“संस्था की चुप्पी की शिकार: महिला जज अदिति कुमार शर्मा का भावुक इस्तीफा न्यायपालिका के भीतर मौन उत्पीड़न पर सवाल”

शीर्षक: “संस्था की चुप्पी की शिकार: महिला जज अदिति कुमार शर्मा का भावुक इस्तीफा न्यायपालिका के भीतर मौन उत्पीड़न पर सवाल”

प्रस्तावना:
भारत की न्यायपालिका को निष्पक्षता, ईमानदारी और नारी सशक्तिकरण का प्रतीक माना जाता है। लेकिन जब उसी प्रणाली के भीतर एक महिला न्यायिक अधिकारी को उत्पीड़न झेलना पड़े और न्याय की अपेक्षा रखने पर चुप्पी और उपेक्षा मिले, तो यह न केवल संस्था की कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है, बल्कि उस विश्वास को भी तोड़ता है जिससे यह व्यवस्था संचालित होती है। मध्यप्रदेश की सिविल जज अदिति कुमार शर्मा का इस्तीफा इसी टूटे विश्वास और न्याय की उपेक्षा का भावनात्मक दस्तावेज बन गया है।

मामले का सार:
शहडोल जिले में पदस्थ जूनियर डिवीजन की सिविल जज अदिति कुमार शर्मा ने 28 जुलाई को मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को इस्तीफा सौंपते हुए लिखा कि वह एक कोर्ट अधिकारी के रूप में नहीं, बल्कि संस्था की चुप्पी की शिकार के रूप में सेवा त्याग रही हैं। उन्होंने एक वरिष्ठ न्यायिक अधिकारी पर उत्पीड़न और दुर्व्यवहार के गंभीर आरोप लगाए थे, लेकिन उस पर कोई जांच नहीं हुई। इसके उलट, उसी अधिकारी को हाईकोर्ट के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त कर दिया गया।

इस्तीफे का भावनात्मक पक्ष:
अदिति कुमार शर्मा का त्यागपत्र एक न्यायिक अधिकारी के टूटते विश्वास का प्रकट रूप है। उन्होंने लिखा:

“मैं बदला नहीं चाहती थी, मैं न्याय मांग रही थी। सिर्फ अपने लिए नहीं, बल्कि उस संस्था के लिए जिसमें मैंने विश्वास किया, भले ही उसने मुझ पर विश्वास नहीं किया।”

यह वाक्य उन सभी संस्थानों के लिए आत्मावलोकन का अवसर होना चाहिए, जो अपने भीतर की असमानताओं और उत्पीड़न की शिकायतों पर आंख मूंद लेते हैं।

‘न्यायमूर्ति’ शब्द पर चोट:
अदिति का सबसे गहरा आघात शायद इस बात पर था कि जिस व्यक्ति ने उन्हें मानसिक कष्ट पहुंचाया, उसे पूछताछ या जांच के बजाय “पुरस्कृत” किया गया। उन्होंने लिखा:

“जिस व्यक्ति ने मुझे पीड़ा दी, उससे कोई सवाल नहीं किया गया… अब उसे ‘न्यायमूर्ति’ कहा जा रहा है, जो इस शब्द के साथ एक क्रूर मजाक है।”

यह टिप्पणी न केवल उनके व्यक्तिगत दर्द को दर्शाती है, बल्कि न्यायपालिका की प्रणाली में मौन और संरक्षण की संस्कृति को उजागर करती है।

प्रक्रिया में खामियां और न्यायिक असंवेदनशीलता:
महिला जज ने स्पष्ट किया कि उन्होंने सबूतों के साथ शिकायत की, लेकिन उन्हें न तो जांच का आश्वासन मिला, न आरोपी अधिकारी को कोई नोटिस दिया गया और न ही स्पष्टीकरण मांगा गया। इस पूरे घटनाक्रम ने उन्हें यह अनुभव कराया कि उनका उत्पीड़न संस्था के लिए कोई महत्व नहीं रखता।

संदेश पूरे तंत्र को:
अदिति ने अपने पत्र में कहा कि उनका इस्तीफा केवल एक कागज नहीं, बल्कि उन फाइलों में दर्ज एक ऐसा दस्तावेज है जो संस्था की आत्मा को झकझोरता रहेगा। यह केवल व्यक्तिगत हार नहीं है, बल्कि उस न्यायिक व्यवस्था के आत्ममंथन का अवसर है जो न्याय की रक्षा करने का दावा करती है।

व्यापक सामाजिक संदर्भ:
यह घटना केवल अदिति कुमार शर्मा की कहानी नहीं है। यह उन अनेक महिलाओं की आवाज है जो किसी संस्था का हिस्सा होते हुए भी अपने ही साथियों के हाथों अपमानित, प्रताड़ित और उपेक्षित होती हैं। यह मामला उस सामाजिक और संस्थागत चुप्पी को तोड़ने की जरूरत को सामने लाता है, जो शक्तिशाली पदों पर बैठे लोगों के खिलाफ आवाज उठाने पर लगाई जाती है।

क्या होना चाहिए आगे?

  • स्वतंत्र जांच: इस मामले की निष्पक्ष, स्वतंत्र और समयबद्ध जांच होनी चाहिए।
  • शिकायत निवारण की संरचना में सुधार: न्यायिक प्रणाली के भीतर कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न और मानसिक शोषण की शिकायतों को प्रभावी तरीके से हल करने के लिए पारदर्शी तंत्र बनाना आवश्यक है।
  • संवेदनशील नेतृत्व: न्यायिक नेतृत्व को चाहिए कि वह आरोपों को नज़रअंदाज़ करने के बजाय संज्ञान ले और संवेदनशीलता के साथ कार्रवाई करे।

निष्कर्ष:
सिविल जज अदिति कुमार शर्मा का इस्तीफा एक व्यक्तिगत निर्णय नहीं, बल्कि न्यायपालिका को आत्मनिरीक्षण का सन्देश है। उनके शब्द और उनके अनुभव न्यायिक संस्था के मौन पक्षों पर रोशनी डालते हैं। यदि ऐसी संस्थाओं में भी एक महिला को न्याय की जगह चुप्पी मिले, तो यह संकेत है कि न्याय की मूर्ति आंखें मूंदे नहीं रह सकती – अब उसे जागरूक, जवाबदेह और संवेदनशील बनना होगा।