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“सत्य की खोज प्रक्रिया से होती है, मौन से नहीं — एकतरफा कार्यवाही में प्रतिवादी का अधिकार सुरक्षित”

“एकतरफा कार्यवाही में भी सत्य का अधिकार : प्रतिवादी का प्रतिपरीक्षण का अधिकार समाप्त नहीं — सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 148, 151, आदेश 8 नियम 10 एवं आदेश 5 नियम 1 के आलोक में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय (LAWS (SC) 2025-10-18)”


भूमिका

न्याय केवल निर्णय का नाम नहीं, बल्कि सत्य की खोज की प्रक्रिया है। भारतीय न्याय व्यवस्था इस सिद्धांत पर आधारित है कि प्रत्येक पक्ष को न्यायालय के समक्ष अपना पक्ष रखने और विरोधी पक्ष की बात को परखने का समान अवसर मिले।

हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court of India) ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय (LAWS (SC) 2025-10-18) में यह स्पष्ट किया कि भले ही प्रतिवादी (Defendant) ने लिखित कथन (Written Statement) प्रस्तुत न किया हो और मामला एकतरफा (Ex-Parte) रूप से चल रहा हो, फिर भी उसका बचाव अधिकार (Right of Defence) पूर्णतः समाप्त नहीं होता।

न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादी को अब भी वादी (Plaintiff) के साक्षियों का प्रतिपरीक्षण (Cross-Examination) करने का अधिकार है, ताकि सत्य उद्घाटित हो सके और असत्य का पर्दाफाश हो सके। यह निर्णय न्याय के मूल सिद्धांत — “audi alteram partem” (दूसरे पक्ष को सुनने का अधिकार) — की पुनः पुष्टि करता है।


मामले की पृष्ठभूमि (Case Background)

इस मामले में वादी ने एक दीवानी वाद (Civil Suit) दायर किया, जिसमें प्रतिवादी को समन जारी किया गया। प्रतिवादी ने नियत समयावधि में लिखित कथन (Written Statement) दाखिल नहीं किया। परिणामस्वरूप, निचली अदालत ने वाद को एकतरफा रूप में आगे बढ़ाने की अनुमति दे दी।

वादी ने अपने साक्ष्य प्रस्तुत किए और अपने गवाहों का परीक्षण कराया। परंतु जब प्रतिवादी ने वादी के गवाहों का प्रतिपरीक्षण करने की अनुमति मांगी, तो निचली अदालत ने इसे यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि “चूंकि प्रतिवादी ने लिखित कथन नहीं दिया, इसलिए वह प्रतिपरीक्षण नहीं कर सकता।”

प्रतिवादी ने इस आदेश को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय और फिर सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया।


मुख्य प्रश्न (Key Legal Issues)

  1. क्या लिखित कथन न देने की स्थिति में प्रतिवादी का बचाव अधिकार स्वतः समाप्त हो जाता है?
  2. क्या एकतरफा कार्यवाही के दौरान प्रतिवादी वादी के साक्षियों का प्रतिपरीक्षण कर सकता है?
  3. क्या प्रतिवादी बिना लिखित कथन दाखिल किए भी वैधानिक आपत्तियाँ (जैसे — सीमावधि, अधिकार क्षेत्र, वाद का निषेध आदि) उठा सकता है?

संबंधित विधिक प्रावधान (Relevant Legal Provisions)

1. सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC)

  • आदेश 8, नियम 10 (Order VIII Rule 10)
    यदि प्रतिवादी लिखित कथन दाखिल नहीं करता, तो न्यायालय वादी के कथनों को सत्य मान सकता है, परंतु न्यायालय को विवेकाधिकार है कि वह मामले की प्रकृति को देखते हुए आगे की कार्यवाही तय करे।
  • आदेश 5, नियम 1 (Order V Rule 1)
    इसमें समन जारी करने और प्रतिवादी को उत्तर प्रस्तुत करने की प्रक्रिया का प्रावधान है।
  • धारा 148 और 151 (Sections 148 & 151)
    ये न्यायालय को न्यायिक विवेकाधिकार (Judicial Discretion) और न्यायोचित अधिकार (Inherent Powers) प्रदान करती हैं ताकि न्यायालय उचित न्याय सुनिश्चित कर सके।

सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण (Judicial Reasoning by the Supreme Court)

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि न्याय का उद्देश्य केवल वादी को राहत देना नहीं, बल्कि सत्य की खोज करना है।

न्यायालय ने यह माना कि:

“लिखित कथन का अभाव प्रतिवादी को पूरी तरह से मौन नहीं करता।
न्यायिक प्रक्रिया का उद्देश्य सत्य का उद्घाटन है, और प्रतिपरीक्षण (Cross-Examination) उसका सबसे प्रभावी माध्यम है।”

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि —

  • यदि प्रतिवादी का लिखित कथन दाखिल नहीं हुआ है, तो भी उसे वादी के गवाहों से प्रश्न पूछने और उनकी विश्वसनीयता को चुनौती देने का अवसर दिया जाना चाहिए।
  • Cross-examination केवल तकनीकी अधिकार नहीं, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया का अभिन्न हिस्सा है।

न्यायालय ने यह भी कहा कि प्रतिवादी, वादी के दावे और साक्ष्यों के आधार पर यह तर्क दे सकता है कि —

  • वाद सीमावधि (Limitation) से वर्जित है,
  • वाद अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction) से बाहर है,
  • या वादी का दावा कानून द्वारा निषिद्ध (barred by law) है।

न्यायालय का निर्णय (Court’s Verdict)

सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा:

  1. एकतरफा कार्यवाही में भी प्रतिवादी का बचाव अधिकार शेष रहता है।
  2. प्रतिपरीक्षण (Cross-examination) का उद्देश्य सत्य को उद्घाटित करना है, अतः यह अधिकार प्रतिवादी से नहीं छीना जा सकता।
  3. लिखित कथन का अभाव केवल इतना प्रभाव डालता है कि प्रतिवादी अपने पक्ष में स्वतंत्र साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर सकता, लेकिन वादी के साक्ष्यों को चुनौती देना उसका संवैधानिक और प्राकृतिक अधिकार है।
  4. निचली अदालतों को निर्देश दिया गया कि वे इस प्रकार के मामलों में न्यायिक विवेक का प्रयोग करें और प्रतिपरीक्षण की अनुमति दें।

न्यायालय द्वारा उद्धृत सिद्धांत (Legal Principles Highlighted)

  1. Right to Cross-Examine is Fundamental:
    प्रतिपरीक्षण का अधिकार न्याय के मूल स्तंभों में से एक है। यह अधिकार प्रतिवादी को सत्य की खोज के लिए दिया गया है, न कि मात्र औपचारिकता के लिए।
  2. Ex-Parte Does Not Mean No Defence:
    “Ex-parte” का अर्थ यह नहीं कि प्रतिवादी का बचाव अधिकार शून्य हो गया। वह सीमित स्तर पर अपने अधिकार का प्रयोग कर सकता है।
  3. Inherent Powers of Court (S.151 CPC):
    न्यायालय के पास यह स्वाभाविक शक्ति है कि वह न्याय के हित में किसी भी पक्ष को सुनने या प्रतिपरीक्षण की अनुमति देने का विवेक रखता है।
  4. Justice Must Appear to be Done:
    यदि प्रतिवादी को प्रतिपरीक्षण का अवसर नहीं दिया गया, तो न्याय की प्रक्रिया अधूरी और एकतरफा प्रतीत होती है, जिससे Natural Justice का उल्लंघन होता है।

पूर्ववर्ती निर्णयों का संदर्भ (Precedent Cases)

  1. Modula India v. Kamakshya Singh Deo, (1988) 4 SCC 619
    — सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि even without a written statement, defendant can cross-examine the plaintiff’s witnesses.
  2. Sangram Singh v. Election Tribunal, AIR 1955 SC 425
    — न्यायालय ने कहा कि प्रक्रियात्मक नियम न्याय के साधन हैं, न्याय में बाधा नहीं।
  3. Kailash v. Nanhku, (2005) 4 SCC 480
    — लिखा गया कि CPC की समयसीमा और प्रक्रिया directory है, mandatory नहीं; न्याय की प्राप्ति सर्वोच्च है।

विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण (Analytical Perspective)

यह निर्णय भारतीय न्यायिक प्रणाली की निष्पक्षता और समान अवसर के सिद्धांत को पुनः स्थापित करता है।

एकतरफा कार्यवाही (Ex-Parte Proceedings) का अर्थ यह नहीं है कि वादी जो चाहे वह कह दे और न्यायालय बिना परीक्षण के उसे मान ले। न्यायालय का कर्तव्य है कि वह सत्य की खोज करे, चाहे कोई पक्ष निष्क्रिय क्यों न हो।

प्रतिवादी का प्रतिपरीक्षण अधिकार न केवल उसकी रक्षा का माध्यम है, बल्कि यह न्याय के संतुलन (Balance of Justice) का आवश्यक हिस्सा है।

यदि इस अधिकार को नकार दिया जाए, तो वादी के साक्ष्यों को अंधविश्वासपूर्वक सत्य मान लिया जाएगा, जिससे न्याय का उद्देश्य ही विफल हो जाएगा।


निष्कर्ष (Conclusion)

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय इस सिद्धांत को मजबूत करता है कि —

“प्रक्रिया न्याय का साधन है, न कि न्याय में अवरोध।”

भले ही कोई पक्ष लिखित कथन दाखिल न करे, न्यायालय को उसे सत्य उद्घाटन के अवसर से वंचित नहीं करना चाहिए।

यह निर्णय उन सभी दीवानी वादों के लिए मार्गदर्शक (landmark) है जहाँ न्यायालयों ने तकनीकी आधार पर प्रतिवादी को सुनने का अवसर नहीं दिया।


सारांश रूप में कहा जाए तो —

“लिखित कथन न देने से अधिकार समाप्त नहीं होता,
सत्य की खोज के लिए प्रतिपरीक्षण का अधिकार सदैव जीवित रहता है।
न्याय केवल निर्णय देने का नाम नहीं —
बल्कि प्रत्येक पक्ष को अपनी बात कहने और विरोधी को परखने का अवसर देने का नाम है।”