सड़क पर पुलिस और नागरिकः भरोसे का पुल या दूरी की दीवार?
🔷 प्रस्तावना
भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र में पुलिस और नागरिकों के बीच संबंध सुरक्षा, सेवा और सहयोग पर आधारित होने चाहिए। परंतु विडंबना यह है कि सड़क पर अक्सर जब एक आम नागरिक पुलिस को देखता है, तो उसके मन में भय, असहजता या अविश्वास उत्पन्न होता है। क्या यह स्थिति उस संबंध की सही तस्वीर है, जिसकी नींव संविधान में ‘लोकसेवा’ की भावना से रखी गई थी?
आज जब समाज में कानून-व्यवस्था, आपराधिक घटनाएँ, और नागरिक अधिकारों को लेकर चर्चा तेज़ है, तब यह सवाल और भी ज़रूरी हो जाता है:
“क्या पुलिस और नागरिकों के बीच भरोसे का पुल बन रहा है, या एक अदृश्य दीवार खड़ी हो गई है?”
यह लेख पुलिस और नागरिकों के परस्पर संबंध, उसमें व्याप्त चुनौतियाँ, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, सामाजिक दृष्टिकोण, और इन संबंधों को बेहतर बनाने के लिए आवश्यक उपायों का गहराई से विश्लेषण करता है।
🔷 पुलिस और नागरिक संबंधों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भारत में पुलिस व्यवस्था की नींव भारतीय पुलिस अधिनियम, 1861 के तहत ब्रिटिश काल में रखी गई थी। इसका उद्देश्य था — जनता को नियंत्रित करना, न कि सेवा देना। यह व्यवस्था औपनिवेशिक सोच से प्रेरित थी, जहाँ पुलिस शक्ति का प्रतीक थी, न कि विश्वास का।
स्वतंत्र भारत में भी, यही पुलिस ढांचा बड़े पैमाने पर यथावत रहा। हालांकि संविधान ने राज्य को “जनता के लिए और जनता द्वारा” कार्य करने की व्यवस्था दी, परंतु पुलिस संगठन में उस संवैधानिक सोच का पूरी तरह से समावेश नहीं हो सका।
🔷 सड़क पर पुलिस की भूमिका और नागरिकों की धारणा
✅ पुलिस की जिम्मेदारियाँ:
- कानून और व्यवस्था बनाए रखना
- अपराधों की रोकथाम और जाँच
- आपदा या संकट में सहायता
- यातायात प्रबंधन
- शांतिपूर्ण प्रदर्शन और सभा की निगरानी
✅ नागरिकों की आम धारणा:
- पुलिस से संपर्क करने से लोग बचते हैं
- थाने जाने को संकोच या डर से जोड़ा जाता है
- FIR दर्ज न करने, रिश्वत माँगने, जातीय/लैंगिक पक्षपात की शिकायतें आम हैं
- गरीब और अशिक्षित वर्ग स्वयं को कमज़ोर या असहाय मानता है
✅ एक ओर डर, दूसरी ओर क्रोध:
जहाँ एक ओर नागरिकों में पुलिस से भय है, वहीं पुलिसकर्मियों में भी कभी-कभी आम जनता को अज्ञानी, अविश्वसनीय या उपद्रवी मानने की प्रवृत्ति देखी जाती है।
🔷 भरोसे में कमी के कारण
कारण | विवरण |
---|---|
औपनिवेशिक मानसिकता की विरासत | सेवा नहीं, नियंत्रण की भूमिका |
राजनीतिक हस्तक्षेप | स्वतंत्र कार्यशैली बाधित होती है |
भ्रष्टाचार और पक्षपात | शिकायतों में भेदभाव, रिश्वत, अनुचित व्यवहार |
शिकायत दर्ज करने में बाधा | FIR न लिखना, पीड़ित को उल्टा डराना |
पुलिस अत्याचार और बल प्रयोग | हिरासत में मृत्यु, फर्जी मुठभेड़ |
सांप्रदायिक, जातीय और लैंगिक पक्षपात | कमजोर वर्गों के प्रति असंवेदनशीलता |
प्रशिक्षण और मानवीय दृष्टिकोण का अभाव | व्यावसायिकता की कमी |
🔷 कोविड-19 काल में पुलिस-नागरिक संबंध की परीक्षा
महामारी के दौरान पुलिस का एक मिश्रित चेहरा सामने आया —
✳️ सकारात्मक पहलू:
- भोजन और दवाओं की आपूर्ति
- प्रवासी मज़दूरों की सहायता
- क्वारंटीन निगरानी और जनजागरूकता
✳️ नकारात्मक घटनाएँ:
- लाठियाँ बरसाना
- राशन ले जा रहे लोगों को पीटना
- असंवेदनशील व्यवहार
यह दौर एक सुनहरा अवसर था जब पुलिस नागरिकों का भरोसा जीत सकती थी, परंतु कुछ मामलों में यह अवसर विश्वास टूटने में बदल गया।
🔷 विश्वास बहाली की पहलें
✅ 1. सामुदायिक पुलिसिंग (Community Policing)
- मोहल्ला समिति, स्कूल संपर्क अभियान
- युवाओं के साथ संवाद
- नागरिक जागरूकता कार्यक्रम
✅ 2. “फ्रेंडली पुलिस” की अवधारणा
- विशेष महिला डेस्क, बाल मित्र पुलिस
- पीड़ितों से सहानुभूति और सम्मानजनक व्यवहार
✅ 3. सोशल मीडिया के माध्यम से संपर्क
- ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सएप हेल्पलाइन
- नागरिकों की शिकायतों पर तत्काल प्रतिक्रिया
✅ 4. ‘बीट पुलिसिंग’ प्रणाली
स्थानीय क्षेत्र के पुलिसकर्मी का नियमित संपर्क –
“पुलिस की पहचान, भरोसे की बुनियाद।”
🔷 सुधार की आवश्यकता: पुलिस और नागरिक दोनों स्तरों पर
🔹 पुलिस के लिए सुधार:
सुधार क्षेत्र | सुझाव |
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प्रशिक्षण | संवेदनशीलता, मानवाधिकार, संवाद कौशल |
भाषा और व्यवहार | सख्त नहीं, सहयोगी रवैया |
जवाबदेही तंत्र | शिकायतों पर त्वरित और निष्पक्ष कार्रवाई |
स्थानीय संवाद | हर क्षेत्र में नागरिक संपर्क अधिकारी |
कार्य स्थितियाँ | पर्याप्त बल, अवकाश, मनोवैज्ञानिक सहयोग |
🔹 नागरिकों के लिए सुधार:
सुधार क्षेत्र | सुझाव |
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कानूनी जानकारी | FIR, ज़मानत, गिरफ्तारी से जुड़े अधिकार |
सहयोग की भावना | कानून पालन में सहयोग, पुलिस को दुश्मन न समझें |
शिकायत का अधिकार | सही मंच पर सही शिकायत करें |
सामूहिक प्रयास | सामुदायिक पहलकदमी और स्थानीय समर्थन |
🔷 पुलिस और नागरिक साझेदारी के उदाहरण
✅ 1. केरल की ‘जनमैत्री पुलिस’
- सामुदायिक बातचीत
- शिकायत पंजीकरण आसान
- स्थानीय स्तर पर समस्याओं का समाधान
✅ 2. दिल्ली पुलिस की ‘Eyes & Ears Scheme’
- नागरिकों को सतर्कता के लिए जोड़ा गया
- दुकानदार, गार्ड, ड्राइवर, कॉलोनी RWA शामिल
✅ 3. नागालैंड की ‘PEACE CLUBS’
- स्कूल और कॉलेज के छात्रों को शांति रक्षक के रूप में प्रशिक्षित करना
🔷 भविष्य की दिशा: भरोसे का पुल कैसे बने?
- पुलिस को “सेवा संस्था” के रूप में प्रशिक्षित और प्रस्तुत किया जाए।
- जनता को “सहयोगी नागरिक” के रूप में देखा जाए, न कि संभावित अपराधी।
- हर थाने में हेल्प डेस्क, महिला काउंसलर, शिकायत पटल अनिवार्य हो।
- स्थानीय पुलिस की कार्यशैली पर सामुदायिक निगरानी व्यवस्था हो।
- मीडिया और पाठ्यक्रम में सकारात्मक उदाहरणों को बढ़ावा दिया जाए।
🔷 निष्कर्ष
पुलिस और नागरिकों के बीच का संबंध किसी भवन की दो दीवारों के समान है — यदि दोनों के बीच भरोसे का पुल बना हो तो वह समाज को टिकाऊ बनाए रखता है। परंतु यदि इन दोनों के बीच अविश्वास, डर और दूरी की दीवार हो, तो यह लोकतंत्र को खोखला कर देती है।
आज समय की माँग है कि पुलिस और नागरिक एक-दूसरे को शत्रु नहीं, सहयोगी समझें। ऐसा तभी होगा जब पुलिस संवेदनशील, उत्तरदायी और पारदर्शी बने और नागरिक जागरूक, सहयोगी और उत्तरदायी।
❝ लोकतंत्र का सबसे सुंदर दृश्य तब होता है, जब वर्दी में व्यक्ति और आम नागरिक दोनों एक-दूसरे की आंखों में सम्मान और भरोसा खोजते हैं। ❞