51. समाजशास्त्र में संरचनात्मक कार्यात्मक दृष्टिकोण क्या है?
संरचनात्मक कार्यात्मक दृष्टिकोण (Structural Functional Approach) समाज को एक जीवित शरीर की तरह देखता है जिसमें प्रत्येक अंग (संस्था) एक निश्चित कार्य करता है। यह दृष्टिकोण मानता है कि समाज की विभिन्न संस्थाएँ (जैसे परिवार, धर्म, शिक्षा) मिलकर सामाजिक संतुलन बनाए रखती हैं। इस दृष्टिकोण के प्रमुख विचारक एमिल दुर्खीम और टाल्कॉट पार्सन्स हैं। यह दृष्टिकोण सामाजिक स्थायित्व, एकता और संतुलन पर बल देता है, परंतु आलोचकों के अनुसार यह सामाजिक असमानता को नजरअंदाज करता है।
52. समाजशास्त्र में संघर्ष का सिद्धांत क्या है?
संघर्ष सिद्धांत (Conflict Theory) समाज को प्रतिस्पर्धा और संघर्ष की दृष्टि से देखता है। यह मानता है कि समाज में संसाधनों का वितरण असमान होता है, जिससे वर्चस्व वर्ग और उत्पीड़ित वर्ग के बीच संघर्ष होता है। इसके प्रमुख प्रवर्तक कार्ल मार्क्स हैं। यह सिद्धांत वर्ग संघर्ष, शोषण, सामाजिक परिवर्तन और सत्ता पर केंद्रित होता है। यह असमानता के कारणों को उजागर करता है और सामाजिक न्याय की बात करता है।
53. समाजिक नियंत्रण की आवश्यकता क्यों होती है?
सामाजिक नियंत्रण समाज में अनुशासन बनाए रखने, सामाजिक मूल्यों की रक्षा करने और समाज के सदस्यों को जिम्मेदार नागरिक बनाने के लिए आवश्यक होता है। इसके बिना समाज में अराजकता, हिंसा और अपराध फैल सकते हैं। सामाजिक नियंत्रण से व्यक्ति सामाजिक नियमों का पालन करता है और सामाजिक व्यवस्था सुचारु रूप से चलती है। यह नियंत्रण औपचारिक (कानून, पुलिस) और अनौपचारिक (धर्म, रीति-रिवाज) माध्यमों से होता है।
54. जाति व्यवस्था की वर्तमान स्थिति
आधुनिक भारत में जाति व्यवस्था का प्रभाव धीरे-धीरे कम हो रहा है, विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों में। शिक्षा, औद्योगीकरण, संवैधानिक अधिकारों और आरक्षण नीति के कारण जातीय बाधाएँ टूट रही हैं। फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों में जातिवाद, भेदभाव और ऊँच-नीच की भावना अब भी मौजूद है। राजनीतिक पार्टियाँ भी जाति को चुनावी रणनीति के रूप में इस्तेमाल करती हैं। अतः जाति व्यवस्था खत्म तो नहीं हुई, परंतु इसका रूप अवश्य बदला है।
55. नारीवाद (Feminism) क्या है?
नारीवाद एक सामाजिक आंदोलन और विचारधारा है जो महिलाओं के अधिकार, समानता और गरिमा की वकालत करता है। इसका उद्देश्य पुरुषप्रधान व्यवस्था में महिलाओं के साथ होने वाले शोषण, भेदभाव और असमानता को समाप्त करना है। नारीवाद कई धाराओं में विभाजित है – उदारवादी, समाजवादी, मार्क्सवादी और कट्टर नारीवाद। यह न केवल अधिकारों की माँग करता है बल्कि महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में भी प्रेरित करता है।
56. समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र में अंतर
समाजशास्त्र सामाजिक संबंधों, संस्थाओं और व्यवहारों का अध्ययन करता है जबकि अर्थशास्त्र वस्तुओं, सेवाओं, उत्पादन, वितरण और उपभोग से संबंधित होता है। समाजशास्त्र सामाजिक समस्याओं और संरचना को समझाता है, जबकि अर्थशास्त्र आर्थिक नीतियों और संसाधनों की व्यवस्था पर केंद्रित होता है। दोनों में अंतर होते हुए भी ये एक-दूसरे के पूरक हैं।
57. सामाजिक न्याय क्या है?
सामाजिक न्याय वह स्थिति है जहाँ समाज के सभी वर्गों को समान अवसर, अधिकार और संसाधनों तक पहुँच प्राप्त होती है। इसका उद्देश्य शोषण, भेदभाव और असमानता को समाप्त करना है। भारत में सामाजिक न्याय को संविधान के मूल उद्देश्यों में शामिल किया गया है और अनुसूचित जाति/जनजाति/पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण नीति इसका उदाहरण है।
58. सांस्कृतिक प्रसार (Cultural Diffusion) क्या है?
सांस्कृतिक प्रसार वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक संस्कृति के तत्व (भाषा, रीति-रिवाज, विचार, तकनीक आदि) दूसरी संस्कृति में प्रवेश कर जाते हैं। यह व्यापार, युद्ध, यात्रा, मीडिया या प्रवास के माध्यम से हो सकता है। उदाहरण: पिज़्ज़ा, जींस, योग जैसी चीजें वैश्विक संस्कृति का हिस्सा बन चुकी हैं। यह प्रक्रिया संस्कृति को समृद्ध करती है लेकिन कभी-कभी सांस्कृतिक टकराव भी उत्पन्न करती है।
59. समाज में शिक्षा का उद्देश्य
शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान देना नहीं, बल्कि व्यक्ति को सामाजिक, नैतिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से विकसित करना है। यह व्यक्ति को समाज के साथ सामंजस्य स्थापित करने, जिम्मेदार नागरिक बनने और समाज की समस्याओं को समझने में सक्षम बनाती है। शिक्षा सामाजिक समानता, राष्ट्र निर्माण और सामाजिक परिवर्तन का प्रमुख साधन है।
60. सामाजिक आंदोलनों की भूमिका
सामाजिक आंदोलन समाज में बदलाव लाने का सशक्त माध्यम हैं। ये असंतोष, अन्याय या दमन के विरुद्ध जनसमूह की संगठित प्रतिक्रिया होते हैं। जैसे – स्वतंत्रता आंदोलन, दलित आंदोलन, किसान आंदोलन, महिला सशक्तिकरण आंदोलन। ये आंदोलन सामाजिक चेतना जागृत करते हैं, नीतियों में परिवर्तन लाते हैं और जनसामान्य को अपनी आवाज उठाने का माध्यम देते हैं।
61. ग्रामीण और शहरी समाज में अंतर
ग्रामीण समाज पारंपरिक, सामूहिक और कृषि आधारित होता है जबकि शहरी समाज आधुनिक, व्यक्तिवादी और औद्योगिक होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में संबंध घनिष्ठ और भावनात्मक होते हैं, जबकि शहरी जीवन औपचारिक और व्यस्त होता है। शहरी समाज में विविधता अधिक होती है जबकि ग्रामीण समाज एकरूप होता है। दोनों के सामाजिक ढाँचे, जीवनशैली और समस्याएँ भिन्न होती हैं।
62. सामाजिक परिकल्पना (Social Hypothesis) क्या होती है?
सामाजिक परिकल्पना एक अनुमान या प्रस्ताव होता है जिसे सामाजिक अनुसंधान में प्रमाणित किया जाता है। यह किसी सामाजिक घटना के संभावित कारण या प्रभाव को दर्शाता है। जैसे – “शिक्षा का स्तर बढ़ने से बाल विवाह में कमी आती है।” परिकल्पना को तथ्यों और आंकड़ों के माध्यम से जांचा जाता है और फिर निष्कर्ष निकाला जाता है।
63. समाज में मीडिया की भूमिका
मीडिया आधुनिक समाज का शक्तिशाली स्तंभ है। यह सूचना, शिक्षा, मनोरंजन और जनमत निर्माण का कार्य करता है। मीडिया समाज में जागरूकता फैलाता है, भ्रष्टाचार उजागर करता है, और सरकार व जनता के बीच सेतु का काम करता है। लेकिन यदि यह पक्षपातपूर्ण या गलत जानकारी फैलाए, तो सामाजिक तनाव भी उत्पन्न हो सकता है।
64. जातीयता (Ethnicity) क्या है?
जातीयता से तात्पर्य किसी समूह की सांस्कृतिक, भाषाई, धार्मिक, या ऐतिहासिक पहचान से है, जो उन्हें अन्य समूहों से अलग करती है। उदाहरण – सिक्ख, बंगाली, तमिल, मराठा आदि। यह पहचान व्यक्ति को गर्व और सामूहिकता की भावना देती है। परंतु कभी-कभी यह जातीय संघर्ष और भेदभाव का कारण भी बनती है।
65. सामाजिक शोध के प्रमुख चरण
सामाजिक शोध के मुख्य चरण निम्नलिखित हैं:
- समस्या का चयन
- समीक्षा और परिकल्पना निर्माण
- डेटा संग्रह (सर्वेक्षण, साक्षात्कार, अवलोकन)
- डेटा विश्लेषण और व्याख्या
- निष्कर्ष और प्रतिवेदन
यह प्रक्रिया वैज्ञानिक होती है और समाज की समस्याओं के समाधान की दिशा में सहायता करती है।
66. सामाजिक व्यवस्था (Social Order) क्या है?
सामाजिक व्यवस्था वह स्थिति है जिसमें समाज के सदस्य नियमों, मान्यताओं और संस्थाओं का पालन करते हैं, जिससे समाज में स्थायित्व, अनुशासन और शांति बनी रहती है। यह व्यवस्था सामाजिक नियंत्रण, नैतिकता और संस्थाओं के माध्यम से सुनिश्चित होती है। जब यह व्यवस्था टूटती है, तो अराजकता और संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है। सामाजिक व्यवस्था समाज के सुचारु संचालन का मूल आधार है।
67. द्वैविवाह (Bigamy) क्या है?
द्वैविवाह वह स्थिति है जब कोई व्यक्ति एक ही समय में दो व्यक्तियों से विधिक रूप से विवाह करता है। भारत में यह अवैध है, विशेषकर हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत। मुस्लिम विधि में सीमित बहुविवाह की अनुमति है, परंतु अधिकांश धर्मों और कानूनों में द्वैविवाह को अपराध माना गया है और इसके लिए दंड का प्रावधान है।
68. लोकाचार (Folkways) क्या होते हैं?
लोकाचार वे सामान्य सामाजिक आचरण के नियम होते हैं, जो यह बताते हैं कि समाज में कैसा व्यवहार अपेक्षित है। ये नियम अनौपचारिक होते हैं और इनके उल्लंघन पर कठोर दंड नहीं होता, परंतु समाज में व्यक्ति की छवि पर असर पड़ता है। जैसे – बड़ों का अभिवादन करना, साफ-सुथरा रहना। ये आदतों और परंपराओं से उत्पन्न होते हैं।
69. नैतिकता (Mores) क्या होती है?
नैतिकता वे अनिवार्य सामाजिक नियम होते हैं, जिनका पालन करना सामाजिक और नैतिक दृष्टि से आवश्यक होता है। इनके उल्लंघन पर समाज में घोर निंदा और सामाजिक बहिष्कार तक हो सकता है। उदाहरण – चोरी न करना, हत्या न करना। यह समाज के नैतिक मूल्यों को बनाए रखने का कार्य करती है और सामाजिक नियंत्रण का सशक्त साधन है।
70. सामाजिक विभाजन क्या है?
सामाजिक विभाजन समाज में विभिन्न वर्गों, जातियों, लिंग, धर्म और आर्थिक स्तर के आधार पर लोगों को बाँटने की प्रक्रिया है। यह विभाजन संसाधनों, अधिकारों और अवसरों के असमान वितरण को जन्म देता है। सामाजिक विभाजन कभी प्राकृतिक होता है (जैसे लिंग), कभी सामाजिक रचना का हिस्सा (जैसे जाति)। यदि यह विभाजन भेदभाव और असमानता को जन्म दे, तो यह सामाजिक न्याय में बाधा बनता है।
71. समाज और राष्ट्र में अंतर
समाज एक विस्तृत सामाजिक संरचना है जिसमें लोग पारस्परिक संबंधों में बंधे होते हैं, जबकि राष्ट्र एक राजनीतिक और भौगोलिक इकाई है जिसकी सीमाएँ निश्चित होती हैं। समाज भावनात्मक और सांस्कृतिक आधार पर आधारित होता है, जबकि राष्ट्र कानूनी और प्रशासनिक दृष्टि से परिभाषित होता है। समाज राष्ट्र से बड़ा भी हो सकता है और छोटा भी।
72. संस्कृतिकरण (Sanskritization) क्या है?
संस्कृतिकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से निम्न जातियाँ उच्च जातियों की जीवनशैली, रीति-रिवाज, परंपरा और विश्वासों को अपनाकर सामाजिक स्थिति में सुधार लाने का प्रयास करती हैं। यह सिद्धांत एम.एन. श्रीनिवास द्वारा प्रतिपादित किया गया था। यह प्रक्रिया सामाजिक गतिशीलता और परिवर्तन को दर्शाती है, परंतु यह जातिवादी संरचना को भी अप्रत्यक्ष रूप से बनाए रखती है।
73. पाश्चात्य समाजशास्त्र और भारतीय समाजशास्त्र में अंतर
पाश्चात्य समाजशास्त्र अधिकतर औद्योगिक, शहरी, व्यक्तिवादी समाज पर केंद्रित होता है और विश्लेषणात्मक, तर्कप्रधान होता है। वहीं भारतीय समाजशास्त्र जाति, धर्म, परंपरा, ग्राम व्यवस्था, संयुक्त परिवार और सामाजिक असमानता जैसे विषयों पर केंद्रित होता है। भारतीय समाजशास्त्र अधिक सांस्कृतिक और मूल्य आधारित होता है, जबकि पाश्चात्य समाजशास्त्र अधिक संरचनात्मक और वैज्ञानिक।
74. समाज में कानून की भूमिका
कानून समाज में अनुशासन, नियंत्रण और न्याय सुनिश्चित करता है। यह समाज में अपराध, भेदभाव और अराजकता को रोकने का माध्यम है। कानून सभी को समान रूप से अधिकार और दायित्व प्रदान करता है। इसके बिना समाज में शक्ति का दुरुपयोग और शोषण बढ़ सकता है। कानून सामाजिक परिवर्तन का भी प्रमुख साधन है।
75. जनसंख्या वृद्धि की सामाजिक समस्याएँ
जनसंख्या वृद्धि समाज में अनेक समस्याओं को जन्म देती है जैसे – बेरोजगारी, आवास की कमी, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर दबाव, संसाधनों की कमी, प्रदूषण और सामाजिक असंतुलन। अधिक जनसंख्या होने से सरकार पर आर्थिक बोझ बढ़ता है और जीवन स्तर नीचे चला जाता है। इसे नियंत्रित करने के लिए जनसंख्या नीति, परिवार नियोजन और जनजागरूकता आवश्यक है।
76. समाज में भाषा की भूमिका
भाषा संप्रेषण का माध्यम है, जिससे समाज के लोग विचारों, भावनाओं और अनुभवों का आदान-प्रदान करते हैं। यह संस्कृति की संवाहक होती है और सामाजिक पहचान को भी दर्शाती है। भाषा समाजशास्त्रीय अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण तत्व है क्योंकि इसके माध्यम से परंपराएँ, ज्ञान और अनुभव एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जाते हैं। बहुभाषी समाज में एकता बनाए रखने के लिए भाषा नीति भी आवश्यक होती है।
77. वैश्वीकरण (Globalization) का समाज पर प्रभाव
वैश्वीकरण ने समाज को तकनीकी, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से जोड़ा है। इससे नए अवसर पैदा हुए, लेकिन पारंपरिक जीवनशैली और स्थानीय संस्कृतियाँ प्रभावित भी हुई हैं। रोजगार, शिक्षा, संचार, और उपभोक्तावाद में वृद्धि हुई है, परंतु असमानता, सांस्कृतिक क्षरण और मूल्यों का पतन भी देखा गया है। यह एक मिश्रित प्रभाव उत्पन्न करता है – लाभ भी, चुनौतियाँ भी।
78. सामाजिक गतिशीलता और सामाजिक स्तरीकरण में संबंध
सामाजिक स्तरीकरण समाज को विभिन्न स्तरों में विभाजित करता है, जबकि सामाजिक गतिशीलता व्यक्तियों या समूहों के उन स्तरों में ऊपर या नीचे जाने की प्रक्रिया है। गतिशीलता तब संभव होती है जब स्तरीकरण लचीला होता है। जैसे – वर्ग व्यवस्था में गतिशीलता संभव है, लेकिन जाति व्यवस्था में सीमित। दोनों परस्पर जुड़ी हुई अवधारणाएँ हैं।
79. समाज में प्रवास (Migration) के प्रभाव
प्रवास समाज में जनसंख्या संरचना, भाषा, संस्कृति और आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित करता है। यह शहरीकरण, रोजगार और सांस्कृतिक विविधता लाता है, लेकिन इसके साथ-साथ आवास की समस्या, सांस्कृतिक टकराव और सामाजिक असंतुलन भी पैदा करता है। प्रवास विकास का साधन हो सकता है यदि इसे योजना बद्ध ढंग से प्रबंधित किया जाए।
80. भारतीय समाज की विशेषताएँ
भारतीय समाज बहुजातीय, बहुभाषी, बहुधार्मिक और विविध सांस्कृतिक समाज है। इसमें संयुक्त परिवार, जाति व्यवस्था, धार्मिकता, ग्रामीण-प्रधानता और परंपराओं का विशेष स्थान है। यहाँ विविधता में एकता की भावना पाई जाती है। आधुनिक भारत में शिक्षा, शहरीकरण, वैश्वीकरण और संवैधानिक अधिकारों ने इसकी संरचना को धीरे-धीरे बदलना शुरू किया है।
81. सामाजिक विस्थापन (Social Displacement) क्या है?
सामाजिक विस्थापन वह स्थिति है जब किसी व्यक्ति या समुदाय को उसकी मूल जगह से हटाकर अन्य स्थान पर बसाया जाता है। यह विकास परियोजनाओं, युद्ध, आपदाओं या शहरीकरण के कारण होता है। इससे लोगों की सामाजिक पहचान, रोजगार, संस्कृति और जीवनशैली प्रभावित होती है। विस्थापितों के पुनर्वास और सामाजिक समायोजन की चुनौती उत्पन्न होती है।
82. सामाजिक संस्थाएँ कैसे कार्य करती हैं?
सामाजिक संस्थाएँ जैसे – परिवार, धर्म, शिक्षा, राजनीति – समाज को संगठित रखने और मूल्यों को संरक्षित करने का कार्य करती हैं। ये संस्थाएँ व्यक्ति के व्यवहार को नियंत्रित करती हैं और सामाजिक संतुलन बनाए रखती हैं। प्रत्येक संस्था का विशेष कार्य होता है, और मिलकर ये समाज के समग्र संचालन को सुनिश्चित करती हैं।
83. भारतीय समाज में पितृसत्तात्मक व्यवस्था
भारतीय समाज परंपरागत रूप से पितृसत्तात्मक है, जिसमें पुरुषों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक वर्चस्व प्राप्त होता है। परिवार में निर्णय लेने से लेकर संपत्ति के अधिकार तक, पुरुष प्रधानता रही है। हालाँकि आधुनिक शिक्षा, कानून और नारी आंदोलन के कारण यह व्यवस्था धीरे-धीरे बदल रही है। परंतु अब भी ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में इसका प्रभाव व्याप्त है।
84. सामुदायिक भावना (Community Feeling) क्या है?
सामुदायिक भावना से तात्पर्य है – एक समूह के सदस्यों के बीच सहयोग, एकता, सहानुभूति और पारस्परिक विश्वास की भावना। यह भावना समाज को संगठित रखती है और आपसी सहयोग को बढ़ावा देती है। जैसे – ग्रामीण समाज में यह भावना अधिक पाई जाती है। यह सामाजिक पूँजी (Social Capital) का एक रूप है।
85. समाज में महिला सशक्तिकरण की आवश्यकता
महिलाएँ समाज की आधी आबादी हैं, लेकिन उन्हें लंबे समय से भेदभाव, शोषण और असमानता का सामना करना पड़ा है। शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, राजनीतिक भागीदारी और आत्मनिर्भरता के क्षेत्र में उनका सशक्तिकरण आवश्यक है। इससे न केवल महिलाओं का विकास होगा, बल्कि संपूर्ण समाज का भी समुचित विकास संभव होगा।
86. समाज में विज्ञान की भूमिका
विज्ञान ने समाज को आधुनिकता, सुविधा और प्रगति प्रदान की है। इससे जीवनशैली में बदलाव आया है, तकनीकी विकास हुआ है और स्वास्थ्य, संचार, शिक्षा आदि में सुधार हुआ है। विज्ञान ने अंधविश्वासों को चुनौती दी है और तर्क, प्रमाण और प्रयोग पर आधारित सोच को बढ़ावा दिया है। परंतु इसका दुरुपयोग (जैसे हथियार, प्रदूषण) भी सामाजिक समस्याएँ उत्पन्न कर सकता है।
यह रहे समाजशास्त्र – I (Sociology – I) से संबंधित प्रश्न 87 से 100 तक के शॉर्ट उत्तर (150 से 200 शब्दों में) – हिंदी में:
87. सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक नियंत्रण में संबंध
सामाजिक परिवर्तन समाज की संरचना, मूल्यों और संस्थाओं में होने वाला स्थायी परिवर्तन है, जबकि सामाजिक नियंत्रण वह प्रक्रिया है जिससे समाज इन परिवर्तनों को नियंत्रित करता है ताकि संतुलन बना रहे। जब समाज में तीव्र परिवर्तन होता है, तो सामाजिक नियंत्रण का महत्व और बढ़ जाता है। ये दोनों परस्पर पूरक हैं – सामाजिक नियंत्रण परिवर्तन को दिशा देता है, और परिवर्तन नए नियंत्रण के तरीके विकसित करता है।
88. दलित आंदोलन का समाज पर प्रभाव
दलित आंदोलन ने भारतीय समाज में समानता, आत्म-सम्मान और अधिकारों की चेतना को बढ़ावा दिया। इस आंदोलन ने जातीय भेदभाव के खिलाफ संघर्ष कर अनुसूचित जातियों को सामाजिक, शैक्षिक और राजनीतिक क्षेत्र में उठाने का कार्य किया। संविधान में आरक्षण, अनुसूचित जाति उत्पीड़न अधिनियम, और सामाजिक जागरूकता इसके प्रभाव के रूप में देखे जा सकते हैं। यह आंदोलन सामाजिक न्याय और लोकतंत्र की मजबूती का प्रतीक बना।
89. जनसंचार के माध्यम और समाज में उनकी भूमिका
जनसंचार के माध्यम जैसे – रेडियो, टीवी, समाचार पत्र, इंटरनेट और सोशल मीडिया – समाज को सूचनाएँ, मनोरंजन और शिक्षा प्रदान करते हैं। ये जनमत निर्माण, सामाजिक चेतना, और राजनीतिक भागीदारी को प्रोत्साहित करते हैं। आज के डिजिटल युग में सोशल मीडिया सामाजिक आंदोलनों और जागरूकता अभियानों का प्रमुख साधन बन गया है। हालाँकि, गलत सूचनाएँ और अफवाहें भी चिंता का विषय हैं।
90. समाज में जाति और वर्ग में अंतर
जाति जन्म पर आधारित होती है और परिवर्तनशील नहीं होती, जबकि वर्ग आर्थिक स्थिति पर आधारित होता है और परिवर्तनशील होता है। जाति व्यवस्था में ऊँच-नीच और पेशे से जुड़ी सीमाएँ होती हैं, जबकि वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति अपनी योग्यता से ऊपर उठ सकता है। जाति स्थिर होती है, वर्ग गतिशील। दोनों सामाजिक स्तरीकरण के रूप हैं, परंतु प्रकृति में भिन्न।
91. भारत में संयुक्त परिवार की विशेषताएँ
संयुक्त परिवार एक ऐसी पारिवारिक व्यवस्था है जिसमें कई पीढ़ियाँ एक साथ रहती हैं और आय, व्यय, निर्णय आदि साझा करती हैं। इसकी विशेषताएँ हैं – एकसाथ निवास, साझी संपत्ति, पारंपरिक मूल्य, बड़ों का नेतृत्व, और आपसी सहयोग। हालाँकि आधुनिकता, शहरीकरण और व्यावसायिक कारणों से यह प्रणाली कमजोर हो रही है, परंतु अब भी ग्रामीण भारत में इसका महत्व बना हुआ है।
92. सामाजिककरण और व्यक्तित्व विकास में संबंध
सामाजिककरण वह प्रक्रिया है जिससे व्यक्ति समाज के नियम, मूल्य, भाषा और व्यवहार सीखता है। यह प्रक्रिया व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। परिवार, विद्यालय, मित्र समूह और मीडिया जैसे माध्यमों से व्यक्ति सामाजिक भूमिका निभाने योग्य बनता है। सामाजिकरण से ही व्यक्ति समाज में रहने योग्य नागरिक बनता है।
93. भारतीय समाज में वृद्धजनों की स्थिति
भारतीय समाज में वृद्धजन पहले सम्मान, निर्णय क्षमता और अनुभव के प्रतीक माने जाते थे। परंतु आज शहरीकरण, न्यूक्लियर परिवार और बदलते सामाजिक मूल्यों के कारण वे उपेक्षा और अकेलेपन का शिकार हो रहे हैं। वृद्धावस्था पेंशन, वृद्धाश्रम, और स्वास्थ्य सेवाएँ उनके लिए आवश्यक हो गई हैं। सामाजिक पुनरुत्थान और पारिवारिक मूल्यों की पुनर्स्थापना आवश्यक है।
94. अनुसूचित जातियों और जनजातियों की सामाजिक स्थिति
अनुसूचित जातियाँ और जनजातियाँ ऐतिहासिक रूप से सामाजिक भेदभाव, गरीबी और शिक्षा की कमी से पीड़ित रही हैं। संविधान में इन्हें विशेष अधिकार, आरक्षण और संरक्षण प्रदान किया गया है। सरकार की योजनाओं और सामाजिक आंदोलनों से इनकी स्थिति में सुधार हुआ है, परंतु अब भी कई क्षेत्रों में असमानता और शोषण की स्थितियाँ बनी हुई हैं।
95. शहरी जीवन की समस्याएँ
शहरी जीवन में सुविधाओं के साथ-साथ अनेक समस्याएँ भी हैं – जैसे अधिक जनसंख्या, ट्रैफिक जाम, प्रदूषण, महँगाई, अपराध, बेरोजगारी, झुग्गी-झोपड़ियाँ, और सामाजिक अलगाव। इन समस्याओं का समाधान योजनाबद्ध शहरी विकास, सार्वजनिक परिवहन, स्वच्छता, रोजगार अवसर और सामुदायिक विकास से किया जा सकता है।
96. पर्यावरण और समाज में संबंध
पर्यावरण समाज के अस्तित्व का आधार है। स्वच्छ जल, वायु, भूमि और प्राकृतिक संसाधनों के बिना जीवन संभव नहीं। परंतु आधुनिक समाज की उपभोक्तावादी प्रवृत्ति ने पर्यावरण को संकट में डाल दिया है – जैसे वनों की कटाई, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन। समाजशास्त्र पर्यावरणीय चेतना, सतत विकास और पर्यावरण संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
97. लैंगिक भेदभाव (Gender Discrimination) क्या है?
लैंगिक भेदभाव वह सामाजिक व्यवहार है जिसमें पुरुष और स्त्री के साथ भिन्न दृष्टिकोण और अवसर प्रदान किए जाते हैं। जैसे – शिक्षा, रोजगार, संपत्ति, और निर्णय-निर्माण में महिलाओं को पीछे रखा जाता है। यह भेदभाव सामाजिक विकास में बाधा है। इसे मिटाने के लिए शिक्षा, कानून, जागरूकता और नारी सशक्तिकरण जरूरी हैं।
98. समाज में नागरिक समाज की भूमिका
नागरिक समाज गैर-सरकारी संस्थाओं, संगठनों और जागरूक नागरिकों का ऐसा समूह है जो लोकतंत्र, मानवाधिकार, पारदर्शिता और उत्तरदायित्व की स्थापना में भूमिका निभाता है। यह सरकार और जनता के बीच सेतु बनता है, और सामाजिक मुद्दों जैसे – पर्यावरण, भ्रष्टाचार, शिक्षा आदि पर कार्य करता है। यह समाज को सशक्त और उत्तरदायी बनाता है।
99. समाज में शिक्षा और आधुनिकता का संबंध
शिक्षा आधुनिकता का आधार है। यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण, तर्क, तकनीक, लोकतांत्रिक मूल्यों और समानता की भावना को बढ़ावा देती है। शिक्षा ही समाज को परंपरा से आधुनिकता की ओर ले जाती है। आधुनिक समाज में शिक्षा केवल जानकारी नहीं देती, बल्कि सोचने और बदलाव लाने की क्षमता विकसित करती है।
100. समाजशास्त्र अध्ययन की प्रासंगिकता
समाजशास्त्र समाज को समझने, उसकी समस्याओं की पहचान करने और समाधान सुझाने में अत्यंत प्रासंगिक है। यह सामाजिक संस्थाओं, मूल्यों, परिवर्तन और व्यवहार को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखता है। आज के जटिल और विविधतापूर्ण समाज में समाजशास्त्र सामाजिक एकता, सुधार और नीतिगत निर्णयों के लिए आवश्यक उपकरण बन गया है।