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🚦 सड़क दुर्घटना पीड़ित के परिजनों को न्याय दिलाने के लिए जेल के बजाय 10 लाख रुपये मुआवजा – सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय, “जेल नहीं, न्याय को मरहम लगने दो”
लेख:
दिनांक 21 मई 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय सुनाया, जिसमें सड़क दुर्घटना के एक मामले में दोषी को जेल की सजा के स्थान पर पीड़ित के परिवार को 10 लाख रुपये का मुआवजा देने का निर्देश दिया। कोर्ट ने कहा कि अनपेक्षित नुकसान के मामलों में सजा का उद्देश्य केवल दंड देना नहीं, बल्कि न्याय को मरहम लगाने का भी होना चाहिए। इस फैसले ने भारतीय दंड सिद्धांतों और न्यायशास्त्र के मानवीय दृष्टिकोण को नई दिशा दी है।
मामले के तथ्य:
एक सड़क दुर्घटना में एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई। निचली अदालत ने आरोपी चालक को कारावास की सजा सुनाई थी। आरोपी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की। अपील पर विचार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि दुर्घटना ‘अनपेक्षित और दुर्भाग्यपूर्ण’ थी तथा आरोपी का उद्देश्य किसी को नुकसान पहुँचाना नहीं था।
फैसले के मुख्य बिंदु:
🔹 दोषसिद्धि कायम रही, लेकिन सजा में बदलाव: सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी की दोषसिद्धि को बरकरार रखते हुए उसे सीधे जेल भेजने के बजाय Probation of Offenders Act, 1958 का उपयोग कर दंड का स्वरूप परिवर्तित किया।
🔹 जेल के बजाय मुआवजा: अदालत ने आरोपी को पीड़ित के परिवार को ₹10 लाख रुपये का मुआवजा अदा करने का निर्देश दिया।
🔹 “जेल नहीं, न्याय को मरहम लगने दो”: अदालत ने टिप्पणी की कि दंड के उद्देश्य में ‘न्याय’ के तत्व को भी प्रमुखता दी जानी चाहिए। न्याय सिर्फ प्रतिशोध का नाम नहीं, बल्कि मरहम लगाने का माध्यम भी हो सकता है।
🔹 अनपेक्षित अपराध में पुनर्वास पर ज़ोर: अदालत ने कहा कि ऐसे मामलों में, जहां घटना का उद्देश्य हत्या या गंभीर हिंसा नहीं था, वहां जेल के बजाय पुनर्वास, पुनःशिक्षा और पीड़ित के परिवार को न्याय दिलाने के प्रयास किए जाने चाहिए।
कानूनी आधार:
➡️ सुप्रीम कोर्ट ने Probation of Offenders Act, 1958 की धारा 4 और 5 के तहत दोषी को जेल के बजाय मुआवजा भुगतान करने की अनुमति दी।
➡️ भारतीय दंड संहिता की धारा 304A (लापरवाही से मृत्यु) के तहत सजा सुनाते हुए अदालत ने पुनर्वास और न्याय को प्राथमिकता दी।
न्यायपालिका की संवेदनशीलता:
इस फैसले से यह स्पष्ट हो गया कि भारतीय न्यायपालिका केवल सजा तक सीमित नहीं है, बल्कि वह अपराध के सामाजिक प्रभाव, पीड़ित के दर्द और आरोपी के पुनर्वास को भी महत्व देती है। यह निर्णय बताता है कि जब अपराध ‘अनपेक्षित’ हो और अपराधी का इरादा हिंसा का न हो, तो न्याय का उद्देश्य केवल जेल नहीं, बल्कि मरहम लगाने का भी होना चाहिए।
निष्कर्ष:
इस ऐतिहासिक निर्णय ने एक नई दिशा प्रदान की है कि अपराधी को सुधारने और पीड़ित परिवार को आर्थिक सहायता देकर न्याय को और अधिक मानवीय बनाया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने यह दिखा दिया कि ‘जेल’ ही एकमात्र न्याय का रास्ता नहीं, बल्कि पीड़ित के परिवार को न्याय और राहत देना भी न्यायपालिका का कर्तव्य है।