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सती प्रथा पर प्रतिबंध (1829): एक अमानवीय प्रथा का अंत

सती प्रथा पर प्रतिबंध (1829): एक अमानवीय प्रथा का अंत
भूमिका

भारत के सामाजिक इतिहास में कुछ ऐसी परंपराएं रही हैं जिन्होंने समाज को न केवल नैतिक रूप से कमजोर किया बल्कि मानवता के मूल्यों को भी चोट पहुंचाई। इनमें से एक थी सती प्रथा। यह प्रथा मुख्यतः हिंदू समाज में प्रचलित थी, जिसके तहत किसी महिला को, उसके पति की मृत्यु के बाद, पति की चिता पर जीवित जलाया जाता था। इसे धर्म, पवित्रता और निष्ठा का प्रतीक बताया जाता था, लेकिन वास्तव में यह एक अमानवीय और क्रूर कुप्रथा थी। 19वीं सदी के प्रारंभ में इस प्रथा के विरुद्ध व्यापक सामाजिक आंदोलन चला और अंततः 1829 में इसे क़ानून द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया।


सती प्रथा का ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

सती प्रथा का उल्लेख कुछ प्राचीन ग्रंथों और ऐतिहासिक दस्तावेजों में मिलता है, हालांकि यह सर्वत्र प्रचलित नहीं थी।

  • उत्पत्ति: माना जाता है कि यह प्रथा मुख्यतः उच्च जातियों, विशेषकर क्षत्रिय और कुछ ब्राह्मण वर्ग में प्रचलित थी।
  • कारण:
    1. पितृसत्तात्मक सोच – महिला को पति की संपत्ति और जीवन का अभिन्न अंग मानना।
    2. पुनर्विवाह पर रोक – विधवाओं के पुनर्विवाह पर सामाजिक निषेध, जिससे उन्हें जीवनभर कष्ट सहना पड़ता था।
    3. धार्मिक मिथक – यह विश्वास कि सती होकर महिला स्वर्ग प्राप्त करेगी और अपने पति के साथ पुनर्जन्म में सुखी जीवन पाएगी।
    4. आर्थिक कारण – कुछ परिवारों में विधवा का जीवित रहना बोझ माना जाता था।

सती प्रथा की क्रूरता और सामाजिक प्रभाव

सती प्रथा केवल महिला के जीवन का अंत नहीं करती थी, बल्कि यह उसकी इच्छा, स्वतंत्रता और मानवीय अधिकारों का भी हनन करती थी।

  • अधिकांश मामलों में महिलाएं इस प्रथा के लिए स्वेच्छा से तैयार नहीं होती थीं, बल्कि उन पर परिवार और समाज का दबाव होता था।
  • सती के दौरान महिलाएं शारीरिक रूप से बंधन में रखी जातीं, ताकि वे भाग न सकें।
  • इससे समाज में महिलाओं की निम्न स्थिति और अधिक मजबूत हो गई, और यह संदेश गया कि विधवा का जीवन बेकार है।

ब्रिटिश शासन और सती प्रथा

जब भारत में ब्रिटिश शासन स्थापित हुआ, तो अंग्रेज अधिकारियों ने सती प्रथा को देखकर इसे बर्बर और असभ्य परंपरा माना।

  • प्रारंभ में ब्रिटिश प्रशासन ने धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति अपनाई।
  • लेकिन 18वीं सदी के उत्तरार्ध और 19वीं सदी की शुरुआत में, बंगाल प्रेसीडेंसी में सती प्रथा के कई भयावह मामले सामने आए।
  • आंकड़ों के अनुसार, केवल 1815 से 1828 के बीच बंगाल में 8000 से अधिक सती हुईं।

राजा राम मोहन राय का संघर्ष

सती प्रथा को समाप्त करने का सबसे बड़ा श्रेय राजा राम मोहन राय को जाता है।

  • उन्होंने देखा कि उनकी अपनी भाभी को पति की मृत्यु के बाद जबरन सती कर दिया गया था।
  • इस घटना ने उन्हें गहराई से प्रभावित किया, और उन्होंने सती प्रथा के खिलाफ सामाजिक और बौद्धिक आंदोलन शुरू किया।
  • उन्होंने अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखे, धार्मिक ग्रंथों का विश्लेषण किया और साबित किया कि वेदों और उपनिषदों में सती प्रथा का कोई अनिवार्य उल्लेख नहीं है।
  • उन्होंने ब्रिटिश प्रशासन से सती प्रथा पर कानूनी प्रतिबंध लगाने की मांग की।

कानूनी प्रतिबंध: सती प्रथा उन्मूलन अधिनियम, 1829

राजा राम मोहन राय के प्रयासों और समाज के जागरूक वर्ग के समर्थन से, तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक ने सती प्रथा को समाप्त करने का ऐतिहासिक निर्णय लिया।

  • 4 दिसंबर 1829 को “Bengal Sati Regulation, 1829” लागू किया गया।
  • प्रमुख प्रावधान:
    1. सती प्रथा को अवैध और दंडनीय अपराध घोषित किया गया।
    2. किसी भी व्यक्ति को सती में भाग लेने, प्रोत्साहित करने या सहायता करने पर फांसी या आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती थी।
    3. यह कानून प्रारंभ में बंगाल, बिहार और उड़ीसा में लागू हुआ, बाद में पूरे भारत में लागू किया गया।

सती प्रथा समाप्त होने के बाद के प्रभाव

  • महिलाओं के जीवन के अधिकार की कानूनी सुरक्षा सुनिश्चित हुई।
  • समाज में सुधारवादी आंदोलनों को गति मिली, जिससे बाल विवाह, पर्दा प्रथा और विधवा पुनर्विवाह जैसे मुद्दों पर भी चर्चा शुरू हुई।
  • महिलाओं की शिक्षा और पुनर्विवाह को बढ़ावा देने वाले कानून बनाए गए।
  • हालांकि कुछ रूढ़िवादी वर्ग ने इसका विरोध किया और इसे धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप बताया, लेकिन धीरे-धीरे समाज ने इसे स्वीकार कर लिया।

आधुनिक दृष्टिकोण और संवैधानिक संरक्षण

भारतीय संविधान में महिला के जीवन और समानता के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है।

  • अनुच्छेद 14 – सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समानता।
  • अनुच्छेद 15 – लिंग के आधार पर भेदभाव का निषेध।
  • अनुच्छेद 21 – जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार।
    आज सती प्रथा पूरी तरह समाप्त हो चुकी है, लेकिन 1987 में राजस्थान के रूपक कंवर मामले ने दिखाया कि अंधविश्वास अब भी कुछ जगहों पर मौजूद है। इसके बाद सती (निवारण) अधिनियम, 1987 लाया गया, जिसमें सती का महिमामंडन भी अपराध माना गया।

निष्कर्ष

सती प्रथा पर 1829 में लगा प्रतिबंध भारतीय समाज सुधार आंदोलन का एक ऐतिहासिक मील का पत्थर था। यह केवल एक कुप्रथा का अंत नहीं था, बल्कि महिलाओं की गरिमा, स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की जीत भी थी। राजा राम मोहन राय और लॉर्ड विलियम बेंटिक जैसे व्यक्तियों की दूरदर्शिता और साहस ने आने वाली पीढ़ियों को एक ऐसा समाज दिया, जहां महिला को जिंदा जलाने जैसी क्रूरता अस्वीकार्य है। यह घटना हमें यह भी सिखाती है कि सामाजिक परिवर्तन के लिए जनजागरण और कानूनी सुधार दोनों आवश्यक हैं