस्था में पड़े व्यक्ति को सम्मानपूर्वक मृत्यु का अधिकार मिलना चाहिए?
इसी संवेदनशील प्रश्न से जुड़ा एक महत्वपूर्ण मामला हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया के समक्ष आया, जहाँ लंबे समय से vegetative state (वनस्पतिक अवस्था) में पड़े एक व्यक्ति की ओर से Passive Euthanasia की अनुमति मांगी गई।

       इस मामले की गंभीरता और जटिलता को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक Secondary Medical Board के गठन का आदेश दिया, ताकि व्यक्ति की वास्तविक चिकित्सकीय स्थिति का स्वतंत्र और निष्पक्ष मूल्यांकन किया जा सके। यह आदेश न केवल उस व्यक्ति और उसके परिवार के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह पूरे देश में right to die with dignity (सम्मानपूर्वक मृत्यु के अधिकार) पर चल रही बहस को एक नई दिशा देता है।


मामले की पृष्ठभूमि

        याचिका एक ऐसे व्यक्ति से संबंधित थी, जो कई वर्षों से गहरी वेजिटेटिव अवस्था में है। वह न तो स्वयं बोल सकता है, न प्रतिक्रिया दे सकता है, और न ही किसी प्रकार की चेतन गतिविधि प्रदर्शित करता है। उसकी जीवन-प्रक्रिया केवल—

  • कृत्रिम पोषण
  • चिकित्सा उपकरण
  • और निरंतर चिकित्सकीय हस्तक्षेप

के माध्यम से संचालित हो रही है।

परिवार का कहना था कि—

  • रोगी की स्थिति में सुधार की कोई संभावना नहीं
  • वह केवल “जैविक रूप से जीवित” है
  • निरंतर इलाज से केवल पीड़ा और आर्थिक–मानसिक बोझ बढ़ रहा है

     इसी आधार पर परिवार ने Passive Euthanasia की अनुमति के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।


Passive Euthanasia क्या है?

Passive Euthanasia का अर्थ है—

जीवन को कृत्रिम रूप से बनाए रखने वाले उपचार, दवाओं या सपोर्ट सिस्टम को हटाना या बंद करना, ताकि व्यक्ति प्राकृतिक रूप से मृत्यु को प्राप्त कर सके।

       यह सक्रिय यूथेनेशिया (Active Euthanasia) से भिन्न है, जिसमें जानबूझकर कोई क्रिया करके मृत्यु कराई जाती है—जो भारत में अवैध है।

भारत में Passive Euthanasia सीमित परिस्थितियों में वैध मानी गई है, बशर्ते—

  • उचित चिकित्सा राय हो
  • प्रक्रिया कानूनी दिशा-निर्देशों के अनुसार हो
  • और रोगी या उसके परिजनों की सहमति शामिल हो

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुख्य प्रश्न

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के सामने कुछ मूलभूत प्रश्न थे—

  1. क्या याचिकाकर्ता वास्तव में irreversible vegetative state में है?
  2. क्या उसके स्वस्थ होने की कोई चिकित्सकीय संभावना शेष है?
  3. क्या जीवन–रक्षक उपचार केवल औपचारिकता बन चुका है?
  4. क्या Passive Euthanasia देना “सम्मानपूर्वक मृत्यु” के अधिकार के अंतर्गत आता है?

इन प्रश्नों का उत्तर केवल कानून से नहीं, बल्कि विशेषज्ञ चिकित्सा राय से संभव था।


सेकेंडरी मेडिकल बोर्ड के गठन का आदेश

इसी कारण सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि—

  • एक Secondary Medical Board का गठन किया जाए
  • जिसमें वरिष्ठ न्यूरोलॉजिस्ट, फिजिशियन और संबंधित विशेषज्ञ शामिल हों
  • बोर्ड स्वतंत्र रूप से रोगी की स्थिति की जांच करे
  • और अपनी विस्तृत रिपोर्ट न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करे

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि—

“ऐसे मामलों में अत्यधिक सावधानी और निष्पक्षता आवश्यक है, क्योंकि निर्णय जीवन और मृत्यु से जुड़ा है।”


Primary और Secondary Medical Board का महत्व

सुप्रीम कोर्ट द्वारा विकसित दिशा-निर्देशों के अनुसार—

  • Primary Medical Board अस्पताल स्तर पर रोगी की स्थिति का प्रारंभिक मूल्यांकन करता है
  • Secondary Medical Board एक अतिरिक्त, स्वतंत्र और उच्च स्तरीय समीक्षा करता है

इस दोहरी प्रक्रिया का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि—

  • कोई जल्दबाजी न हो
  • किसी प्रकार की त्रुटि की गुंजाइश न रहे
  • और निर्णय पूर्णतः वैज्ञानिक, मानवीय और निष्पक्ष हो

पूर्व न्यायिक दृष्टांत : अरुणा शानबाग मामला

       भारत में Passive Euthanasia पर चर्चा की शुरुआत अरुणा शानबाग बनाम भारत संघ मामले से हुई थी। इस ऐतिहासिक निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार सीमित परिस्थितियों में Passive Euthanasia को स्वीकार किया।

इसके बाद—

  • Common Cause v. Union of India
    मामले में सुप्रीम कोर्ट ने Living Will और Advance Directive को मान्यता दी और कहा कि—

“सम्मान के साथ मरने का अधिकार, अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन के अधिकार का हिस्सा है।”

वर्तमान मामला इन्हीं सिद्धांतों का व्यावहारिक परीक्षण है।


अनुच्छेद 21 और सम्मानपूर्वक मृत्यु

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 कहता है—

“किसी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बिना वंचित नहीं किया जाएगा।”

सुप्रीम कोर्ट ने समय–समय पर इसकी व्यापक व्याख्या करते हुए कहा है कि—

  • जीवन केवल सांस लेने का नाम नहीं
  • उसमें गरिमा, सम्मान और चेतना भी शामिल है

यदि जीवन पूरी तरह चेतनाहीन और पीड़ादायक बन जाए, तो गरिमा का प्रश्न उठना स्वाभाविक है।


नैतिक और सामाजिक आयाम

यह मामला केवल कानूनी नहीं, बल्कि गहरा नैतिक प्रश्न भी उठाता है—

  • क्या परिवार को वर्षों तक आशाहीन इंतजार में रखा जाना उचित है?
  • क्या चिकित्सा विज्ञान को जीवन की गुणवत्ता पर भी ध्यान देना चाहिए?
  • क्या जीवन को “मशीनों पर टिका” रखना ही मानवता है?

सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण इन प्रश्नों में संतुलन बनाने का प्रयास करता है।


परिवार की पीड़ा और अपेक्षाएं

याचिका में परिवार ने बताया कि—

  • वे मानसिक और आर्थिक रूप से टूट चुके हैं
  • रोगी की स्थिति वर्षों से अपरिवर्तित है
  • उन्हें केवल “सम्मानजनक विदाई” की अनुमति चाहिए

न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि परिवार की पीड़ा को अनदेखा नहीं किया जा सकता, लेकिन निर्णय केवल सहानुभूति पर नहीं, बल्कि ठोस चिकित्सकीय आधार पर होगा।


भविष्य के मामलों पर प्रभाव

सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश—

  • भविष्य में Passive Euthanasia से जुड़े मामलों के लिए मार्गदर्शक बनेगा
  • मेडिकल बोर्ड की भूमिका को और सुदृढ़ करेगा
  • और यह सुनिश्चित करेगा कि किसी भी प्रकार का दुरुपयोग न हो

निष्कर्ष

       वेजिटेटिव अवस्था में पड़े व्यक्ति की Passive Euthanasia याचिका पर Secondary Medical Board के गठन का सुप्रीम कोर्ट का आदेश भारतीय संवैधानिक न्यायशास्त्र में एक अत्यंत संवेदनशील और महत्वपूर्ण कदम है। यह आदेश यह दर्शाता है कि—

न्यायपालिका जीवन की रक्षा और गरिमा—दोनों के बीच संतुलन बनाने के लिए प्रतिबद्ध है।

        यह मामला हमें याद दिलाता है कि कानून केवल नियमों का संग्रह नहीं, बल्कि मानवीय पीड़ा, नैतिकता और करुणा का संवैधानिक प्रतिबिंब भी है। आने वाली मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का अंतिम निर्णय न केवल इस परिवार के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए सम्मानपूर्वक मृत्यु के अधिकार की दिशा में एक निर्णायक क्षण साबित हो सकता है।